आसान नहीं है विजय माल्या का प्रत्यपर्ण

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प्रमोद भार्गव
13 महीने पहले भारत छोड़कर भागे शराब कारोबारी विजय माल्या को लंदन में गिरफ्तार किया गया। करीब 9000 करोड़ रुपए की देनदारी का सामना कर रहे माल्या की यह गिरफ्तारी मामूली सफलता है। इस तथ्य की तस्दीक इस बात से होती है कि उसे केवल तीन घंटे के भीतर जमानत मिल गई। इससे साफ होता है कि माल्या को ब्रिटेन की अदालत से कानूनी संरक्षण मिलने की पूरी उम्मीद थी। 61वर्षीय माल्या पिछले साल 2 मार्च को देश छोड़कर भाग गया था। भारत ने इस साल 8 फरवरी को ब्रिटेन में उसके प्रत्यपर्ण का आग्रह किया। यह आग्रह मार्च में वेस्टमिंस्टर मस्ट्रिेट कोर्ट भेज दिया था, जहां गिरफ्तारी और फिर 5.26 करोड़ रुपए की जमानत पर छोड़ने की प्रक्रिया पूरी हुई। सीबीआई इसे बड़ी कामयाबी मान रही है। वहीं, माल्या ने जमानत मिलने के बाद ट्वीट किया, ‘जैसी उम्मीद थी, प्रत्यपर्ण के लिए कोर्ट में वैसे ही सुनवाई शुरू हो गई है‘। इस ट्वीट से संकेत मिलता है कि उसे भारत लाना मुश्किल ही है।
बंद किंगफिशर एयालाइंस के मालिक माल्या पर भारत की 17 बैंकों के 9000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा कर्ज बकाया है। लिहाजा कर्ज न चुकाने, मनी लाॅन्डरिंग, धोखाधड़ी और साजिश रचने के आरोप हैं। सीबीआई उसके खिलाफ 1000 पेज की चार्जशीट पेश कर चुकी है। इन मामलों में कानूनी कार्यवाही तेज होने पर माल्या 2 मार्च 2017 को राज्यसभा सांसद होने का लाभ उठाते हुए, डिपलोमैटिक पासपोर्ट के जरिए देश से भागने में सफल हो गया था। हालांकि बाद में उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया गया और राज्यसभा सदस्यता से भी बर्खास्त होना पड़ा। फिलहाल माल्या की गिरफ्तारी उन्हें प्रत्यर्पण प्रक्रिया के तहत ब्रिटेन द्वारा भारत सौंपने का पहला चरण है। अब लंदन की अदालत यह देखेगी कि माल्या को दोनों देशों के बीच संधि के तहत भारत को सौंपा जा सकता है अथवा नहीं ? यदि निचली अदालत उसे भारत को सौंपने का निर्णय सुना भी देती है तो वह ब्रिटेन की हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपील कर सकता है। साफ है, प्रत्यर्पण की कानूनी लड़ाई लंबी लड़नी पड़ सकती है। भारत ने 8 फरवरी 2017 को संधि के तहत माल्या के प्रत्यर्पण की अर्जी दी थी।
वित्त, विदेश मंत्रालय और सीबीआई के तमाम दावों के बावजूद माल्या का प्रत्यर्पण तभी आसान होगा जब ये एजेंसिया ब्रिटेन की अदालतों में यह साबित करने में सफल हो जाएं कि माल्या ने भारतीय बैंकों से जो कर्ज लिए हैं, वे फर्जी दस्तावेजों में हेराफेरी करके व गलत जानकारी देकर लिए गए हैं। साथ ही उसने यह कर्ज जिस मकसद हेतु लिए, उस मकसद की पूर्ति करने के बजाय उसने यह कर्ज अन्यत्र कंपनियों में खपाया, इसलिए वह आर्थिक अपराध का दोषी है। इसके लिए जरूरी हुआ तो अवैध तरीके से कर्ज देने के लिए कुछ बैंक प्रबंधकों के विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही करनी होगी।
ब्रिटेन माल्या को भारत इसलिए भी आसानी से सौंपने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि उसने भारतीय बैंकों से जो कर्ज लिया है, उस पूंजी का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटेन में भी निवेश किया है। गोया ब्रिटेन को आर्थिक लाभ पहुंचाया है। इस नाते ऐसा लगता है कि जब ब्रिटेन ने भारत में वांछित हत्या और आतंकी वारदातों के आरोपियों तक को प्रत्यर्पित नहीं किया तो वह माल्या को कैसे कर देगा। भारत के ये वांछित आरोपी संगीतकार नदीम, आईपीएल किंग रहे व्यवसायी ललित मोदी और नेवी वाॅर रूम लीक मामले के आरोपी रविशंकर शामिल हैं। माल्या के पास ब्रिटिश नागरिकता भी है। इसलिए अन्य फरार व ब्रिटेन में शरण पाए भारतीय आरोपियों की तरह माल्या का प्रत्यर्पण भी मुश्किल ही है।
