अपने ही समाज से दो बार हारीं इरोम शर्मीला

16 वर्षों के तप का फल मात्र 90 वोट

–    गुलशन गुप्ता

 

मणिपुर आज फिर से सुर्खियों में है | मणिपुर में 60 सीटों पर 2017 के विधानसभा चुनाव हुए हैं |

इसके अलावा सोशल मीडिया, ऑनलाइन मीडिया और कई चैनलों पर चर्चा में इसलिए भी है कि मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मीला चानू को दुबारा अपनों से ही हार खानी पड़ी | उन्हें कुल 90 वोट ही मिले | और आश्चर्य की बात ये है कि कुल 90 वोट मिलने पर अचम्भा मणिपुर के लोगों को नहीं बल्कि दिल्ली और मीडिया विशेषकर सोशल मीडिया के लोगों को अधिक है जो वहां की सामाजिक-राजनीतिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ अपने को बुद्धिजीवी कहते फिरते हैं |

मीडिया के सोशल प्लेटफार्म पर इरोम के चुनाव परिणाम से लोग चौंक रहे थे, उनको वोट नहीं देने के कारण मणिपुर के लोगों को कृतघ्न और संवेदनहीन कहा जा रहा था, कोई कह रहा था यह मूर्खों का लोकतंत्र है और कोई उनका साथ देते हुए कह रहा था कि आज भी नब्बे लोग उनके (इरोम शर्मीला के) साथ हैं |

ये तो स्पष्ट है कि इरोम ने चुनाव इन्हीं अपनों के भरोसे लड़ा था | 16 साल का उपवास भी इन्हीं अपनों के लिए रखा था | और चुनाव परिणाम से स्पष्ट हुआ वे अपने कुल 90 लोग हैं | तो फिर क्या कारण था कि उनका त्याग और उनके अपनों की ये सहानुभूति उन्हें राजनीतिक पारी में विजयी ना बना सकी | क्या 16 वर्षों का उपवास केवल इन नब्बे लोगों के लिए रखा था | वास्तव में आयरन लेडी ने अपने लिए सहानुभूति और समर्थन के कारण को ठीक से भापा नहीं |

ज़रा इतिहास में झांकते हैं | इतिहास को पढ़ते हुए आज तक पहुँचते हैं समझ में आ जायेगा |

अफ्स्पा एक्ट और इरोम शर्मिला का अनशन पर जाना:  8 सितम्बर, 1980 को मणिपुर में अफ्स्पा लागू हुआ | और यह सत्य है कि मणिपुर में जब से अफ्स्पा अधिनियम 1958 लागू किया गया तब से पुरुषों के लिए अधिक समस्याएँ खड़ी हुईं | क्योंकि इस अधिनियम में ऐसा प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति पर संदेह मात्र होने पर उसे गिरफ्तार कर लिया जाये, यदि प्रत्युत्तर में कोई प्रतिकूल प्रतिक्रया हो तो गोली भी मार दी जाये, शंका होने पर किसी भी घर की तलाशी ली जा सके, ऐसी छूट सेना को दी जाती है | इस शक्ति के तहत सेना द्वारा कुछ निर्दोष लोगों पर भी कार्रवाई की गयी, इस कारण के साथ मैयरा पायिबी समूहों ने सेना के खिलाफ भी मोर्चा खोला |

इरोम शर्मीला के आमरण अनशन पर जाने की पूरी घटना यह है -:

