अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के संक्रमण-काल की रचनाएं

-प्रोफेसर महावीर सरन जैन-   (हिन्दी के विशेष संदर्भ में)- hindi

यह तथ्य है कि यद्यपि अपभ्रंश के विविध भाषिक रूपों से ही आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का विकास हुआ है, तथापि इस विकास का व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। इस सम्बन्ध में अभी तक जितने कार्य सम्पन्न हुए हैं उनमें  अधिकांशतः ‘अज्ञात से ज्ञात’ की प्रक्रिया अपनाई गई है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर उन्मुख होने पर ही पुनर्रचना के सिद्धान्तों के आधार पर  अज्ञात-अनुपलब्ध भाषिक रूपों को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार अपभ्रंश के अज्ञात एवं अनुपलब्ध भाषिक रूपों की पुनर्रचना करने के अनन्तर ही  आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं  की विकास यात्रा का वैज्ञानिक अध्ययन अंशतः  सम्पन्न किया जा सकता है।

आज हमारे पास अपभ्रंश की जो सामग्री उपलब्ध है, उसके आधार पर आधुनिक आर्य भाषाओं की विकास यात्रा की सारी कड़ियां अलग-अलग सुस्पष्ट रूप से जोड़ पाना दुष्कर है। इसके निम्नलिखित कारण हैंः

(1) हमारे पास अपभ्रंश के साहित्यिक भाषिक रूप ही उपलब्ध हैं। अपभ्रंश भाषाओं के बोले जाने वाले विविध प्रादेशिक भाषिक रूप उपलब्ध नहीं हैं।

(2) अपभ्रंश के जो साहित्यिक भाषिक रूप प्राप्त हैं, उनके प्रादेशिक भेदों / परिवर्तों का विवरण मिलता है। इस सम्बन्ध में विचारणीय यह है कि उपलब्ध प्रादेशिक भेद / परिवर्त क्या आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं (यथा – पंजाबी , हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, असमिया, ओडिशा आदि) की भांति भिन्न-भिन्न भाषाएं हैं अथवा अथवा उस काल में सम्पर्क-भाषा की भूमिका का निर्वाह करने वाली एक साहित्यिक अपभ्रंश के प्रादेशिक भेद / परिवर्त  हैं। दूसरे शब्दों में उपलब्ध  रूप भिन्न-भिन्न भाषाएं हैं अथवा किसी एक ही भाषा के प्रादेशिक भेद / परिवर्त हैं।

इस दृष्टि से जब हम उपलब्ध विविध अपभ्रंश रूपों पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि इनके नामकरण का आघार प्रादेशिक है। विद्वानों ने इन्हें भिन्न-भिन्न भाषाएं माना है। गहराई से अघ्ययन करने के बाद, यह तथ्य हमारे सामने आता है कि इनमें केवल उच्चारण के धरातल पर थोड़े से घ्वन्यात्मक/ स्वनिक अन्तर ही मुख्य हैं। इन अन्तरों के सम्बन्घ में लेखक ने अपने एक आलेख में विचार किया  है।

ये अन्तर इतने भेदक नहीं हैं कि इन्हें अलग-अलग भाषाआओं का दर्जा प्रदान किया जा सके।

