उत्सवधर्मी संस्कृति के गुमनाम चितेरे

0
223

दम तोड़ने लगी हैं जनजातीय चित्रकलाएं

हिमकर श्याम

लोक कला युगान्तर से चली आ रही परंपरा है। लोक कला का मानव जीवन के इतिहास से अत्यंत घनिष्‍ट संबंध है जो सभ्यता के साथ प्रारंभ हुईं और उसके साथ ही चलती चली आ रही है। लोक कलाओं का विकास समाज के परंपरागत विचारों, विश्वासों, आस्थाओं और रीति-रिवाजों पर आधारित है। लोक चित्रकला आदिम कला का ही स्वरूप है। इन कलाओं का आविष्कार मनुष्य ने अपने मनोरंजन तथा आत्मविकास के लिए किया था और उसके स्वभाव में कला प्रेम की प्रधानता आदिम युग से विद्यमान थी। आदिम मानव ने कठिनाइयों से जूझते हुए भी अपनी सौन्दर्य भावना को व्यक्त करने का प्रयास चित्रों के माध्यम से किया था।

यहां लोक शब्द का तात्पर्य सामान्य जीवन है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार लोक शब्द जनपद या ग्राम से नहीं बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई समूची जनता है जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार ग्रन्थ नहीं हैं। इसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक सारी गतिविधियां आ जाती हैं। जनसमुदाय के अनुभवों और सौदर्य भावों की अभिव्यक्ति ही लोक कलाओं के रूप में विकसित होती गईं। वेदों में समस्त मानवीय ज्ञान, विज्ञान तथा कलाओं का निरूपण है तथा वैदिक काल से ही चित्रकला के संकेत मिलते हैं। भावाभिव्यक्ति के लिए आदिकाल से चित्रकला माध्यम रही है। व्यक्ति के मनोभाव उसके चित्रों में झलकते हैं। लोकचित्रों के माध्यम से कितनी ही लोक कथाओं और आख्यानों का सहज ज्ञान हो जाता है।

झारखंड राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार की वजह से ही सुर्खियों में रहा है। झारखंड की छवि नकारात्मक प्रदेश की बन गयी हैं जबकि यह आश्चर्यों से भरा प्रदेश है। पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा समय-समय पर किये गये शोधों में इतिहास की कड़ियाँ झारखंड से जुड़ती रही हैं। प्रागैतिहासिक गुफाओं में मिले भित्ति चित्र जनजातियों के चित्रकलाओं से मिलती-जुलती हैं। भारत के सबसे पुराने गुफा चित्रों को बनानेवाले को झारखंड के शबर जनजाति के रूप में जाना जाता है। हजारीबाग से लगभग 42 किलोमीटर दूर इस्को के पास पहाड़ी गुफाओं में प्राचीनतम शैल चित्र पाये गये हैं जो बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत बनाये गये हैं। स्थानीय लोग इस्को के इस गुफा को राजा-रानी के कोहबर के रूप में जानते हैं। सिन्धु घाटी के समय के बर्तनों पर जिस तरह की आकृतियां बनी हैं उनसे मिलती-जुलती आकृतियां चाय-चंपा के शिल्पों में पायी गई हैं।