इम्फाल बाज़ार से दस किलोमीटर पूरब में पोरोम्पट जगह है | इरोम शर्मीला चानू यहीं से हैं | इम्फाल बाज़ार से दस किलोमीटर पश्चिम में, एयरपोर्ट के रास्ते मालोम नाम की जगह है | 2 नवम्बर, 2000 को मणिपुर के इस इलाके में जब अफ्स्पा कार्रवाई कर रही थी तब संदेह में पकडे गए लोगों पर गोली चलायी गयी | दस लोगों को पंक्तिबद्ध गोली मारी गयी | अफ्स्पा द्वारा 10 लोगों के मारे जाने की ख़बर ने मणिपुर को सकते में डाल दिया था | उस दिन गुरूवार था | गुरूवार के दिन मेतेई (अर्थात मणिपुरी हिन्दू) महिलाएं देवी का व्रत रखती हैं | इरोम शर्मीला ने भी रखा था | उस घटना के आवेश में इरोम ने अपना व्रत ही नहीं खोला | इस बात को चार दिन बीत गए थे | अभी तक इरोम ने कुछ खाया नहीं था | यह निर्णय अचानक था, बस दैवयोग से हो-सा गया था | जब इरोम ने अपने उपवास के कारण को सबके सामने लाना चाहा तो अपनी माँ से आशीर्वाद लेने गयी | उन्हें भी ख़बर नहीं थी कि उनकी बेटी इस प्रकार का कठोर निर्णय ले लेगी | लेकिन उसके दृढ निश्चय को जानकार आखिरी मुलाक़ात में माँ ने कहा कि अब तभी मिलेंगी जब उपवास का उद्देश्य पूरा हो जायेगा यानि मणिपुर से अफ्स्पा हट जायेगा |

जब ख़बर फैली तो इस निर्णय को लोगों ने चर्चा का विषय बनाया | इरोम से सहानुभूति तो हुई लेकिन उनके संघर्ष में शामिल नहीं हुए | राजनेता, समाजसेवी, मनावाधिकार कर्मी, वामी-संघी, सब आये लेकिन उनके आन्दोलन को अपना किसी ने नहीं कहा | क्योंकि सबके साथ लिया निर्णय नहीं था अर्थात सबके निहितार्थ नहीं थे | इरोम शर्मीला ने वह निर्णय दुःख के आवेश में लिया | उसके आन्दोलन का कारण एक हठ था और हठ का परिणाम शून्य होता है जिसे आम भाषा में खिसियाना भी कहते हैं |

जब यह बात समाज में चर्चा का विषय बनी, देश-विदेश की सुर्खियों में छाई तब मणिपुर के लोगों को समझ आया कि इरोम ने अंतर्राष्ट्रीय जगत में पैठ बना ली है | मणिपुर के राजनीतिक-सामाजिक संगठनों ने इरोम का रुख किया | इनमें विशेष हैं मैयरा पायिबी समूह | मणिपुर में समाज निर्माण के क्षेत्र में महिलाओं का यह संगठन सबसे अधिक प्रभावशाली है |

पहले की अपेक्षा अब मैयरा पायिबी संगठनों (पंजीकृत अथवा गैर-पंजीकृत) का भी उद्देश्य यही है कि मणिपुर में से अफ्स्पा को हटाया जाये और इनर लाइन परमिट (अंतर्गमन अनुमति पत्र) लागू किया जाये | इरोम को भी लगा कि इन महिलाओं का साथ उसके निश्चय को और अधिक दृढ करेगा | यहाँ एक बात स्पष्ट हो कि मणिपुर में प्रत्येक महिला मैयरा पायिबी है | सो इरोम भी एक प्रकार से उसी का हिस्सा हुई | गौर करने वाली बात यह कि इरोम के रूप में इन मैयरा पायिबी समूहों को एक ऐसा हाथी मिल गया था जिसके दांत दिखाकर इन्हें स्थानीय और देश के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय समाज से भी समर्थन और आर्थिक सहयोग मिलने लगा था | लेकिन अब हाथी ही नहीं रहा तो सर्कस कैसा ? अर्थात जैसे ही इरोम ने अपना अनशन समाप्त करना चाहा, लोगों की सहानुभूति भी समाप्त हो गयी |

अंतर्राष्ट्रीय समाज का समर्थन और सहयोग मिलने का अर्थ था सरकार पर अपना दबाव बढाया जा सकेगा | मैयरा पायिबी समूहों सहित स्वयं इरोम शर्मीला ने इसके प्रयास किये | कई बार के प्रयास से प्रतिनिधि मंडल प्रधानमन्त्री सहित पार्टी प्रमुख से भी मिले (विशेषकर कांग्रेस क्योंकि लम्बे अरसे तक केंद्र में उन्हीं की सरकार थी) | लेकिन ऐसी पेचीदा स्थिति पर कोई भी सरकार या दल हाथ डालना नहीं चाहता था |

