अण्णा का आंदोलन और उसके बाद की राजनीतिक पार्टी / मा. गो. वैद्य

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श्री अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार निर्मूलन के लिए शुरु किया अपना आंदोलन समाप्त करने की घोषणा की. इसी उद्दिष्ट की पूर्ति के लिए, वे नई राजनीतिक पार्टी बना रहे है, ऐसा भी बताया गया. स्वयं अण्णा को राजनीति मतलब सत्ताकारण में दिलचस्वी नहीं. लेकिन उनके करीब जो लोग जमा हुए थे, उनकी वैसी स्थिति नहीं. उन्हें राजनीति में दिलचस्वी है और सत्ताकारण में भी.

लोकपाल प्रकरण

अण्णा के आंदोलन का प्रारंभ सशक्त लोकपाल की नियुक्ति के मुद्दे पर हुआ. यह मान्य करना चाहिए कि, इस आंदोलन को लोगों का अभूतपूर्व समर्थन मिला. लोकपाल कैसा हो, उसकी नियुक्ति करने की रचना कैसी हो, उसे कौनसे और कितने अधिकार हो, इसका सब ब्यौरा टीम अण्णा ने बनाए कानून के प्रारूप में समाविष्ट था. अण्णा के इस ओंदोलन का विशाल रूप देखकर सरकार भी घबरा गई; फिर उन्होंने कूटनीति का अवलंब कर अण्णा को समझौते के चक्कर में लपेटा. सरकार ने ही लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करना तय किया. वह लोकसभा में प्रस्तुत भी किया और लोकसभा ने वह मंजूर भी किया. लेकिन यह सरकारी विधेयक एकदम ही खोखला है. उसने अण्णा की घोर निराशा की; और अण्णा फिर आंदोलन करने के लिए सिद्ध हुए. वह विधेयक अब राज्य सभा में मंजूरी के लिए अटका पड़ा है. सत्तारूढ संप्रमो को राज्य सभा में लोकसभा जैसा स्पष्ट बहुमत नहीं है. इसलिए वह तुरंत पारित नहीं हुआ, या जैसा है वैसा ही पारित होगा, इसकी गारंटी भी नहीं.

सियासी विकल्प

अण्णा ने फिर आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया. मुंबई में उसको परखा. लेकिन दिल्ली में जैसा प्रतिसाद मिला था, वैसा मुंबई में नहीं मिला; इसलिए कुछ समय जाने देने के बाद अण्णा ने फिर दिल्ली में आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया. टीम अण्णा में के कुछ लोगों ने अनिश्‍चितकालीन अनशन शुरु किया. तीन दिन बाद अण्णा भी उसमें शामिल हुए; लेकिन कुछ समय में ही उनके ध्यान में आया कि, करीब सोलह माह पूर्व, जनता का जो अभूतपूर्व प्रतिसाद इस आंदोलन को मिला था, वैसा अब नहीं मिल रहा; और मिलेगा भी नहीं; तब उन्होंने दि. ३ अगस्त को आंदोलन पीछे लिया. कुल दस दिनों में वह समाप्त हुआ. अण्णा का अनशन तो केवल छ: दिन चला. अनशन समाप्ती के समय जो भाषण हुए, (उनमें अण्णा के भाषण का भी समावेश है) उनमें यह स्पष्ट किया गया कि, अनशन आंदोलन करने में कोई मतलब नहीं. भ्रष्टाचार के निर्मूलन के लिए एक नया सियासी विकल्प ही चाहिए. अण्णा के एक अंतरंग सहयोगी अरविंद केजरिवाल ने तो अपनी नई पार्टी का नाम, उसकी रचना आदि के बारे में सूचना करने की विनति भी जनता से की और आश्‍चर्य यह कि तीन दिन बाद ही टीम अण्णा और जनता को भी धक्का देने वाली एक घोषणा अण्णा ने अपने ब्लॉग पर की. वह थी, इस आंदोलन के समय जो उनकी मूल टीम थी, वही उन्होंने बरखास्त कर दी! यह निर्णय, अपने किसी साथी के साथ विचारविनिमय कर लिया या, अण्णा ने स्वयं अकेले ही ऐसा तय किया, यह पता चलने का कोई रास्ता नहीं. इतना तो निश्‍चित है कि, उनके अनेक सहयोगी इस घोषणा से अचंभित है.

