छ: मार्च और पंजाब, उत्तराखंड, यूपी के चुनाव परिणाम अभी कोई महीना भर दूर हैं तो चलें ये तय कर लें कि कांग्रेस की गत अगर दुर्गत हुई तो इसका कारण अन्ना और उनकी टीम होंगे। ठीक है?
ये भी तय कर लें कि अगर कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा तो उसकी वजह अन्ना होंगे। यह भी कि अगर कांग्रेस बेहतर का गई तो फिर हम सब मान लेंगे कि अन्ना को इन प्रदेशों की जनता ने नकार दिया है। जी हाँ, उनके मुद्दों या कहें तो उनके मुद्दे को चुनावी जंग में हथियार की तरह इस्तेमाल करने की उनकी हठधर्मिता को।
मेरा अनुभव है कि उनके कुछ चहेतों ने उन्हें भगवान की तरह पूजा और उनको सलाह तक भी देने वालों को जी भर के गरियाया है। ये भी देखा है हम सबने कि उन्हें आसमान पे बिठा देने वाले मीडिया ने थप्पड़ वाले उनके बयान पे उनके गांधीवादी होने पर ही प्रश्नचिन्ह लगाए हैं। उसी मीडिया ने जिसने हिसार में कांग्रेस की हार का श्रेय उन्हें दिया था। अपना ये मानना है कि हिसार में कांग्रेस की हार वहां की दीवारों पे साफ़ लिखी थी। जिसे हरियाणा निवासी अरविन्द केजरीवाल क्या, कोई भी पढ़ सकता था। टीम अन्ना सोचती थी कि बहती गंगा में हाथ धुल ही जाएंगे। हारना कांग्रेस को है ही। नामनेकी भी मिल ही जाएगी। हिसार की हार का श्रेय उन्हें दे भी वे पत्रकार बंधू रहे थे जिन्होंने खुद हरियाणा कभी नहीं देखा। जो जान सकते ही नहीं थे कि हिसार में कांग्रेस की हार की इबारत संगोत्र विवाह और फिर आरक्षण के मुद्दे पर जाट काफी पहले लिख चुके थे। कांग्रेस की जमानत तक जब्त करा देने वाले हिसार लोकसभा उपचुनाव के बाद रतिया विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस जब पिछली बार हारी सीट जीती तो शर्म के मारे किसी ने नहीं कहा कि अन्ना का वहां कोई असर नहीं हुआ। कह सकते हैं कि अन्ना टीम रतिया गई ही नहीं थी। हालांकि गई वो वहां इस लिए नहीं थी कि जैसे हिसार में कांग्रेस का उनके नहीं जाने के बावजूद हार जाना तय था वैसे ही रतिया में उनके गए होने के बावजूद जीत जाना निश्चित था।
बेहतर होता वैसी ही समझदारी अन्ना टीम ने पंजाब, उत्तराखंड और यूपी के चुनावों को लेकर भी की होती। पंजाबी में एक कहावत है कि- मारी नालों उलारी चंगी हदी ऐ। यानी, किसी को पीट देने से पीट देने का डर दिखाते रहना बेहतर होता है। अच्छा होता अन्ना वही करते। इस लिए भी कि राजनीति की काट राजनीति से, चुनावी हथकंडों की चुनावी हथकंडों से और भीड़ तंत्र की घूमक भीड़ से ही हो सकती है। चुनाव है तो वहां किसी पार्टी का विकल्प कोई पार्टी ही हो सकती है। आप किसी भी पार्टी को वोट नहीं देने का आह्वान करते हैं तो भी वोट तो लोग देंगे। और वोट आप भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देने को कहें तो फिर ये समझाना मुश्किल है कि कांग्रेस अगर ठीक नहीं है तो फिर माया क्यों है? और अगर आप दोनों को ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वोट नहीं देने की अपील कर रहे हैं तो फिर मुलायम या भाजपा को क्यों? असल बात तो ये है कि भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा नहीं हो सकता किसी भी चुनाव का किसी भी प्रदेश में। कानून व्यवस्था की हालत और रोज़गार के साधन होना न होना भी एक मुद्दा होता है। यूपी की ही बात करें तो बाबू लाल कुशवाहा भी एक मुद्दा हैं। देखने को ये देखना है कि यूपी की जनता किसे चुनेगी ?माया नहीं तो फिर कौन? क्या भाजपा पंहुच पाएगी बहुमत के आसपास। नहीं तो उसे कौन पार्टी सहयोग दे सकती है बहुमत के करीब मगर पीछे रह जाने की स्थिति में या कि क्या मुलायम हो सकते हैं विकल्प अपने दम पे या फिर क्या कांग्रेस देगी उन्हें समर्थन ज़रुरत होने पर?
होने को यूपी में मुलायम और कांग्रेस का दारोमदार इस पे भी निर्भर करेगा कि मुसलमानों के वोट ज़्यादा कौन लेता है? कल्पना करें कि अगर मुसलमान मुलायम की बजाय कांग्रेस के साथ चले जाते हैं तो क्या उनकी सीटें औरों से जितनी भी कम हों मगर मुलायम से अधिक नहीं हो जाएंगी? और अगर वो होंगी तो उसमे अन्ना का क्या योगदान है? या मुलायम की सीटें कांग्रेस से ज्यादा होने की सूरत में? अभी तक की इमानदार पत्रकारों और विश्लेषकों की राय में माया स्सत्ता से बाहर होने जा ही रही हैं। ऐसा है तो कांग्रेस जितनी भी पिछड़े, पिछली बार से तो ज्यादा सीटें वो लेने ही वाली है। तो क्या कहेंगे अन्ना और उनके साथी। क्या कहेंगे कि अभी तो इस से भी ज़्यादा लेने वाली थी कांग्रेस मगर उन्होंने कम करवा दीं!