मणिपुर की वर्तमान स्थिति और डेमोग्राफी को देखते हुए अफ्स्पा को हटाना मणिपुर के लिए ही नुक्सानदेह है | कोई भी राष्ट्र अपने ही राज्य में अपने ही लोगों का अस्तित्व मिटते नहीं देख सकता | मणिपुर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है जिसमें महज 30 प्रतिशत लोग रहते है जिनमें अधिकतर नागा और कूकी जनजाति (ट्राइब) है | जबकि 30 प्रतिशत धरती समतल (घाटी) है जहाँ मणिपुर की कुल आबादी की 70 प्रतिशत आबादी रहती है जिसमें मुख्य हैं मणिपुर की पहचान मेतेई समुदाय के लोग, फिर नेपाली, बंगाली, पंजाबी, मारवाड़ी, बिहारी आदि हैं | अर्थात मेतेई (मूल मणिपुरी) लोग घाटी में ही रहते हैं | और पूर्वोत्तर में जहाँ-जहाँ नागा रहते हैं उनकी मांग है कि मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्से और नागालैंड मिलकर उन्हें ग्रेटर नगालिम दिया जाये | ऐसे में सेना को ना रखा जाये तो उग्रवादी और उपद्रवी तत्वों से निपटने के लिए, गृहयुद्ध की स्थिति से बचने के लिए मणिपुर की सुरक्षा ताकतें पर्याप्त नहीं हैं | अन्यथा कौन-सा राष्ट्र चाहता है कि अपने ही घर में अपने ही लोगों को बंधक बनाकर रखा जाए | हालांकि पिछले कुछ सालों में स्थिति एकदम बदल गयी है | तनावपूर्ण स्थितियों को छोड़कर अब केवल सीमावर्ती क्षेत्रों में ही (नागालैंड सीमा और बर्मा या म्यांमार सीमा) में ही सुरक्षा बल अधिक संख्या में तैनात रहते हैं और गहन तलाशी आदि कार्रवाई की जाती हैं अन्यथा सभी जगह हालात सामान्य हैं |

कई प्रयासों के बाद भी जब इनकी मांगे पूरी नहीं हुईं तो केवल विरोध ही एकमात्र उपाय बचा था जो आज तक जारी है, इरोम का उपवास तोड़ने के बाद भी जारी है | लेकिन इरोम शर्मीला को यह समझने में 16 वर्षों का समय लगा कि कुछ समूहों द्वारा अपनी राजनीतिक-आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए उसका उपयोग किया जा रहा है | दरअसल, इनकी रोज़े रोटी का साधन बन गयीं थी इरोम शर्मीला |

निष्कर्ष: 1. इसमें गलती उस 28 वर्षीय महिला की बिलकुल नहीं जिसने अपने मणिपुरी भाइयों को अफ्स्पा के अमानवीय दंड और सेना की गोली से मरने से बचाने के लिए भावुकता में निर्जल उपवास की शपथ ले ली थी | बल्कि ये अतिविश्वास था कि वह अकेली ही इसका उपचार कर लेगी | उसके संघर्ष में अंत तक समाज की भागीदारी हो ही नहीं सकी | और उसके आन्दोलन को आत्महत्या का प्रयास करार देकर उसे क़ैद कर लिया गया |

2. मणिपुर की जनता के लिए यह मुद्दा कभी नहीं था कि इरोम शर्मीला ने अचानक से आमरण अनशन शुरू कर दिया या अचानक से उपवास तोड़ दिया | यह सही है कि मणिपुर में अफ्स्पा कभी ज्वलंत मुद्दा हुआ करता था लेकिन आज स्थिति बदली है | राष्ट्रवादी प्रवृत्ति सामने आई है | कुछ अंडरग्राउंड गुटों के अलावा अफ्स्पा की बात कोई नहीं करता और जब यह वस्तुस्थिति इरोम शर्मीला चानू को समझ आने लगी तो बिना किसी को बताये, मौका देखते हुए, चुनाव आने के ठीक पहले उन्होंने अपने अनशन का फल प्राप्त करने की इच्छा से उपवास तोड़कर राजनीति में जाने की इच्छा जताई | निश्चित रूप से उन्हें इसके लिए प्रोत्साहन दिल्ली के उदहारण से ही मिला है | अन्ना आन्दोलन के बाद दिल्ली में जिस प्रकार केजरीवाल ने राजनीति में अपने आन्दोलन को भुनाया था, उसी तर्ज़ पर इरोम ने भी अपने 16 वर्षों के अनशन को चुनाव में भुनाना अधिक उचित समझा |