एक अलग विचार

इस संपूर्ण आंदोलन का ब्यौरा लेने पर हमारे सामने क्या चित्र निर्माण होता है? पहले हुए आंदोलन को प्रसार माध्यमों ने अमार्याद प्रसिद्धि दी थी. अण्णा के समर्थकों को लगा होगा कि, केवल प्रसिद्धि के कारण ही वे बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित कर पाए. यह तर्क अकारण नहीं कहा जा सकता. क्योंकि दुसरे आंदोलनपर्व में, अण्णा के कुछ अतिउत्साही समर्थकों ने, प्रसार माध्यमों के प्रतिनिधियों के साथ, आंदोलन को सही प्रसिद्धि नहीं देने के कारण से हाथापाई की थी. इसके लिए बाद में अण्णा ने माफी भी मॉंगी. लेकिन प्रश्‍न यह कि, क्या सही में प्रसार माध्यम आंदोलन सफल बनाते हैं? यह सच है कि, प्रसार माध्यम नकारात्मक प्रसिद्धि दे सकते हैं. कुछ संदेह भी निर्माण कर सकते हैं. लेकिन वे न आंदोलन खड़ा कर सकते है, न टिका कर रख सकते है. इसलिए कुछ हट के विचार किया जाना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है. उसके लिए कुछ घटना ध्यान में लेना आवश्यक है. पहले आंदोलन के समय आंदोलन स्थल पर भारतमाता का चित्र था. वह बीच में ही हटा दिया गया. क्यों? कहा गया कि, वह चित्र, यह आंदोलन रा. स्व. संघ पुरस्कृत है, ऐसा सूचित करता था! आंदोलनकर्ता प्रमुख के मन में यह विचार क्यों नहीं आया कि, भारतमाता यह केवल संघ की ही आराध्य देवता है? ऐसा सूचित करने में संघ का गौरव ही है. लेकिन क्या संघ के बाहर के लोगों के लिए भारतमाता वंदनीय, पूजनीय नहीं है? १६ माह पूर्व के आंदोलन में प्रचंड संख्या में लोग इक ट्ठा हुठ थे. लेकिन कोई अपघात नहीं हुआ; चोरी-चपाटी भी नहीं हुई, महिलाओं से छेडखानी भी नहीं हुई. क्यों? ९ अगस्त से शुरु हुए रामदेव बाबा के अनशन के पहले ही दिन अनेकों के भ्रमणध्वनियंत्र चोरी हुए. अण्णा के आंदोलन में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसका का कुछ श्रेय तो संघ के स्वयंसेवकों को दिया जाना चाहिए था या नहीं? उस समय के उस जनसागर में संघ के ही स्वयंसेवक बड़ी संख्या में शामिल थे, यह कारण किसे भी क्यों नहीं समझ आया? बाद में स्वयं अण्णा और उनकी टीम के लोगों ने संघ के बारे में ऐसे कुछ उद्गार निकाले कि, भ्रष्टाचार विरुद्ध के आंदोलन में स्वयंसेवकों का सक्रिय सहभाग हो, ऐसा निर्देश पुत्तूर (कर्नाटक) में हुई संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने देने के बाद सक्रिय हुए स्वयंसेवक तटस्थ बने होगे तो दोष किसका? ऐसा लगता है कि, यह बहुत बड़ा वर्ग मुंबई में के आंदोलन स्थल या अब जंतर मंतर गया ही नहीं होगा. अण्णा, लोगों के सुस्त प्रतिसाद का कारण यह तो नहीं होगा? कुछ कहा नहीं जा सकता. मुझे जो लगा वह मैंने बताया.