हिन्दी, मराठी, गुजराती,बांग्ला आदि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में केवल थोड़े से उच्चारणगत भेद ही नहीं हैं, अपितु इनमें भाषागत भिन्नता है; इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का अभाव है। उदाहरणार्थ, मराठी भाषी वक्ता मराठी भाषा के द्वारा मराठी से अपरिचित हिन्दी, बंगला गुजराती आदि किसी आधुनिक भारतीय आर्य भाषी के व्यक्ति को भाषिक स्तर पर अपने विचारों एवं भावों का बोध नहीं करा पाता। भिन्न भाषी व्यक्ति अपने अपने अभिप्राय को संकेतों, मुख मुद्राओं, भावभंगिमाओं के माध्यम से भले ही समझाने में समर्थ हों; भाषा के माध्यम से उनमें पारस्परिक बोधगम्यता नहीं होती। आज हमें जो साहित्यिक अपभ्रंश रूप उपलब्ध हैं, उनका नामकरण भले ही सुदूरवर्ती क्षेत्रों के आधार पर हुआ हो किन्तु तत्वतः ये उस युग के जन जीवन में उन विविध क्षेत्रों में व्यवहृत होने वाली भिन्न भाषाएँ नहीं हैं, प्रत्युत एक ही मानक अथवा साहित्यिक अपभ्रंश के क्षेत्रीय रूपों से रंजित रूप हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि दसवी-बारहवीं शताब्दी के बाद तो भिन्न-भिन्न भाषाएँ विकसित हो गई हों किन्तु उसके पूर्व भाषिक अन्तर न रहे हों। आधुनिक युग में  ‘भारतीय आर्य भाषा क्षेत्र’ में जितने भाषिक अन्तर मिलते हैं उसकी अपेक्षा अपभ्रंश युग में तो और अधिक अन्तर रहे होंगे । सर्वमान्य सिद्धान्त है कि  सामाजिक सम्पर्क जितना सघन होता है, भाषा विभेद उतना ही कम होता है। आधुनिक युग में तो विभिन्न कारणों से सामाजिक संप्रेषणीयता  के साधनों का अपभ्रंश युग की अपेक्षा कई गुना अधिक विकास हुआ है। नागरिक जीवन का फैलाव, महानगरों का बहुभाषी स्वरूप, पर्यटन विकास, शिक्षा का प्रसार, विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों के बीच  वैवाहिक, व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों का विकास, औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना और उनका बहुभाषिक परिवेश तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक केन्द्रीय शासन आदि विविध कारणों के विकास एवं प्रसार के कारण आज भिन्न भाषाओं के बोलने वालों के बीच परस्पर जितना सम्पर्क हो रहा है, आज से एक हजार साल पहले वह सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक्त आधुनिक भारतीय आर्य भाषा काल में तो अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों, ध्वनियों एवं व्याकरणिक रूपों ने सभी भाषाओं को प्रभावित किया है। इतना होने पर भी आज भी  भिन्न क्षेत्रों की  भाषाओं में पारस्परिक बोधगम्यता की स्थिति नहीं है। आज आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के क्षेत्र में जितनी भिन्न भाषाओं एवं किसी भाषा के जितने भिन्न-भिन्न भाषिक उपरूपों तथा बोलियों का प्रयोग होता है, अपभ्रंश युग में इनकी अपेक्षा बहुत अधिक संख्या में प्रयोग होता होगा।

अपभ्रंश शब्द के भाषागत प्रयोग का जो प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त है उसमें अपभ्रंश किसी स्वतंत्र भाषा के लिए नहीं अपितु संस्कृत के विकृत रूपों के लिए प्रयुक्त हुआ है।

(एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः। तद्यथा।गौरिस्यस्य निपशब्एकैकस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिकेत्येवमादयोऽपभ्रंशाः।

= एक एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश होते हैं, जैसे ‘गौ’ इस शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपातलिका इत्यादि अपभ्रंश होते हैं।

 (पातंजल, व्याकरणमहाभाष्यं, प्रथम आह्निक ))

 नाट्यशास्त्रकार के समय प्राकृतों के काल में अपभ्रंश एक बोली थी। कालान्तर में इस बोली रूप पर आधारित मानक अपभ्रंश का उत्तरोतर विकास हुआ जिसका स्वरूप स्थिर हो गया। अपनी इस स्थिति के कारण इसका प्रयोग हिमालय से लेकर सिन्धु तक होता था तथा इसका रूप उकार  बहुल था। प्राकृतों के साहित्यिक युग के पश्चात् उकार बहुला अपभ्रंश साहित्यिक रचना का माध्यम बनी। आठवीं-नौवीं शताब्दी तक राजशेखर के समय तक यही अपभ्रंश सम्पर्क भाषा के रूप में पंजाब से गुजरात तक व्यवहत होती थी। इसका प्रमाण ‘समस्त मरू एवम् टक और भादानक में अपभ्रंश का प्रयोग होता है तथा सौराष्ट्र एवं त्रवरगादि देशों के लोग संस्कृत को भी अपभ्रंश के मिश्रण सहित पढ़ते हैं’ – जैसी उक्तियाँ हैं।

