अन्ना की राह पर जनरल वी.के.सिंह

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प्रमोद भार्गव

पूर्व थल सेना अध्यक्ष वी.के. सिंह गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरने पर है। किसानों की मांग है कि गन्ना का मूल्य बढ़ाया जाए और चीनी कारखाने खरीदे गये गन्ने की आधी कीमत नगदी के रुप में तत्काल अदा करें। वी.के. सिंह किसानों की मांगों को मजबूती देने के लिए उनके साथ है। यह एक अच्छी बात है कि इतने बड़े पद से सेवानिर्वत्त व्यक्ति किसी प्रमुख राजनेतिक दल का हिस्सा न बनकर किसानों के आंदोलन के साथ सड़क पर है और समाजसेवी अन्ना हजारे के साथ भी जुड़े हुए हैं। अन्ना का मूल आंदोलन भले ही तीन दिशाओं में बंट गया है, लेकिन हम जानते है कि उसकी अपनी सार्थकता है। अन्ना की कोर्इ निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं हैंं। वे परिवार और माया मोह से भी निर्लिप्त है। वे किसी कारोबार से भी नहीं जुड़े। लिहाजा उनकी बदलाव की मंशा में देश के स्वाभिमान और व्यवस्था में शूचिता के भाव अंतनिर्हित है। वे चाहते है कि जनता की ताकत सही अर्थों में राजनीतिक दलों से उपर हो और विकास संबंधी नीतियों का निर्माण पंचायत स्तर पर हो। इसीलिए अन्ना अब उन लोगों का साथ ले रहे हैं जो कर्इ दशकों से जर्जर व्यवस्था को र्इमानदारी से बदलने में लगे है। ऐसे लोगों में पीवी राज गोपाल हैं ,जो एकता परिषद के माध्यम से आदिवासियों के सवालों को उठा रहे हैं। मेधा पाटकर हैं जो विस्थापन के सवाल से दो दशकों से जूझ रहीं हैं। जल बिरादरी के राजेंन्द्र सिंह है जो स्थानीय संसाधनो के जरिये खेत-खेत पानी पहुंचाने की पहल कर रहे हैं। अब उनके साथ वीके सिंह भी हो गये हैं जो रक्षा विभाग में भ्रष्टाचार के खुलासों को लेकर चर्चा में आये थे।

वीके सिंह सेवा मुकित के ठीक पहले अपनी उम्र विवाद के चलते चर्चा में आए थे। बाद में उन्होंने सेना में हथियार खरीदी को लेकर भ्रष्टचार का खुलासा किया और सेना के ही एक सेवानिवृत्त अधिकारी पर दलाली का आरोप लगाया। खुद उन्हें रिश्वत दिए जाने की पेसकश का भी खुलासा किया। इस बातचीत से संबंधित एक टेप भी सीबीआर्इ को सौंपा। सीबीआर्इ इस आरोप की जांच में लगी है। इसके बाद सिंह ने सेना के भण्डार में गोला – बारूद तथा अन्य हथियारों की कमी का रहस्य उजागर किया। और हथियार न खरीदे जाने का दोष मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व को दिया। इस सिलसिले में वीके सिंह द्वारा प्रधानमंत्री व रक्षामंत्री को लिखी चिटिठियां भी अखबारों की सुर्खियां बनी थीं। बाद में सेना के पास हथियारों की कमी की पुशिट नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी कर दी थी। इन तथ्यों से साफ होता है कि वीके सिंह र्इमानदार होने के साथ मजबूत इच्छाशकित के व्यक्ति हैं। क्योंकि उन्होंने खामियों पर पर्दा डाले रखने की बजाय उन्हें उजागर कर यह साबित किया कि सामरिक मोर्च पर हम कितने कमजोर है और बार बार अगाह करने के बावजूद प्रधानमंत्री व रक्षा मंत्री को सेना को मजबूत बनाए रखने की कोर्इ परवाह नहीं है। तय है इन कमियों के सामने आने के बाद रक्षा मंत्रालय ने सेना को संसाधन जुटाने में कोर्इ न कोर्इ पहल की होगी। वैसे सेना में भ्रष्टाचार कोर्इ नर्इं बात नहीं है। बोफोर्स तोपों की खरीद घोटाले में खुद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी घिरे थे, और कांग्रेस को 1989 में हुए आम चुनाव में जबर्दस्त मुंह की खानी पड़ी थी।