आंदोलन की व्यापकता

केवल सक्षम लोकपाल यंत्रणा की निर्मिति के लिए शुरु हुइ इस आंदोलन ने संपूर्ण भ्रष्टाचार का विषय ही व्याप लिया. यह अच्छा ही हुआ. टीम अण्णा ने तो भ्रष्ट मंत्रियों के नाम ही सरकार को दिए है. सरकार उस बारे में कुछ भी करने वाली थी ही नहीं. जो बात आरोपित भ्रष्ट मंत्रियों के बारे में वहीं विदेशी बँकों में जमा काले धन के बारे में. सत्ता की यंत्रणा चलाने वाले ही उसमें लिप्त होगे तो इससे अलग अनुभव क्या होगा? ठीक है, अब अनशन आंदोलन समाप्त हुआ है. ऐसे आंदोलन अमर्याद समय तक चलते भी नहीं. इस कारण, वह पीछे लिया गया इस पर आश्‍चर्य करने का कारण नहीं और उसके बारे में विषाद मानने का भी कारण नहीं.

स्थिर राजनीतिक पार्टी के लिए

अब हम नए राजनीतिक विकल्प का स्वागत करें. उस विकल्प का नाम अब तक निश्‍चित नहीं हुआ है. इस कारण, उसकी रचना के स्वरूप के बारे में मतप्रदर्शन करना योग्य नहीं. लेकिन राजनीतिक पार्टी की स्थापना करना और उसे चलाना, आंदोलन खड़े करने और चलाने के जैसा आसान नहीं. आंदोलन के लिए किसी मंच की स्थापना काफी होती है. एक उद्दिष्ट मर्यादित हो तो, मंच बन सकता है. उसे उद्दिष्ट प्राप्ती के बाद बरखास्त भी किया जा सकता है. संयुक्त महाराष्ट्र समिति यह इसका एक ठोस और शक्तिशाली उदाहरण है. मराठी भाषिकों का एक अखंड, संपूर्ण, अलग राज्य बनते ही समिति का जीवनोउद्दिष्ट ही समाप्त हुआ और समिति भी समाप्त हुई. लेकिन, स्थिर राजनीतिक पार्टी को आधारभूत सिद्धांत का अधिष्ठान आवश्यक होता है. भ्रष्टाचार निर्मूलन एक कार्यक्रम हो सकता है, अधिष्ठान नहीं. ऐसा अधिष्ठान ही न रहने पर पार्टी भटक जाती है, व्यक्ति-केंद्रित बनती है. बहुत हुआ तो परिवार केंद्रित कहे, हो जाती है. कॉंग्रेस, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, जयललिता की पार्टियॉं और शिवसेना, तृणमूल, राकॉं ऐसी अनेक पार्टियॉं हैं, जो व्यक्ति-केंद्रित या परिवार-केंद्रित हैं. अण्णा हजारे को निश्‍चित ही ऐसी पार्टी पसंद नहीं होगी. उन्हें अपने सकारात्मक आधारभूत तत्त्व बताने ही होगे.

पार्टी का स्वरूप

दूसरा यह कि पार्टी कार्यकर्ता-आधारित (cadre based) होगी कि नेतृत्व-आधारित (leader based) , इसका निर्णय लेना होगा और उसके अनुसार अपना संविधान बनाना होगा. कार्यकर्ता-आधारित पार्टी बननी होगी, तो प्राथमिक सदस्य कौन और उसके लिए नियम निश्‍चित करने होगे. कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था निर्माण करनी होगी. अण्णा के आंदोलन को देखे तो, उन्हें जनाधारित (mass based) पार्टी अभिप्रेत होगी, ऐसा तर्क किया जा सकता है. फिर पॉंच-दस रुपये वार्षिक चंदा निश्‍चित कर सदस्य बनाए जा सकेंगे. वे अपना प्रतिनिधि चुनेंगे. अर्थात् जो उन्हें सदस्य बनाएगा, वहीं उनका नेता बनेगा; और स्थानिक स्तर के ये नेता प्रांतिक और केंद्रिय स्तर के नेताओं का निर्वाचन करेंगे. यह हुआ रचना के संदर्भ में.