सापभ्रंश प्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कभादानकाश्च।

 (काव्यमीमांसा, अध्याय 10)

सुराष्ट्र त्रवणाद्या ये पठन्त्यर्पितसौष्ठम् अपभ्रंशवदंशानि ते संस्कृत वचांस्यपि

(काव्यमीमांसा, अध्याय 7))

इस सम्पर्क भाषा अथवा मानक साहित्यिक अपभ्रंश का विविध क्षेत्रो में प्रयोग होने के कारण इसके उन विविध क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले भिन्न-भिन्न भाषिक-रूपों से रंजित उच्चारण भेद हो गए। नौवी शताब्दी में ही रूद्रट ने स्वीकार किया कि अपभ्रंश के देशभेद से बहुत से भेद हैं। अपभ्रंश भाषा उपनागर, आभीर एवं ग्राम्य भेदों को भूरिभेद कहकर अर्थात् भूमि की भिन्नता के कारण एक ही भाषा के स्वाभाविक भेद बतलाकर रुद्रट ने एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया है।

(…… भूरिभेदों देशविशेषादप्रऽभंशः। स चान्यैरुपनागराभीर

ग्राम्यत्वभेदेन  त्रिधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्तं भूरि भेद इति। तस्य च लक्षणं लोकादेव सम्यगवसेयम् ।

(काव्यालंकार, 2।12।))

ईसा की 10 शताब्दी तक अपभ्रंश लोक-भाषा न रहकर साहित्य में प्रयुक्त होने वाली रूढ़ भाषा बन चुकी थी। वस्तुतः 11वीं शताब्दी से आधुनिक आर्य भाषाओं के प्राचीन भाषा रूपों में लिखित साहित्यिक ग्रन्थ मिलने आरम्भ हो जाते हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि बोलचाल की भाषा के रूप में अपभ्रंश के विविध रूप 900 ई. या अधिक से अधिक 1000 ई. तक ही बोले जाते होंगे। अपभ्रंश के इन विविध रूपों से विविध आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जिस प्रकार विकास हुआ, वह बोली जाने वाली सामग्री उपलब्ध नहीं है। इतना निश्चित है कि अपभ्रंश के देशगत भेद (विविध क्षेत्रों में बोले जाने वाले भिन्न-भिन्न भाषिक रूप) उतने अथवा उनसे भी अधिक अवश्य ही रहे होंगे जितने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के विद्यमान भेद मिलते हैं।

विष्णु धर्मोतरकार के अनुसार तो स्थान भेद के आधार पर अपभ्रंश के भेदों का अन्त ही नहीं है।

देशभाषा विशेषेण तस्यान्तो नैवे विद्यते

(विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3/3))

मार्कण्डेय ने ‘प्राकृत सर्वस्व’ में अपभ्रंश के 27 भेद गिनाए हैं –

  1. व्राचड 2. लाट 3. वैदर्भ 4. उपनागर 5. नागर 6. वार्बर 7. आवन्त्य 8. मागध 9. पांचाल 10. टाक्क 11. मालव 12. कैकय 13. गौड़ 14. औढ्र 15. वैवपाश्चात्य 16. पाण्ड्य 17. कौन्तल 18. सैहल 19. कलिंग 20. प्राच्य 21. कार्णाट 22. कांच्य 23. द्रविड 24. गौर्जर 25. आभीर 26. मध्य देशीय 27. वैताल