संतालों के मौलिक इतिहास के संकेत करम विनती में मिलते हैं। इसमें चाय-चंपा के किले और उसमें बने शैलचित्रों की सुन्दरता का जिक्र है। सिन्धु लिपि, हजारों वर्षों से संताल परगना के आदिवासी समाज के बीच अज्ञातवास कर रही हैं। स्वयं संतालों को भी इसकी जानकारी नहीं है। सिंधुलिपि के भित्ति चित्रों, मुहरों में अंकित संकेत तथा शिलाओं पर उकेरे चित्रादि संताल आदिवासी समाज के पूजानुष्ठानों में भूमि पर खींची जानेवाली आकृतियों से मिलती-जुलती हैं। बिहार प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी निर्मल कुमार वर्मा ने दो दशक पूर्व सिन्धु लिपि पढ़ लिए जाने की बात सार्वजनिक कर हलचल मचा दी थी। श्री वर्मा के शोधों के अनुसार संताल उन पूर्वजों की संतानें हैं जो सिन्धु घाटी सभ्यता के जनक रहे हैं। साहेबगंज पदास्थापना के दौरान श्री वर्मा को संतालियों के बाहा पर्व में भाग लेने का मौका मिला। संताल आदिवासी पुरोहित द्वारा जहेरथान पर पीसे हुए चावल (होलोंग) से बनाये गये रेखाचित्रों पर उनकी नजर पड़ी। ये रेखाचित्र हूबहू सिन्धु घाटी के शिलालेखों की तरह ही थीं। दरअसल ये संतालों की धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर हैं और पीढि़यों से बनायी जाती रही हैं। ये पूजा खोंड देवताओं के आह्वान के लिए बनाये जाते हैं।

निर्मल कुमार वर्मा ने संताल आदिवासियों के बारह गोत्रों के 75-75 से ऊपर पूजा चिह्न खोजे थे। ऐसे नौ सौ से ऊपर संकलन किये थे। उन्हें संतालों के पूजा-प्रतीकों के रूप में प्रयुक्त चिह्नों एवं सिन्धु घाटी की खुदाई में प्राप्त शिलालेखों एवं चित्रों में अद्भुत साम्य नजर आया। 1992 में श्री वर्मा के असमय निधन के कारण इतिहास के गत्र्त में छिपा यह रहस्य, रहस्य बनकर ही रह गया। यदि श्री वर्मा आज जीवित होते तो निश्चिय ही दुनिया के इतिहास में युगांतकारी परिवर्तन आ जाता। शायद इतिहास का स्वरूप ही बदल जाता। विडंबना है कि श्री वर्मा के शोध की गंभीरता पर राज्य और केंद्र की सरकारों ने कभी ध्यान नहीं दिया।

जनजातीय लोकचित्र यहां की धार्मिक, सामाजिक, नैतिक तथा पारंपरिक भावों का रैखिक धरोहर है। इन लोकचित्रों में जनजातियों की रोजमर्रा की जिन्दगी और सामाजिक जीवन का सजीव चित्रण है। मिट्टी से बने अपने कच्चे घरों की दीवारों को सजाने के लिए आदिवासी इस चित्रकारी का प्रयोग करते हैं। इन चित्रों की शैली सरल होती है। सामान्यतः इनमें शिकार, नृत्य, फसल की कटाई करते हुए आकृतियां दर्शायी जाती हैं। इसमें मनुष्यों और पशुओं के चित्र भी बनाए जाते हैं। उरांव जाति द्वारा कंघी का प्रयोग कर बनाये गये चित्र प्राचीनत शैलियों में से एक है। हजारीबाग की कोहबर एवं सोहराई और दुमका की जादोपटिया एवं डोकरा जनजातीय लोकचित्रकलाओं के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। टेरोकोटा और गोदना की कला यहां की आबोहवा में बसी हुई हैं। लोक चित्रकला जनजातीय समाज का एक अभिन्न अंग है। जनजातियों की कलात्मक रूचि का आभास उनके घरों की सजावट और उनके द्वारा बनाये गये आभूषणों से होता है।

जनजातियों को यह विश्वास है कि अनदेखे देवताओं, प्रेतात्माओं तथा पूर्वजों का उनके जीवन के कार्यकलापों से गहरा रिश्ता है। उन्हें प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह की परंपरा विकसित की गयी है। दीवारों पर चित्र बनाना इन्हीं क्रियाओं का एक भाग है। इसके माध्यम से जनजातीय समुदाय अपनी सांस्कृतिक धरोहर को आगे की पीढि़यों तक पहुंचाता है। यहां दीवार चित्रण की समृद्ध परंपरा रही है। कहीं-कहीं ये चित्र दीवार पर उभार लिए हुए और कहीं-कहीं समतल होते हैं। इन चित्रों में मोर, मछली, ज्यामितीय आकार के फूलों एवं बेलों की प्रधानता होती है। रंगों में पीले, हरे, नीले, लाल तथा काले रंग का ही प्रयोग किया जाता है। दुष्ट आत्माओं को भगाने के उद्देश्य से भी भूमि पर रंगों की सहायता से विस्मयकारी आकृतियां बनायी जाती हैं। दीवारों पर उकेरे जानेवाले ये चित्र हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं।