रचना का क्रम

फिर आते है कार्यक्रम. पहले उनका प्राधान्य क्रम निश्‍चित करना होगा. भ्रष्टाचारविरहित संपूर्ण राज्य कारोबार यह आधारभूत तत्त्व हो भी सकता है, तो भ्रष्टाचार जड़ से उखाड फेकना और भ्रष्टाचारी कोई भी हो, उसे छोड़ा नहीं जाएगा यह कार्यक्रम हो सकता है. लोगों को उत्तेजित करने का सामर्थ्य इस कार्यक्रम में निश्‍चित ही है. लेकिन फिर, उस पार्टी के छोटे-बड़े स्तर के नेताओं का नीजि और सार्वजनिक चारित्र्य निष्कलंक होना चाहिए. इसके लिए अंतर्गत समीक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए. कार्यक्रमों के साथ आते हैं उन कार्यक्रमों की सफलता के लिए करने के आंदोलन. ऐसा यह क्रम है. श्रीमद्भगवद् गीता के १८ वे अध्याय के १४ वे श्‍लोक में वह निर्देशित है. वह श्‍लोक है –

अधिष्ठानं तथा कर्ता

करणं च पृथग्विधम् |

विविधाश्च पृथक् चेष्टा:

दैवं चैवात्र पंचमम् ॥ 

इसमें भी पॉंचवे और अंतिम ‘दैव’ को हम फिलहाल छोड दे. पहले चार है (१) अधिष्ठान – मतलब आधारभूत तत्त्व. (२) कर्ता मतलब कार्यकर्ता और नेता. (३) करण मतलब साधन और (४) पृथक् चेष्टा: मतलब विभिन्न आंदोलन. इन सब का आलेख बनाकर ही कोई नई राजनीतिक पार्टी खड़ी की जा सकती है और चलाई भी जा सकती है.

धन की व्यवस्था

राजनीतिक पार्टी को और एक घटक का विचार करना पड़ता है. वह है पार्टी चलाने और चुनावों के लिए आवश्यक पैसा. वर्ष १९७७ का चुनाव अपवादभूत मानना चाहिए. उस समय न जनता दल के पैसा था, न उम्मीदवारों के पास. लेकिन वह आवश्यकता जनता ने ही पूरी की. कारण आपात्काल के विरुद्ध जनता के मन में प्रचंड रोष था. लेकिन यह अपवादात्मक उदाहरण है. अण्णा की पार्टी भी एखाद चुनाव इस पद्ध्रति से लड़ भी सकती है. लेकिन पार्टी के स्थायी संचालन के लिए निश्‍चित धन-संग्रह की योजना करनी ही पड़ेगी. अण्णा के सहयोगी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अनुभव-संपन्न लोग हैं. वे सब बातों का विचार कर ही नई पार्टी स्थापन करेंगे. हम उन्हें शुभेच्छा दें. कारण जनतांत्रिक व्यवस्था में लोगों के सामने एक से अधिक अच्छे विकल्प उपलब्ध होना उपकारक ही होता है.