(ब्राचडो लाट वैदर्भानुपनागर नागरौ बार्बरावन्त्यपांचालटांक्कमालवकैकयाः।

गौडोद्र वैनपाश्चात्यपाँडूयकौन्तल सैहला कलिंगप्राच्य कार्णाटिकां चद्राविडगौर्जराः।

आभीरो मध्यदेशीयः सूक्ष्म भेदव्यवास्थिताः सप्तविंशत्यपभ्रंशाः वेतालादि प्रभेदतः।)

(प्राकृत सर्वस्व, 2)

अपभ्रंश के विविध रूप बोले जाते थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है, किन्तु इनमें साहित्य उपलब्ध न होने के कारण इनका स्वरूप अज्ञात है। अपभ्रंश साहित्य का विकास मालवा, राजस्थान तथा गुजरात में हुआ। इन्ही प्रदेशों के भाषिक रूपों से रंजित साहित्यिक अपभ्रंशों में साहित्यिक रचना हुई। इसी साहित्यिक अपभ्रंश का रूप आज सुरक्षित है जिसमें कालान्तर में प्रत्येक प्रदेश के साहित्यकारों ने साहित्य रचना की। इस प्रकार हमें अपभ्रंश काल में विविध क्षेत्रों में बोले जाने वाले भिन्न-भिन्न भाषिक रूपों की कोई जानकारी नहीं है क्योंकि वे रूप उपलब्ध नहीं हैं;  हमारे पास साहित्य के रूप में प्रयुक्त मानक अपभ्रंश के कुछ रंजित रूप ही उपलब्ध हैं। अपभ्रंश के इन साहित्यिक रूपों से निःसृत होते समय आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जो रूप बोला जाता होगा उसकी भी हमें जानकारी नहीं है। इस प्रकार के विवरण तो उपलब्ध हैं कि किस अपभ्रंश रूप से किस आधुनिक आर्य भाषा का विकास हुआ है। पंडित हरगोविन्द दास त्रिकमचंद सेठ ने जो विवरण प्रस्तुत किया है, उससे निम्न रूपरेखा प्राप्त होती है –

1.मागधी अपभ्रंश की पूर्वी शाखा से बंगला, उडि़या, असमिया

2. मागधी अपभ्रंश की बिहारी शाखा से मैथिली, मगही, भोजपुरी

3. अर्द्ध मागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी भाषाएँ अर्थात अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी

4. शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिन्दी भाषाएँ अर्थात बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बांगरू,  हिन्दी या उर्दू

5. नागर अपभ्रंश से राजस्थानी, मालवी, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी तथा गुजराती

6. पालि से सिंहली और मालदीवन

7. टाक्की अथवा ढाक्की से लहँदा या पश्चिमी पंजाबी

8. टांक्की अपभ्रंश (शौरसेनी से प्रभावयुक्त) पूर्वी पंजाबी

9. ब्राचड अपभ्रंश से सिन्धी

10. पैशाची अपभ्रंश से काश्मीरी

(पण्डित हरगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ: पाइअ-सद्द-महण्णवों (प्राकृत शब्द महार्णव) कलकत्ता, प्रथम आवृत्ति, संवत् 1985 (सन् 1928 ई0))

यद्यपि यह विवरण ऐतिहासिक सम्बंध निरूपण के उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत है तथा इसका वर्तमान अथवा एककालिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से कोई महत्व नही है तथापि इससे यह जानकारी मिलती है कि अपभ्रंश के विविध भाषिक रूप थे जिससे आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का उद्भव हुआ है। जिसप्रकार हमें अपभ्रंश की अलग-अलग धारा के वैशिष्ट्य की जानकारी एवं सामग्री प्राप्त नहीं है, उसी प्रकार इन धाराओं से निःसृत होते समय आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बोलचाल अथवा उच्चरित स्वरूप की कोई जानकारी नहीं है।