जनजातियों की उत्सवप्रियता इसी कला प्रियता का एक रूप है। कलाकारोचित स्वच्छंदता, लापरवाही तथा मस्ती इनकी विशेष प्रवृत्ति है। आदिवासी जन्मजात कलाकार होते हैं। कलात्मकता इनके जीवन में रची बसी होती है। नृत्य, संगीत, वाद्य, नाटक, खेलकूद से लेकर वास्तु शिल्प और चित्रकला सबमें इनकी सहज गति है। इनका सौंदर्य बोध इसी व्यापक कलाप्रियता के विविध रूप है। झारखंड की आबोहवा में कला, संगीत और नृत्य का समावेश है। परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी किस तरह से हस्तांतरित होती हैं, जनजातीय लोकचित्र इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

कोहबर और सोहराई चित्रकला मूलतः झारखंड की एक जनजातीय कला है। हजारीबाग जिले के जोरकाठ, इस्को, सरैया, ठेकांगी, खराटी, राहम आदि गांवों में कोहबर की चित्रकला सदियों से चली आ रही है। मिट्टी की दीवारों पर प्राकृतिक और खनिज संपदा से प्राप्त रंगों का इस्तेमाल कर इन चित्रों को बनाया जाता है। कोहबर के चित्र ज्यादतर महिलाओं द्वारा बनाये जाते हैं। इसमें वंश वृद्धि और फसल वृद्धि का चित्रण होता है। इस कला की विशेषता है कि इसमें पूरे दीवार पर एक बार में ही पूरा चित्र बनाया जाता है। फसल वृद्धि के लिए प्राकृतिक वस्तुओं तथा वंश वृद्धि के लिए राजा-रानी का चित्र बनाया जाता है। विवाह के अवसर कलात्मक गतिविधियों में आदिवासी सबसे आगे हैं। संथाल, मुंडा, गोंड, असुर, कोरमा और बैगा जनजातियों द्वारा आज भी इन भित्ति चित्रों का बखूबी इस्तेमाल किया जाता है।

सोहराय पर्व फसल कटने के बाद मनाया जाता है। सोहराय पर्व में चित्र बनाने की परंपरा है। कृषि कार्य संपन्न होने के बाद जब फसल घर लाया जाता है तब घर की दीवारों को सजाया-संवारा जाता है। दीवारों की लिपाई के बाद विभिन्न आकृतियां बनायी जाती हैं। घर के द्वार पर अरिपन चित्र बनाया जाता है। मिट्टी से लीपी गई भूमि पर महिलाएं अपनी उंगलियों से अरिपन बनाती हैं। इनमें शिकार, नृत्य, फसल की बुवाई-कटाई करते हुए आकृतियां दर्शायी जाती है। जनजातीय समाज में गोदना का प्रचलन खूब है। इसमें तरह-तरह की आकृतियां, चित्रों का समावेश होता है। महिलाएं अपने पसन्द की आकृतियां चुनकर अपने शरीर पर गोदवाती हैं।