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 

6 COMMENTS

  1. अन्ना और बाबा रामदेव को मिल रहा जन समर्थन वास्तवमें में जनता की मजबूरी है. ऐसा नहीं की अन्ना और बाबा रामदेव में कमियाँ नहीं हैं. कमियाँ अनेकों हैं, पर दूसरा कोई अधिक अछा विकल्प उपलब्ध न होने के कारण गुज़ारा करना पड़ रहा है. वास्तव में भारत की जनता वर्तमान सोनिया सरकार और नेताओं से अति की सीमा तक तंग आचुकी है. अतः जहां भी आशा की किरण नज़र आ रही है, जनता वहाँ जा रही है. हम जो लोग अन्ना और रामदेव में त्रुटियाँ निकालते हैं, वे सही हो सकती हैं पर आज की आवश्यकता है कि सही विकल्प दिया जाये. इसमें अभी तक कोई भी सफल नहीं हुआ है. जिन्होंने विकल्प देने का प्रयास किया या आश्वासन दिया उनकी कथनी, करनी एक नहीं, त्याग और तप का अभाव है. अहंकार तो बहुत है पर दुर्द्रिश्ती नहीं है जिसके चलते दूसरों से मिले परामर्श का आदर नहीं. तथाकथित राष्ट्रवादी संगठनों की आज की वास्तविकता यह है कि उनके कार्यकर्ताओं की जितनी त्याग, तपस्या व निराभिमानिता है; उसी अनुपात में उन्हें यश / सफलता मिल रही है. अन्ना और बाबा को मिल रहे यश के पीछे उनकी उनकी उतनी साधना है.
    # अन्ना की आध्यात्मिक और समाज सेवा – साधना पर सदेह नहीं किया जा सकता. उनका पूरा जीवन इमानदारी से समाज सेवा के लिए समर्पित है. इतिहास, विचार और दर्शन के बारे में उनकी समझ सीमित हो सकती है. अतः दुर्द्रिश्ता का अभाव नज़र आ जाता है. केजरीवाल आदि इसी कारण हावी हैं.
    # बाबा रामदेव के ब्रह्मचर्य की शक्ती व ऊर्जा उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण लगता है. उनकी कथनी और करनी में भारी भेद है. व्यक्तित्व में अन्ना जैसा गाम्भीर्य व ठहराव कहीं नहीं है, हलकापन बहुत है. अनेकों वही विष अपने उत्पादों में वे बेच रहे हैं जो विदेशी कंपनिया बेचती हैं. दूर दृष्टी का अभाव तो है ही, कहने और करने में भी भारी भेद है. इस प्रकार कुल मिला कर भारत की जनता के सामने अभीतक कोई सही विकल्प, सही नेतृत्व उपलब्ध नहीं. उसी खालीपन (वैक्यूम) का लाभ सब सही, गलत, बौने लोग व दल उठा रहे हैं. भारत की आवश्यकता है एक दूरद्रष्टा महामानव . आशा करनी चाहिए कि समुद्र मंथन की तरह चल रहे इस आलोडन में से वह महामानव जन्म लेगा या यूँ कहें कि जल्द ही वह सामने आयेगा .

  2. mananiye vaidyaji की बाते विल्कुल सही है . आन्दोलन कांग्रेसी तरीके से chalaya जा रहा था . भारतमाता का चित्र तो हटाया ही गया , इमाम बुखारी की खुसामद कर कांग्रेसी तुष्टिकरण भी अपनाया गया . जिस धर्मनिरपेक्षता से हर राष्ट्रवादी नागरिक ko अब उबकाई आने लगी है उस मार्ग पर अब कोई भी राष्ट्रवादी आन्दोलन सफल हो ही नहीं सकता

  3. आपकी बात सत्य आपने कार्यालय समय के पश्चात स्वयंसेवक अन्ना के लिए जुटते थे जिनहे अन्ना ने अपमानित कर आने से मना कर दिया नतीजा बड़ा जीरो………………………….

    • बिलकुल सही अभिषेक, स्वयंसेवक जब, जो आ पडा वो काम करता है, तो ये हवा की लहर पर चढ़ कर अगुवाई करने वाले सटरम फटरम नेता उसे नौकर ही समझ लेते हैं. यह अनुभव आपातकाल में भी हुआ है.