अपभ्रंश की काल सीमा सन् 1000 तक मानी जाती है।  आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का उद्भव काल सन् 1000 से माना जाता है। अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं का संक्रमण-काल सन् 800 ईस्वी से लेकर सन् 1150 ईस्वी तक माना जा सकता है। इस संक्रमण काल में बोलचाल के भाषिक रूपों की अनुपलब्धता की स्थिति में इसके भाषिर रूप को जानने का आधार इस काल में रचित वे साहित्यिक अथवा भाषिक ग्रंथ ही हैं। इस काल का नाम हिन्दी के विद्वानों ने पिछली अपभ्रंश, उत्तरकालीन अपभ्रंश एवं अवहट्ठ भाषा का काल किया है। इस लेख में इस संक्रमण-काल (सन् 800 ईस्वी से सन् 1150 ईस्वी तक) में रचित रचनाओं अथवा कृतियों के सम्बंध में सूत्र शैली में प्रतिपादन किया जाएगा।

(1) सिद्ध साहित्य

महामहोपाध्याय हरिप्रसाद शास्त्री ने नेपाल की राजशाही लाइब्रेरी से सन् 1907 में ताड़पत्रों पर लिखे गए चर्यापद या सिद्धों की रचनाएँ (आठवीं से बारहवीं शताब्दी) का सम्पादन किया तथा उनकी पुस्तक “बौद्ध गान ओ दोहा” नाम से कलकत्ता से प्रकाशित हुई। कलकत्ता विश्वविद्यालय के जर्नल ऑफ द डिपॉर्टमैन्ट लैटर्स (JDL) के 28 वें अंक में सन् 1934 में श्री बागची द्वारा सम्पादित निम्न ग्रंथों का प्रकाशन हुआ – (1) तिल्लोपाद का दोहा कोष (2) सरहपाद का दोहा (3) कण्हपाद का दोहा (4) सरहपादकीय दोहा संग्रह (5) प्रकीर्ण दोहा संग्रह।  हिन्दी के संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों में से 81 सिद्धों जैसे सरहपा, कणरीपा, लुईपा, कण्हवा आदि के साहित्य से उदाहरण देकर यह प्रमाणित किया है कि यह साहित्य हिन्दी के आरम्भिक काल का है। सरहपा का चौरासी सिद्धों की तालिका में छठा स्थान है। इनके सरहपाद, सरोजवज्र, राहुल भद्र नाम भी मिलते हैं। श्री राहुल सांकृत्यायन ने इनका जन्म काल सन् 769 ईस्वी माना है। ऐसी मान्यता है कि वे पाल वंश के राजा धर्मपाल (सन् 770 से 810 ईस्वी) के समकालीन थे। इस आधार पर इनका समय आठवीं एवं नौवीं शताब्दी ठहरता है। इनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक माना जाता है। इनकी 20 से अधिक रचनाओं के नाम मिलते हैं किन्तु भाषा के अध्ययन की दृष्टि से इनका दोहा कोश अधिक चर्चित है। कण्हपाद के भी विविध नाम मिलते हैं। ये कण्हपा, कानपा, कानफा, कान्हूपा आदि नामों से जाने जाते हैं। इनका समय देवपाल (सन् 809 से सन् 849 ईस्वी तक) माना जाता है। इनके 27 संकीर्तन के पद तथा इनकी 57 पुस्तकों के नाम मिलते हैं। इनकी भाषा के सम्बंध में मत-भिन्नता है। श्री विनय तोष भट्टाचार्य इन्हें उड़िया (ओडिशा) भाषी मानते हैं।

(साधनमाला, गायकवाड़ ओरियंटल सीरीज़, पृष्ठ 53)

श्री हर प्रसाद शास्त्री ने इन्हें बंगला (बांग्ला) भाषी माना है।

(बौद्ध गान ओ दोहा, पृष्ठ 24)

श्री राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें मगही (बिहार की हिन्दी की उपभाषा) भाषी माना है।

(गंगा, पुरातत्त्वांक, पृष्ठ 254-255)

