जो किसी के नहीं हो सकते,वे हो जाते हैं कभी इनके, कभी उनके

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डॉं. दीपक आचार्य

आज सबसे ज्यादा भरोसा जिस पर से उठने लगा है वह है आदमी। पहले का आदमी नीयत का जितना साफ-सुथरा, सहज और शुद्ध-बुद्ध होता था, उतना आज का आदमी नहीं। उस जमाने का आदमी मन-वचन और कर्म से एकदम स्पष्ट था, उसकी वाणी और आचरण में साम्यता थी और वो जो कहता था वही करता था, जो करता था वही कहता था। इन दोनों ही प्रकार के कर्म व अभिव्यक्ति में न किसी प्रकार की कोई मिलावट थी, न कोई अंतर।

हृदय से लेकर वाणी और आँखों तक एक ही धारा का समत्व भरा प्रवाह ही इस बात का संकेत होता था कि जो शब्द उसके मुँह से उच्चारित हो रहे हैं वे मात्र कण्ठ की उपज नहीं हैं बल्कि हृदय के भीतर से आ रहे हैं। आदमी की वाणी से लेकर हाव-भाव और कर्त्तव्य कर्मो से स्पष्ट पता चल जाता था कि आदमी के मन में क्या है और वह क्या करने जा रहा है।

आदमी की इस साफगोई की वजह से पूरा समुदाय व क्षेत्र निश्चिन्त हुआ करता था। उस जमाने का आदमी अपनी पसंदगी या नापसंदगी को बेबाक ढंग से प्रकट करने का साहस व सामर्थ्य रखता था। उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि उसके स्पष्ट व बेबाक विचारों से कोई खुश होगा या नाराज। वह अपनी ठोस, व्यवहारिक एवं सत्य राय देने में कभी नहीं हिचकता था।

कालान्तर में अपनी महान और अपार ऊर्जाओं को उत्तरोत्तर भुलाते रहे आदमी के लिए सिर्फ पैसा, मैं और मेरा घर-परिवार ही प्रधान होता चला गया जो आज आदमियों की पूरी-पूरी जमात में महारोग की तरह पसरता जा रहा है।

इस संकीर्ण उद्देश्य को ही वह अपने पूरे जीवन का अंतिम व निर्णायक लक्ष्य मान चुका है और पूरी जिन्दगी इसी के इर्द-गिर्द घूमने लगा है। उसे बाहर झाँकने तक की फुर्सत ही नहीं है, न वह ऐसा करना ही चाहता है।

अपने इसी लक्ष्य को पाने के लिए वह कहीं समझौता करने लगता है, कहीं वह खुद की पहचान भुला कर आदमीयत को खूँटी पर टांग देता है और फैलाने लगता है अपनी झोली।

कहीं से कुछ न कुछ पा जाने की मृगतृष्णा में फँसा आदमी कुछ न कुछ ढूँढता ही रहता है जिन्दगी भर। इसी सफर में अपने आपको भुलाकर कभी वह जंगलियों की तरह व्यवहार करने लगता है, कभी किसी का पालतु बनकर दासत्व को भी पीछे-छोड़ देता है। इन हालातों में उसके लिए वे सारे कर्म वरेण्य हैं जो और लोग उससे करवाना चाहते हैं।

दासत्व और पशुत्व की सारी सीमाओं को लाँघना अपनी फितरत में अपना चुका आदमी आज आदमी होने के ज्यादातर मानदण्डों को खो चुका है। इन सारी स्थितियों व उतार-चढ़ावों के बावजूद आज भी आदमीयत का मूल बीज नष्ट नहीं हुआ है लेकिन संकर बीजों का चलन कुछ ज्यादा ही हो चलने से जिस किस्म की फसलें और उनके जो प्रभाव आज हमारे सामने आ रहे हैं वह किसी से छिपा हुआ नहीं है।

आदमियों की पूरी दुनिया में बढ़ती जा रही बेतहाशा भीड़ के बीच अब आदमी अपनी संप्रभुता और स्वतंत्र अस्तित्व को खोता चला जा रहा है। अधूरेपन और अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूर्णता देने के फेर में आदमी सह-अस्तित्व की अपनी तलाश को किश्तों-किश्तों में पूर्ण करने लगा है। यह तलाश उसके वैचारिक स्तर और ऐषणाओं के अनुरूप हमेशा बदलती ही रहती है।

इस निरंतर बदलाव ने आदमी की आदमीयत को साथ ही स्वामीभक्ति, वफादारी और विश्वास को गहरा आघात पहुँचाया है। आज आदमी अपना ही नहीं रहा। जीवन की पूरी यात्रा मंे आदमी अनगिनत पाले बदलता है, कितने ही राजमार्गो व जनमार्गो की खाक छानता है और जिन लोगों को श्रद्धा या स्वार्थ से अपना मानकर उनका आदमी कहलाता है, उनकी संख्या का तो आदमी के पास कोई हिसाब ही नहीं रहता।

कुछ बिरले और स्वाभिमानी लोगों को छोड़ दिया जाए तो बहुत सारे लोग ऐसे हो गए हैं जो कभी इनके और कभी उनके आदमी कहे जाते हैं।

स्थायित्व और शाश्वत सत्य से परे निरंतर परिभ्रमण और परिक्रमाओं को अपना चुके ये लोग मौके की नज़ाकत के अनुसार अपने आका, श्रद्धापात्रों और स्थलों को बदलते रहते हैं और तब तक ही एक जगह टिके रहते हैं जब तक अपनी झोली भरते रहने की संभावनाएं बनी रहती हैं। ये झोलियाँ पद-प्रतिष्ठा, दर्जा, जमीन-जायदाद से लेकर मुद्रा और उन सभी वस्तुओं के लिए फैलायी हुई हो सकती हैं जिन्हें पाने के लिए आदमी अपनी आदमीयत तक को गिरवी रख सकता है।

इधर-उधर हर कहीं भटकने वाले ये लोग दरअसल किसी के हो नहीं सकते। ये जिनके आदमी कहे जाते हैं, उनको भी इनके बारे में भ्रम नहीं होता, बल्कि वे भी इनकी असलियत से वाकिफ होते हैं और वे अच्छे महावत से लेकर ग्वाले तक की हर भूमिका का निर्वाह करने में माहिर होते हैं।

आखिर उन लोगों को भी चाहिये होते हैं- चँवर ढुलाने वाले, चम्पी करवाने वाले, प्रशस्ति गान करने वाले, जी हूजूरी में प्रवीण, वाह-वाह करने वाले और पालकियाँ उठाने वाले कहार। ये उस्ताद लोग आदमियों की कमजोरी को भाँपने और उनके इस्तेमाल का जबर्दस्त हुनर रखते हैं।

अपने क्षेत्र और अपने आस-पास भी ऐसे खूब लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये इनका आदमी है, ये उनका आदमी है।

पर यह कड़वा सच भी स्वीकारना होगा कि असल में ये किसी के आदमी नहीं हो सकते, तभी कल किसी और के आदमी थे, आज पाला बदल कर किसी और के कहे जाते हैं। मरते दम तक जाने कितने पाले और मैदान बदलते रहने वाले हैं यह तो भगवान ही जान सकता हैं

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