जादोपटिया संताली समाज से जुड़ी प्राचीन चित्रकला है, जो समाज के उद्भव, विकास, रहन-सहन, धार्मिक विश्वास एवं नैतिकता को व्यक्त करती है। वंश परंपरा के आधार पर कलाकार इस कला को अपनाते हैं। जादो समाज के लोग एक समाज सुधारक और नैतिक शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जादो संतालों के पुरोहित माने जाते हैं जिनकी जीविका का आधार चित्रकला है। कपड़े या कागज पर सूई-धागा से सील कर चित्रों को उकेरा जाता है। इस शैली के चित्रों के माध्यम से समाज के सांस्कृतिक और नैतिक आचरण का चित्रण होता है। इनमें संतालों की उत्पत्ति की कथा, राजा और सैनिक, कृष्णलीला आदि पौराणिक कथाओं का चित्रण होता है। बुरे कामों के लिए यमलोक में दंड का जो प्रावधान है उसका काल्पनिक चित्रण भी इस शैली के माध्यम से किया जाता है। इस शैली में ज्यादातर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। इस चित्रकला को दिखाते समय जादो लयबद्ध स्वर में चित्रित विषय और कथा का गायन करते हैं। इस कला का उल्लेख सबसे पहले विशाखदत्त कृत मुद्रा राक्षस में मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसका जिक्र यम पट्ट के रूप में किया गया है। बाणभट्ट के हर्षचरित्र और पातंजलि के महाभाष्य में भी इसका उल्लेख है।

लोदरा एक शिल्पकला है जो पुराने कपड़ों से बनाया जाता है। डोकरा पीतल से गहने बनाने की कला है। कलाकारों को इसमें महारत हासिल है। पीतल के आभूषणों पर महीन चित्रकारी कर उसे भट्ठी में पकाया जाता है।

जनजातियों में अलंकरण की एक विशिष्ट और नैसर्गिक दृष्टि है। आदिवासी प्रकृति के बीच रहनेवाला समुदाय है। जनजातीय कलाओं को समझने के लिए उन तथ्यों तथा वातावरण को भी भलीभांति जानना और समझना होगा जिनसे इनकी रचना हुई है। आदिम चित्रकलाओं की पृष्ठभूमि सर्वथा भिन्न है। आदिम चित्रकलाएं स्वच्छ, सरल और निष्कपट हैं। ये आध्यात्मिक अनुभवों व धार्मिक विचारों से प्रेरित हैं। जनजातीय चित्रकलाओं का सबसे सबल पक्ष है कि ये प्रकृति के बेहद करीब हैं। जनजातीय कलाकारों को इस बात कि फ्रिक नहीं रहती कि बाहरी दुनिया में उनकी कलाओं को अपरिष्कृत कहा जा सकता है। इनके चित्रों को देख कर यह कहा जा सकता है कि ये निस्वार्थ भावनाओं से उकेरी गयी हैं। कला ही उनकी पहचान है। जनजातीय कलाकारों को अपने कला से इतना लगाव है कि वह अपने नाम के पीछे अपनी कला का नाम देते हैं। जनजातीय कलाकारों की नजर में कला की अहमियत जाति से बढ़ कर है।

झारखंड की लोक चित्रकलाएं अपनी वास्तविक पहचान खोने लगी हैं। आधुनिकता का प्रभाव इन पर स्पष्ट दिख रहा है। समाज में आये आमूल परिवर्तन के कारण कलाकारों के समक्ष भी रोजी-रोटी की जुगाड़ की समस्या आ खड़ी हुई है और वे अन्य व्यवसाय को अपनाने लगे हैं। कुछ कलाकार विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इस कला को बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। मंहगाई की मार से ये भी बेहाल हैं लेकिन उन्होंने अपनी कला को आज भी जीवित रखा है।

भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाने में इन जनजातियों की बड़ी भूमिका है। त्योहारों और सामाजिक समारोहों में यह जिस कला का उपयोग करते हैं, वह भारत की पुरातन कलाओं में से एक है। सरंक्षण के अभाव में जनजातीय चित्रकलाएं दम तोड़ने लगी हैं। जनजातियों के विशिष्ट लोक चित्रकलाओं को बचाने की आवश्यकता है। लोककलाओं को बचा कर ही झारखंड की संस्कृति बचायी जा सकती है। गुफा चित्रों के रूप में बिखरी पड़ी ऐतिहासिक रैखिक धरोहरों को दुनिया के सामने लाने और इन लोक चित्रकलाओं के संवर्द्धन और संरक्षण की आवश्यकता है ताकि हम गर्व कर सकें कि हमारी लोक कलाएं कितनी समृद्ध हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here