डॉ. धर्मवीर भारती ने डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर डी. फिल. उपाधि के लिए कार्य किया तथा इसी शीर्षक से उनकी पुस्तक प्रकाशित है।

(2) ‘पुष्य’ या ‘पुष्प’- हिन्दी के संदर्भ में डॉ. हीरा लाल जैन ने इनका वास्तविक नाम ‘पुष्पदंत’ माना है तथा इनका रचनाकाल विक्रम सम्वत 1020 अर्थात 963 के आसपास माना है। डॉ. हीरा लाल जैन के मतानुसार मान्यकेट राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (सन् 939 से 968 ईस्वी) के मंत्री भरत तथा उनके पुत्र नन्न का इन्हें आश्रय प्राप्त था। उन्होंने इनकी रचनाओं का रचनाकाल इस प्रकार माना है-

(अ) तिसट्ठि पुरिस गुणालंकार (महापुराण) (रचनाकाल – 965 ईस्वी के आसपास)

(आ) णायकुमार चरिउ (चरित कथा) (रचनाकाल – सन् 971 ईस्वी में रचना पूर्ण हुई)

(इ) जसहर चरिउ (यशोधर कथा) (रचनाकाल सन् 972 ईस्वी में रचना पूर्ण हुई)

इनकी भाषा के स्वरूप को समझने की दृष्टि से एक उदाहरण प्रस्तुत है –

हहउं थंभमि रविहि विमाणु।

जंतु चंदस्स जोण्ह छायामि तुरंतु।

सव्वहु विज्जउ महु विफ्फुरंति।

बहु तंत मंत अग्गइ सरंति।

(मैं सूर्य के विमान की गति को रोक सकता हूँ। चन्द्रमा की ज्योति को फीका कर सकता हूँ। मुझमें सब विद्याएँ स्फुरायमान हैं। बहुत से तंत्र मंत्र मेरे आगे चलते हैं।)

अपभ्रंश एवं प्राचीन हिन्दी के संक्रमण काल की भाषा के स्वरूप को समझने की दृष्टि से उपर्युक्त उदाहरण में कारक रचना एवं क्रिया रचना के निम्न विभक्ति रूप / परसर्गों के पूर्ववर्ती रूपों को पहचाना जा सकता है –

कारक

विभक्ति / परसर्ग

सम्बंध कारक

–    हि, -अस्स

अधिकरण कारक

–    हु, -मज्झि, -उप्परि

 

उत्तम पुरुष एक वचन वर्तमान काल

–    मि

अन्य पुरुष बहु वचन वर्तमान काल

–    अन्ति

 

(3) देवसेन कृत सावय धम्म दोहा – डॉ. हीरा लाल जैन ने इसका रचनाकाल विक्रम सम्वत् 990 (990 – 57) सन् 933 ईस्वी माना है। इसकी भाषा का परवर्ती रूप हमें मुनि राम सिंह के पाहुड दोहा में मिलता है। पाहुड दोहा की भाषा निश्चित रूप से सन् 950 ईस्वी के बाद की है। इस कारण सावय धम्म दोहा की भाषा पाहुड दोहा की भाषा के पहले की है। डॉ. हीरा लाल जैन ने पाहुड दोहा का रचना काल सन् 1100 ईस्वी के पूर्व माना है।यद्यपि सावय धम्म दोहा का रचनाकाल पुष्प दंत की रचनाओं के रचनाकाल के पहले का है मगर भाषा विकास की दृष्टि से सावय धम्म दोहा की भाषा अधिक विकसित है। इससे यह प्रतीत होता है कि देवसेन ने पुष्प दंत की अपेक्षा जन-भाषा के प्रयोग पर अधिक बल दिया है।

(4) अद्दहमाण पसिद्धो संनेह रासयं रइयं (संदेश रासक) – इसके रचनाकार ने अहने नाम का उल्लेख “अद्दहमाण” के रूप में किया है और इससे अब्दुल रहमान का आश्रय लिया गया है। (देखें- संदेश-रासक, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर, बम्बई, प्रस्तावना – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)