  4. माननीय वैद्यजीके लेख पर टिप्पणी करने का यह अर्थ नहीं लिया जाये की मैं उनका सम्मान कम करता हूँ
    (एक बार उन्हें बैठक में सुनने का भी अवसर मिला है )
    अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार निर्मूलन के नई राजनीतिक पार्टी बना रहे है, यह बुरी बात नहीं है भले ही स्वयं अण्णा को सत्ताकारण में दिलचस्वी नहीं हों पर किसी समूहमे रह कर उनका निर्णय सामूहिक निर्णय की प्रतिध्वनि है जो एक् सही कदम है . यदि कुछ लोगों को राजनीति में दिलचस्वी है और सत्ताकारण में भी तो क्या हर्ज़ है आखिर राष्ट्रभावी अनेक लोग उस विधा में लगे हुए हैं.

    लोकपाल प्रकरण

    सरकार ने लोकपाल विधेयक खोखला बनाया और उसे नयी वैकल्पिक सरकार भी शायद ही वैसा पारित करेगी जैसा अना टीम चाहती हो यह स्पस्ट है

    सियासी विकल्प

    हर आंदोलन हमेशा दुहराया नहीं जा सकता है ( उदहारण के लिए राम जन्मभूमि आन्दोलन ही- अयोध्या की सीट भी आन्दोलन के नायकों की नहीं बची )

    अरविंद केजरिवाल ने अपनी ढंग से जो सोचा वह सही था और गांधीवादी तरीके से कांग्रेस के विघटन की तर्ज़ पर जो गांधी नहीं कर पाए अन्ना ने टीम बरखास्त कर दी वह भी सही है अब उनके राजनीतिक अभियान में जिन्हें जाना हो वैसा समझ साथ आने की सच्चाई तो उनमे है !

    एक अलग विचार

    यह कहना गलत है की पहले हुए आंदोलन को प्रसार माध्यमों ने अमार्याद प्रसिद्धि दी थी. यदि दी भी थी तो अच्छी ही बात थी

    आंदोलन स्थल पर भारतमाता का चित्र हटाना गलत था पर केवल इस कारण से आन्दोलन ठंढा हो गया यह सही नहीं है

    वह चित्र, रा. स्व. संघ हर बड़े कार्यक्रम में लगता है पर आन्दोलन तो हमेशा नहीं खडा होता

    राम जन्मभूमि ही नहीं गोरक्षा आन्दोलन का क्या हुआ?

    भारतमाता सबों के लिए वंदनीय,है पर चित्र हटाने का अर्थ उनका भारतमाता के प्रति असम्मान नहीं मानना चाहिए हाँ संघ से चित्र विशेष जुदा होने के कारण दूरी माननी चाहिए ?

    क्या ऐसा संघ प्रणीत बीजेपी ने अपने झंडे में हरे रंग का पुट देकर , गांधीवादी समाजवाद को अपना कर नहीं किया ? क्या संघ ने उन्हें छोड़ दिया?

    यदि केवल इसी कारण से संघ के स्वयंसेवक अलग हुए तो यह समाज से कटने जैसा था –

    भ्रष्टाचार विरुद्ध के आंदोलन में स्वयंसेवकों का सक्रिय सहभाग हो, ऐसा निर्देश पुत्तूर (कर्नाटक) में हुई संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने देने के बाद सक्रिय हुए स्वयंसेवक तटस्थ बने होगे तो दोष किसका है -लगता है की संघ में सात्त्विक भावी स्वयंसेवकों की जगह रजोगुणीयों ने ली है और वे वस्तुतः तामसिक भावी हो निष्क्रिय हो गए जो अच्छा नहीं हुआ जिसका आकलन अगले दशक में कोई स्वयसेवक ही करेगा

    जब स्वयमसेवक समाज से जुटते हैं , आन्दोलन से जुटते है तो समाज तो पाता ही है संघ भी श्रेय ही सही पाता है और नहीं भी पाए तो भी अच्छे काम में लगना चाहिए ऐसा मेरे जैसे एक पूर्व स्वयमसेवक का अकिंचन मत है

    आंदोलन की व्यापकता

    आपने सही कहा है की सक्षम लोकपाल , संपूर्ण भ्रष्टाचार का विषय व्याप लिया. ऐसे आंदोलन अमर्याद समय तक चलते भी नहीं. इस कारण, वह पीछे लिया गया इस पर आश्‍चर्य करने का कारण नहीं और उसके बारे में विषाद मानने का भी कारण नहीं.