वीके सिंह की यदि कोर्इ राजनीतिक मंशा रही होती तो वे कांग्रेस,भाजपा,सपा,राकांपा अथवा बसपा में जाते और राज्यसभा की पतली गली से मनोनीत होकर संसद में पहुंच सेवानिवृतित के बाद भी जिंदगी को धन,वैभव और भौतिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण बनाए रख सकते थे। जैसा कि हमारे ज्यादातर उच्च अदालतों के न्यायाधीष, आर्इएएस व आर्इपीएस अधिकारी करते हैं। लेकिन सिंह ने एक साधारण समाज सेवी अन्ना हजारे का साथ चुना। किसानों का साथ चुना। क्योंकि सेना में रहते हुए देश के लिए जीवन बलिदान की आकांक्षा रखने वाला संस्कारित सिपाही देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचने पर आमादा दलो के साथ कैसे रह सकता था ? उनकी इस कृतज्ञता के लिए देशवासियों को नतमस्तक होने की जरूरत है।

मीडिया से रूबरू होने पर वीके सिंह ने कमोवेश वही मुददे उठाए, जिन्हें अन्ना और बाबा रामदेव उठाते रहे हैं। इन में जनलोकपाल,चुनाव सुधार और कालाधन की वपिसी और किसानों के हित रक्षक जैसे मुददे तो शामिल हैं ही, पूर्व सेनाध्यक्ष ने केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार पर यह आरोप और लगाया है कि सरकार संविधान के विपरीत काम कर रही है। लिहाजा संसद को भंग होना चाहिए और चुनाव कराकर नया जनादेश आना चाहिए। यह संवैधानिक मत है। परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोकतांत्रिक सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल संविधान सम्मत इस तथ्य को नकारते चले आ रहे हैं। संप्रग सरकार उसी समय अल्पमत में आ गर्इ थी, जब तृणमूल कांगे्रस की ममता बनर्जी ने प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के मुददे पर अपना समर्थन वापिस ले लिया था। सपा,बसपा और द्र्रमुक जैसे सहयोगी दलों ने इस निवेश का विरोध किया था। बावजूद मनमोहन सिंह ने न केवल खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को मंजूरी दी, बलिक पेंशन, बीमा और नगरिक उड्रढयन में भी इसकी मंजूरी दे दी। यह सीधे – सीधे संसद के बहुमत और संविधान की मर्यादा का उल्लंघन है। अब संसद में इन्हीं तथ्यों को लेकर दो दिनी बहस जारी है।

यह सही है कि वी.के सिंह, अन्ना, अरविंद केजरीवाल अथवा बाबा रामदेव की टोलियां अब उतना बड़ा आंदोलन शायद ही खड़ा कर पाएं, जितना बड़ा अंदोलन लोकपाल के मुददे को लेकर जंतर मंतर और रामलीला मैदान में खड़ा हुआ था। लेकिन जागरूक नागरिकों का कत्र्तव्य केवल बड़ा आदोंलन खड़ा करना ही नहीं है, एक सतर्क प्रहरीदार की भांति यदि देश की सुरक्षा और प्राकृतिक संपदा में कहीं सेंध लगार्इ जा रही है, संविधान की संहिंताओं की अपने हित साधने की दृषिट से मनमानी व्याख्या गढ़ी जा रही है, तो नागरिकों का कत्तर्वय बनता है कि वह हकीकत जनता के सामने लाएं। अन्ना हजारे सेना से सेवा निवृत्त होने के बाद इसी जागरूकता को औजार बनाकर ग्राम सुधार की दिशा में न केवल संघर्षशील रहे,बलिक उन्होंने अपने गांव रालेगन सिद्धी समेत सैकड़ों गांवों का कायाकल्प किया। जाहिर है, अन्ना की प्रेरणा और सहयोग से वी.के. सिंह गरीब, वंचितों और किसानों के मुददे सड़क से उठाकर संसद तक गुहार लगाते रहेंगें।

 

2 COMMENTS

  1. प्रमोद भार्गव जी आपके सम्पूर्ण आलेख पर टिप्पणी न करके मैं फिलहाल यह जानना चाहूंगा कि आपने जो लिखा है कि “बलिक उन्होंने अपने गांव रालेगन सिद्धी समेत सैकड़ों गांवों का कायाकल्प किया।” उसके लिए क्या आपके पास ऐसी कोईजानकारी है?क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार उन्होंने राले गण सिद्धि का तो सचमुच में कायाकल्प किया है,पर अन्य किसी गाँव में भी उन्होंने ऐसा कुछ किया है यह तो मैंने कहीं नहीं पढ़ा .

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