इस बीच 63 बड़े उद्योगपतियों के करीब 7016 करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाले गए हैं। हैरानी इस बात पर है कि सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक आॅफ इंडिया ने भगोड़ा विजय माल्या का कर्ज भी माफ कर दिया हैं। जबकि कुछ समय पहले माल्या ने प्रस्ताव रखा था कि यदि उसे ससमान भारत आने की अनुमति मिलती है तो वह करीब 6 हजार करोड़ रुपए चुकाने को तैयार है, जो कि उसका वास्तविक कर्ज हैं। लेकिन बैंकों ने इस शर्त को मानने से इंकार कर दिया था। इस नई स्थिति के निर्माण से माल्या एसबीआई का डिफाल्टर नहीं रह गया है। उस पर जो अन्य बैंको का कर्ज षेश है, उसे वह चुकाने का बहाना करके ब्रिटेन की अदालत से बच सकता है।
इस तथ्य से सभी भलिभांति परिचित हैं कि बैंक और साहूकार की कमाई कर्ज दी गई धनराशि पर मिलने वाले सूद से होती है। यदि ऋणदाता ब्याज और मूलधन की किस्त दोनों ही चुकाना बंद कर दें तो बैंक के कारोबारी लक्ष्य कैसे पूरे होंगे ? हालात इतने बद्तर हो गए है कि 40 सूचीबद्ध बैंकों का 4,43,691 करोड़ रुपए डूबंत खाते में आ गया है। ऐसी कंपनियों की संख्या लगभग 1100 है,जो वर्शों से किस्त नहीं चुका रही हैं। चूंकि सरकार और बैंक इस कर्ज को वसूलने के लिए सख्ती से पेश नहीं आ रहे हैं,इसलिए यह आषंका भी पनप रही है कि सरकार और बैंकों की साठगांठ के चलते आम जनता की गाढ़ी कमाई की पूंजी हड़पने के लिए कुछ बड़े कर्पोरेट घरानों ने यह सुनियोजित ढंग से शड्यंत्र रचा है।
कर्ज में डूबी 1129 ऐसी कंपनियां हैं,जिन पर निरंतर कर्ज बढ़ रहा है। देश के बैंकों में जमा पूंजी करीब 80 लाख करोड़ है। इसमें 75 प्रतिषत राशि छोटे बचतकर्ताओं और आम जनता की है। कायदे से तो इस पूंजी पर नियंत्रण सरकार का होना चाहिए, जिससे जरूरतमंद किसानों,षिक्षित बेरोजगारों और लघु व मंझोले उद्योगपतियों की पूंजीगत जरूरतें पूरी हो सकें। लेकिन दुर्भाग्य से यह राशि बड़े औद्योगिक घरानों के पास चली गई है और वे न उसे केवल दावे बैठे हैं,बल्कि गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जबकि फसल उत्पादक किसान आत्महत्या कर रहा है।
देश में औद्योगिक घरानों को आसानी से हजारों करोड़ का कर्ज मिल जाता है,जबकि छोटे कर्जदारों को बैंकों के कई-कई चक्कर लगाने होते हैं। विसंगति यह भी है कि उद्योगों के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज मिलता है। इन बाधाओं की वजह से नवीन उद्यमियों व नवोन्मेशियों को अपना कारोबार शुरू करना ही मुश्किल होता है। घर के लिए कर्ज लेना भी कठिन होता है। यही वजह है कि आम आदमी सूदखोर महाजनों के चगंुल में फंसता जा रहा है। ऐसी विषम कठिनाइयों के चलते माइक्रो फाइनेंस का धंधा पूरे देश में फला-फूला है। जबकि ये 30 फीसदी की ऊंची सालाना ब्याज दर पर गरीब और मध्य वर्ग के लोगों को कर्ज देते हैं। लेकिन यह कर्ज का ऐसा दुष्चक्र हैं, जिसमें फंसकर व्यक्ति उबर नहीं पाता। यहां तक कि कई कर्जदार आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। इस हकीकत से पता चलता है कि बैंकिंग क्षेत्र कमजोर तबकों का सहारा बनने में नाकाम हो रहे हैं।
कर्ज का सूद समेत नहीं लौटने का असर नई और अधूरी परियोजनाओं पर पड़ रहा है। दरअसल, कर्ज के रूप में दी गई धनराशि के लौटने से ही उसका फिर से निवेश संभव है। लेकिन एनपीए की समस्या को नीतिगत स्तर पर भी देखने की जरूरत है। भारत में किसी कंपनी को दिवालिया घोशित करने और उसकी संपत्ति की नीलामी की प्रक्रिया पूरी करने में लंबा समय लगता है। यह सच्चाई किंगफिशर के मामले में सामने भी आ चुकी है। नियमों में शिथिलता के चलते ही देश की अदालतों में दिवालिया घोषित करने और संपत्ति की कुर्की से जुड़े 60 हजार प्रकरण विचाराधीन हैं। लिहाजा इन लचर नियमों को ‘चैक बाउंस‘ से संबंधित मामलों की तरह चुस्त-दुरस्त करने की जरूरत है। इस दृष्टि से बैंक द्वारा एक ही कंपनी और कंपनी समूह को कर्ज देने की सीमा भी निर्धारित करना जरूरी है। फिलहाल कोई बैंक अपनी कुल पूंजी का 25 प्रतिशत तक सिर्फ एक कंपनी को और 55 फीसदी तक किसी एक कंपनी समूह को कर्ज दे सकता है। यह लोच बैंक अधिकारियों को उदारता से ऋण मंजूर करने का अधिकार देता है। बैंकों में कदाचरण भी ऐसे ही झोलों के चलते पनपा है।

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