तर्क की बात तर्क से होनी चाहिए। दलील के जवाब में दलील आनी चाहिए। अन्ना का अंधभक्त नहीं हूँ मैं। लेकिन उनके भ्रष्टाचार उन्मूलन आन्दोलन का पक्षधर ज़रूर हूँ। वो भी मगर उनकी शर्तों पे नहीं हूँ। मुझे लगता है किस यूपी में कांग्रेस की हालत अब से कुछ भी बेहतर होने की स्थिति में अन्ना बहुत बड़े लूज़र होंगे। न सिर्फ अपनी व्यक्तिगत छवि, कमज़ोर और अदूरदर्शी निर्णय बल्कि आन्दोलन के सन्दर्भ में भी। देखा है हम सबने उनके आन्दोलन धार जंतर मंतर से रामलीला मैदान तक कमज़ोर हुआ है और उसके बाद करीब करीब धारहीन। उनका चुनावी मैदान में उतर कर कांग्रेस को नुक्सान पंहुचाने का भय दिखाना कहीं न कहीं उनकी उसी हताशा का नतीजा है। ऐसे में अगर कांग्रेस इस तीन राज्यों में से दो में जीत और तीसरे में भी पहले से बेहतर कर गयी तो वो उनकी उतनी भी परवाह नहीं करेगी जितनी उसने अब तक की है। पहले भी कांग्रेस ने उनके साथ खेल ही खेला है। कितने लोग हैं इस देश में जो ये मानते हैं कि कांग्रेस को अपना बिल पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में गिर जाने का पता नहीं था। अन्ना आन्दोलन कर रहे थे। कांग्रेस राजनीति कर गई। और आप देखना इन तीन राज्यों में बेहतर करने के बाद वो किसी भी भाषा में पूछेगी अन्ना से यही कि आखिर क्या बिगाड़ लिया आपने कांग्रेस का?
और ये हाइप बना के जनता में बहस और उसके बाद राय बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। और तब अन्ना या उनके सलाहकारों के पास कोई माकूल जवाब नहीं होगा। कम से कम ऐसा तो नहीं जो उनके प्रति जंतर मंतर जैसा जूनून दोबारा पैदा कर सके। और ये अन्ना की हो न हो उस जनता की ज़रूर हार होगी जो मान के चलती थी कि इस देश को भ्रष्टाचार से निजात केवल अन्ना ही दिला सकते हैं। अन्ना की छवि कमज़ोर हुई तो फिर उनका जन लोकपाल तो क्या, संसद में मात्र बहस भी संभावना शून्य हो जाएगी। हो ये भी सकता है कि अन्ना या उनकी टीम पर उनके चरित्र हनन के नए अस्त्र इस्तेमाल होने लगें। क्योंकि ये राजनीति है तो फिर इसमें बख्शता कोई किसी को नहीं है। मीडिया उनके थप्पड़ वाले बयान को आज भी पीछे ले जा ले जा कर दिखाता है। तब उनके खिलाफ कुछ आएगा तो वो उसमे टीआरपी तलाशेगा, आप देखना।
अपनी समझ और सोच ये है कि अन्ना को ‘मारी की बजाय उलारी’ तक रहना चाहिए था। अपनी छवि, अपनी ताकत और कमजोरी को दांव पे लगा के दलदल में से तो उन्हें सिर्फ गर्द गुबार और कीचड़ ही मिल सकने वाला है। और इस बीच चूंकि उनके कट्टर चहेते भी वोट तो किसी न किसी पार्टी को दे ही चुके होंगे, झंडा भी किसी न किसी पार्टी का बुलंद कर ही चुके होंगे तो जीतने वाले दल या गठबंधन को (वोट नहीं दिया होने के बावजूद) साथ दिया होने का विशवास भी दिलाने जाएंगे ही। ऐसे में अन्ना की असल ताकत, जनशक्ति भी नए साम्राज्य में अपना स्थान सुनिश्चित करने के अभियान में उतर चुकी होगी। तो, आन्दोलन का क्या होगा? उसे कौन आगे बढ़ाएगा? और वो फिर भी बढेगा तो अगले चुनाव बहुत दूर हैं। तब तक टेम्पू बना के रखना भी आसान कहाँ होगा?
अन्ना चुनाव में हैं तो फिर चुनाव में तय तो ये भी होना है कि कांग्रेस ने अगर बेहतर कर लिया तो अन्ना के आन्दोलन का क्या होगा? इस लिए, कांग्रेस हो न हो, अन्ना की साख दांव पे है!
आर सिंह जी ने आपको सही जवाब दे दिया है.
मेरे विचार से इस हार जीत का अन्ना नाम के व्यक्ति पर कोई प्रभाव तो पडेगा नहीं ,क्योंकि न वे राजनीति में पहले थे और न भविष्य उनके राजनीति में आने की संभावना है.अब रह गयी बात अन्ना के विचारों की ,तो इसका मतलब अगर ये समझा जाए कि अन्ना के विचारों को जनता ने ठुकरा दिया तो फुटेला जी आप ही बताइए कि इसमें वास्तव में किसकी हार हुई ?