    स्थिर राजनीतिक पार्टी के लिए

    अब हम नए राजनीतिक विकल्प का स्वागत करें वैसे यह सही है की राजनीतिक पार्टी की स्थापना करना और उसे चलाना, आंदोलन खड़े करने और चलाने के जैसा आसान नहीं. स्थिर राजनीतिक पार्टी को आधारभूत सिद्धांत का अधिष्ठान आवश्यक होता है.

    वैसे भ्रष्टाचार निर्मूलन एक कार्यक्रम हो सकता है, अधिष्ठान नहीं इसे मैं नहीं मानता और इसे राजनीतिक लोगों की झोली में रख कर १९७४ का आन्दोलन भी भटक गया

    उन्हें अपने सकारात्मक आधारभूत तत्त्व जरूर बताने ही होगे पर ऐसा नाहे एही की नयी पार्टियां नहीं बनेगी और जो बनेगी वह व्यक्ति या परिवार केन्द्रित ही होगी

    पार्टी का स्वरूप

    पार्टी कार्यकर्ता-आधारित (cadre based) या नेतृत्व-आधारित (leader based) ,यह ठीक है उन्हें जनाधारित (mass based) पार्टी अभिप्रेत होगी,

    रचना का क्रम

    भ्रष्टाचारविरहित संपूर्ण राज्य कारोबार यह आधारभूत तत्त्व हो भी सकता है, तो भ्रष्टाचार जड़ से उखाड फेकना और भ्रष्टाचारी कोई भी हो, उसे छोड़ा नहीं जाएगा यह कार्यक्रम हो सकता है. लोगों को उत्तेजित करने का सामर्थ्य इस कार्यक्रम में निश्‍चित ही है. लेकिन फिर, उस पार्टी के छोटे-बड़े स्तर के नेताओं का नीजि और सार्वजनिक चारित्र्य निष्कलंक होना चाहिए..

    धन की व्यवस्था पार्टी चलाने और चुनावों के लिए आवश्यक पैसा.लेकिन पार्टी के स्थायी संचालन के लिए निश्‍चित धन-संग्रह की योजना करनी ही पड़ेगी. अण्णा के सहयोगी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अनुभव-संपन्न लोग हैं. वे सब बातों का विचार कर ही नई पार्टी स्थापन करेंगे. हम उन्हें शुभेच्छा दें. कारण जनतांत्रिक व्यवस्था में लोगों के सामने एक से अधिक अच्छे विकल्प उपलब्ध होना उपकारक ही होता है.

    हमने देखा है की बहुत से महापुरुषों के द्वारा नीव रखने पर भी भ्रष्टाचार से धन संग्रह हों एके कारण वे पार्टियां असफल हो गयीं – यदि देश में ऐसा नया विकल्प बनता है तो देश की जनता उनके योग क्षेम की व्यवस्था करेगी और संघ के स्वयंसेवकों को भी ऐसे दल में जाना चाहिए क्योंकि ये राष्ट्रिय हैं और हिंसा पर विश्वास नहीं करते साथ ही जब तक वे ईमानदार हैं अच्छे हैं

    धनाकर ठाकुर

  5. माननीय वैद्य जी ने राजनैतिक पक्ष स्थापन करने की पूरी कुंजी उनके सांगोपांग और सर्वांगी चिंतन द्वारा प्रस्तुत कर दी है. मुझे संदेह है, कि अण्णा और उनकी मंडली इन विचारों को गहराई में जाकर समझ पाएगी.

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