कवि ने रचना के आरम्भ में कवि वंदना में “तिहुयण” (त्रिभुवन) का भी उल्लेख किया है तथा उनके लिए “ दिट्ठ” का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है – देखा है। बाह्य साक्ष्यों के अनुसार त्रिभुवन का समय सन् 893- 943 के आसपास ठहरता है। (पउम चरिउ के सम्पादक डॉ. भयाणी के मतानुसार)। इस आधार पर इनका समय दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है।

इस रचना को अगर चंद नाहटा विक्रम सम्वत् 1400 के आसपास की रचना मानते हैं।

(राजस्थान भारती, भाग 3, अंक 1, पृष्ठ 46)

मुझे अगर चंद नाहटा का मत तर्क संगत नहीं लगता। इसका कारण यह है कि आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने ग्रंथ हेम शब्दानुशासन में संदेश रासक का पद्य उद्धृत किया है तथा “सिद्ध-हेम”  का रचनाकाल विक्रम सम्वत् 1192 (1192 – 57 = 1135) सन् 1135 मान्य है। इस कारण अगर चन्द नाहटा की मान्यता तर्क संगत नहीं है तथा इसका रचनाकाल आचार्य हेम चन्द्र सूरि के पूर्व मानना उपयुक्त प्रतीत होता है। मुनि जिन विजय के मतानुसार इसकी रचना विक्रम सम्वत् 1175 से 1225 के बीच हुई होगी। इस आधार पर इसका रचनाकाल सन् 1118 से 1168 ईस्वी के बीच हुआ। इसकी भाषा के स्वरूप को समझने की दृष्टि से एक उदाहरण प्रस्तुत है –

तं जि पहिय पिक्खेविणु पिअउक्कंखिरिय,

मंथरगय सरलाइवि उत्तावलि चलिय।

तह मणहर चल्लंतिय चंचल रमण भरि,

छुडवि-खिसिय रसणावलि किंकिणरव पसरि।। 26।।

(पथिक को देखकर पति के पास संदेश भेजने की उत्कंठा से वह वियोगिनी नायिका मंथर गति से सरल करके उतावली से चल पड़ी। शीघ्रता के कारण उसके मनोहर चंचल नितम्बों से करधनी खिसककर गिर पड़ी। उसकी किंकिणियों का स्वर फैल गया।)

इस उदाहरण से क्रिया के भूतकाल के निम्न रूपों में प्रयुक्त होनो वाली विभक्तियों का प्रयोग स्पष्ट है-

अन्य पुरुष एकवचन स्त्रीलिंग भूतकाल

–    इय

अन्य पुरुष एकवचन पुल्लिंग भूतकाल

–    इ

 

(4) आचार्य हेमचन्द्र सूरी(1088 -1172)-

आचार्य हेमचंद्रका जन्म विक्रम सम्वत् 1145 (1145 -57 =1088) सन् 1088 माना जाता है। आप अद्वितीय विद्वान थे। आपकी दर्शन, धर्म, योग, व्याकरण, साहित्य विषयक संस्कृत और प्राकृत में अनेक प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उनके ‘त्रिषष्ढिशलाकापुरुश चरित’  (पुराण काव्य) एवं देशीनाममाला (कोश ग्रंथ) तथा अभिधानचिंतामणि (पर्यायवाची कोश) में तत्कालीन युग की भाषिक सामग्री प्राप्त हो जाती है।

