असंवदेनशीलता का एक और उदाहरण

manmohanसिद्धार्थ मिश्र”स्‍वतंत्र”

अपनी कुत्सित एवं भ्रष्‍ट नीतियों के लिए कुख्‍यात कांग्रसनीत यूपीए सरकार की विश्‍वसनीयता अपने न्‍यूनतम स्‍तर पर जा पहुंची है । इसके लिए सौ  फीसदी इस सरकार में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार एवं सरकार द्वारा चलायी जा रही असंवेदनशील नीतियां ही जिम्‍मेदार हैं । विश्‍व विख्‍यात अर्थशास्‍त्री के रूप में सत्‍ता संभालनें वाले डा मनमोहन जी का अनर्थशास्‍त्र  अब किसी से छुपा नहीं है । अपने पूरे कार्यकाल में एक के बाद एक भीषण घोटालों एवं तुगलकी नीतियों पर उनका मौन अब वाकई खलने लगा है । ज्ञात हो कि लगभग एक दशक के उनके कार्यकाल में महंगाई अपने चरम पर है,और रूपया अपने न्‍यूनतम स्‍तर तक जा पहुंचा है ।सबसे हास्‍यापद बाद तो ये है कि रूपये से कहीं ज्‍यादा गिरावाट हमें मनमोहन सरकार में शामिल कैबिनेट मंत्रियों के चरित्र में देखने को मिली है । अब प्रश्‍न उठता है कि क्‍या यही था मनमोहन जी अर्थशास्‍त्र जिसकी इतनी डिंगें हांकी जाती थी  ?  अथवा क्‍या अब कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ माना जा सकता है  ?  इस पूरी जद्दोहद में जहां तक आम आदमी का प्रश्‍न है तो वो वाकई कैटल क्‍लास तक जा पहुंचा है । इन सबके बावजूद टीवी और विभिन्‍न माध्‍यमों पर चल रहे भारत निर्माण के दावे अब आम आदमी को मुंह चिढ़ा रहे हैं ।

बड़े हैरत की बात है कमरतोड़ महंगाई को रोक पाने में नाकाम रही केंद्र सरकार चुनावी वर्ष में अचानक १७ करोड़ गरीबों को कम करने का चमत्‍कार कर दिखाया है । हांलाकि सरकार का ये तर्क काबिना मंत्रियों की तु‍च्‍छमति की तरह ही हास्‍यापद एवं निंदनीय है । ज्ञात हो कि सरकार द्वारा प्रदत्‍त नयी परिभाषा के तहत अब गांव में २६ की जगह २७.२० रू एवं शहर में ३२ के स्‍थान पर ३३.३० रूपये से ज्‍यादा कमाने वाले गरीब नहीं कहे जा सकते । अब आप ही बताइये सरकार का ये तर्क मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्‍या है ? या मुद्रा अवमूल्‍यन के इस काल में  क्‍या ३३ रूपये एक आदमी की भूख मिटाने के लिए पर्याप्‍त है  ? क्‍या ये संविधान में प्रदत्‍त समानता के अधिकार  की अनदेखी नहीं है  ? विचार करीये उच्‍च परिवारों में बच्‍चों के खाने की चाकलेट और जंकफूड का मूल्‍य हजारों में है,वहीं दूसरी ओर आम आदमी के पेट भरने के लिए मात्र ३२ रूपये,ये मजाक नहीं तो और क्‍या है  ? खाद्य सुरक्षा योजना के नाम पर राजनीति चमका रही कांग्रेसी दिग्‍गज अचानक इतने असंवेदनशील कैसे हो सकते हैं  ? अब कहां गये आम आदमी के हित संवर्धन के दावे ? क्‍योंकि ३३ कमाने वाले को अमीर तो कहा नहीं जा सकता । इस पर सरकार की नीति ने उन्‍हे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन पर मिलने वाली सामान्‍य सुविधाओं से भी वंचित कर दिया है ।

सरकार के इस निर्णय ने एक बार दोबारा ये प्रमाणित कर दिया है कि उसे आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है । वो आम-आदमी जिसके लिए आज तक रोटी भी एक सपना है ।  विचारणीय प्रश्‍न है पिछले कुछ वर्षों में महंगाई की बढत को देखते हुए किस आधार पर और किसने ये पैमाना बनाया है  ? स्‍मरण रहे कि महंगाई के इस प्रहार ने निर्धन तबके को पिछले पांवों पर ला खड़ा कर दिया है तो दूसरी ओर सरकार का ये तुगलकी निर्णय अब गरीबों के समूल नाश का कारण बन जाएगा। कपोलकल्पित आधारों पर बनाये गरीबी रेखा के इस पैमाने को बनाने वाले विशेषज्ञों की की मानसिक दक्षता पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगना लाजिमी ही है । उपरोक्‍त आधारों पर बने इस पैमाने को यदि विशेषज्ञता मानें तो अल्‍पज्ञता किसे कहेंगे । अपने मा‍नसिक भ्रम के आधार पर विशेषज्ञों ने यदि इस अल्‍प राशि को जीवनयापन के लिए पर्याप्‍त मान लिया है तो ये बेहद निंदनीय कृत्‍य है । बढ़ती महंगाई के साथ अपने भत्‍तों में बढ़ोत्‍तरी को लेकर आसमान सिर पर उठा लेने वाले ये गरीबों के प्रति इतनी असहीष्‍णु कैसे हो सकते हैं ? सबसे मजे की बात तो ये है कि महंगाई के जख्‍मों से अंजाम ये विशेषज्ञ आज गरीबों के भाग्‍यविधाता बन बैठे हैं । ये कहना गलत न होगा कि सरकार की विभत्‍स नीतियों के चलते देश आज अपने सबसे निराशाजनक दौर से गुजर रहा है । उस पर कोढ में खाज का काम करते ये आंकड़े  सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगा रहे हैं । सरकार के इस आंकड़े के अनुसार ग्रामीण परिवेश में ४०८० रू एवं शहरों में ५००० मासिक आमदनी वाला परिवार अपना  भरपेट भोजन प्राप्‍त कर सकता है । यदि सरकार क इस तर्क को मान भी लिया जाये तो परिवार में चिकित्‍सा,विवाह,पर्व एवं अन्‍य आकास्मिक परिस्थितीयों में होने वाले व्‍यय का क्‍या होगा ? या सरकार ने ये मान लिया है कि गरीबों का उन्‍नयन के लिए भरपेट भोजन ही प्रथम एवं अंतिम आवश्‍यकता है  ? क्‍या यही है डा मनमोहन सिंह का भारत निर्माण,यदि हां तो वाकई ये तस्‍वीर बहुत भयावह है । सरकार के इस निर्णय को असंवेदनशीलता का सबसे बड़ा उदाहरण ही कहा सकता है ।

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