(5) प्राकृत पैंगलम – यह किसी एक काल की रचना नहीं है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के मतानुसार इसमें संकलित पदों का रचनाकाल 900 ईस्वी से लेकर 1400 ईस्वी तक का है। इस कारण इसके आधार पर अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं के संक्रमण काल के भाषिक स्वरूप के सम्बंध में प्रामाणिक सामग्री नहीं मानी जा सकती। हिन्दी की उपभाषाओं पर कार्य करने वाले विद्वान भी इसकी भाषा के सम्बंध में एकमत नहीं हैं। ब्रज भाषा पर कार्य करने वाले विद्वानों ने इसे ब्रज भाषा का ग्रंथ माना है किन्तु डॉ. उदय नारायण तिवारी के अनुसार इसमें अवधी, भोजपुरी, मैथिली और बंगला के प्राचीनतम रूप भी मिलते हैं।

(देखें- डॉ. उदय नारायण तिवारी : हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास, पृष्ठ 152)

डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया ने इसमें खड़ी बोली के तत्त्व भी ढूढ़ निकाले हैं।

(देखें – प्राकृत पैंगलम की शब्दावली और वर्तमान हिन्दी : सम्मेलन पत्रिका, वर्ष 47, अंक 3)

(6) रोडा कृत राउलबेल – डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया इसका रचना काल 1050 ईस्वी के आसपास मानते हैं। इसकी भाषा के सम्बंध में डॉ. माता प्रसाद गुप्त का कहना है कि इसकी भाषा को पुरानी दक्षिण कोसली माना जा सकता है। इसकी भाषा के सम्बंध में डॉ. हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी का मत सबसे अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है। उनके मतानुसार इसमें वर्णित आठ राजभवन की रमणियों के नखशिख सौन्दर्य का वर्णन है जो अपभ्रंशोत्तर आठ बोलियों के तत्त्वों से युक्त रहे होंगे। डॉ. भयाणी के मत से इसमें प्राप्त वर्णन क्रमशः अवधी, मराठी, पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, बंगाली, कन्नौजी तथा मालवी के पूर्व रूपों में लिखे गए हैं।

(7) सुगंध दशमी कथा – डॉ. हीरा लाल जैन के अनुसार इसके रचनाकार उदय चन्द्र हैं तथा इसका रचनाकाल सन् 1150 ईस्वी है।

(8) कथा कोश – डॉ. हीरा लाल जैन के अनुसार इसके रचनाकार मुनि श्रीचन्द्र है तथा इसकी रचना सन् 1066 ईस्वी के लगभग हुई।

डॉ. हीरा लाल जैन के अनुसार सुगंध दशमी कथा तथा कथा कोश इन दोनों रचनाओं के भाषिक रूपों से अपभ्रंश के परवर्ती भाषिक स्वरूप की जानकारी प्राप्त होती है।

3 COMMENTS

  1. सम्मान्य मधु सूदन जी
    आपकी प्रीतिकर सम्मति के लिए अपका आभारी हूूँ। भाषा नदी के प्रवाह की तरह प्रवाहमान होती है। भाषा की इस प्रकृति को उजागर करने के लिए मेरा एक लेख साहित्य अमृत में प्रकाशित हुआ था जिसका संदर्भ है –
    भाखा बहता नीरः साहित्य अमृत, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, (अक्टूबर, 2012)।
    महावीर सरन जैन

  2. आ. प्रा. जैन महोदय–अति सुंदर।
    अच्छा विषय छेडा है। दुबारा पढना चाहता हूँ।
    (१) अपभ्रंशो के प्रायोजित उच्चारणों का मूल शुद्ध रूप मिलना असंभव ही मानकर चलना होगा।
    (२)बेचरदास जीवराज दोशी आपकी ” प्राकृत मार्गोपदेशिका” में ==>”संस्कृत के माध्यमसे ही अन्यान्य प्राकृतों का (अपभ्रंश सहित ) तुलनात्मक अध्ययन” प्रस्तुत करते हैं, सुनीति कुमार ने प्रस्तावना भी लिखी है।(३) अपभ्रंशों का बोली रूप कभी मिलेगा नहीं।
    (४) इसी मौलिक सत्यका स्वीकार कर चलना होगा।
    आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
    फिर से समय लेकर पढूंगा। फिर प्रतिक्रिया भी व्यक्त करूंगा।

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