3. व्यक्ति एक बार जब किसी निर्णय पर आगे बढ़ जाता है तो अपनी ही बात से पलटना या पीछे हटना उसके लिए मुश्किल हो जाता है | निर्णय के प्रति भीष्म श्रद्धा उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है | आप किसी पर अपना विचार या निर्णय थोप नहीं सकते | आपने कोशिश की किन्तु आपको लोगों का साथ नहीं मिला केवल सहानुभूति मिली, ऐसे में लोगों को संवेदनाहीन या कृतघ्न कहना उचित नहीं | इसमें विफल होने पर आप अपने विचार से मिलते-जुलते लोगों को तलाशते हैं | अंत तक आप (अन्ना और इरोम) को लगता है कि ऐसे सामान विचार वाले लोगों का साथ आपके आन्दोलन के उद्देश्य को पूरा कर रहा है किन्तु परिणामस्वरुप आप किसी अन्य की प्रगति का साधन बन जाते हैं | अन्ना दिल्ली में केजरीवाल की प्रगति के साधन बने मणिपुर में इरोम शर्मीला का उपवास अंडरग्राउंड गुटों के लिए खाद-पानी का काम करता रहा | दोनों ही आंदोलनों में उद्देश्य खो गया |

4. 2012 के मणिपुर के चुनावों के बाद एक सर्वे कराया गया था जिसमें लोगों की राय थी कि शर्मीला को अपना अनशन ज़ारी रखना चाहिए | हालंकि जब 9 अगस्त, 2016 को इरोम से आयरन लेडी बन चुकी शर्मीला ने उपवास तोड़ा तो सबसे अधिक विरोध उसी समाज से हुआ जिस पर उसे सबसे अधिक विश्वास था कि वह उसके इस निर्णय का स्वागत करेंगी | एक इंटरव्यू में उसके भाई ने कहा था कि यह सोचकर उसने यह सन्देश अभी अपनी माँ को नहीं सुनाया है कि उनकी 85 वर्षीया माँ की अपेक्षाओं पर क्या असर पड़ेगा जब वे ये सुनेंगी कि इरोम ने अनशन तोड़कर शादी करने और राजनीति के दंगल में कूदने का निर्णय लिया है | ख़बर पता लगने पर इरोम की माँ ने भी उनके इस निर्णय का समर्थन नहीं किया था | यहाँ उनकी पहली हार होती है | हालाँकि बाद में सब सामान्य होता चला गया |

5. यह सर्वविदित है कि इस बार के मणिपुर के चुनावों में इरोम को वामदल का कामरेडपन और अरविन्द केजरीवाल का आर्थिक सहयोग था | जिससे उन्हें अपना दल गठन करने की ताक़त मिली, दल बनाना यह भी उनका मन-माफिक लिया गया फैसला था |

दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की तर्ज़ पर मणिपुर में इरोम ने भी मुख्यमंत्री की सीट से ही चुनाव लड़ने का दूसरा हठ किया | उन्हें भरोसा था कि मणिपुर की महिलाशक्ति उनके साहस को और वे भाई जिनके लिए उन्होंने 16 वर्षों का कठोर व्रत लिया था अपनी बहन के कष्ट को समझकर सहानुभूति में वोट देंगे, इस भरोसे को दूसरी बार चोट पहुंची | चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उनके अपनों ने ही उन्हें दूसरी बार हराया |

6. जब इरोम शर्मीला चानू ने उपवास तोड़ा था तो दो इच्छाएं ज़ाहिर की थीं- एक चुनाव लड़ने की, दूसरी शादी करनी की | मणिपुर जिसे अपनी बेटी कहता है उसे किसी विदेशी से विवाह का समर्थन नहीं देता | हालांकि बाकी निर्णयों की तरह यह निर्णय भी आयरन लेडी स्वयं ही लेंगी |

इन सोलह वर्षों के दौरान कई लोग और संगठन इरोम के संघर्ष को समझने और अपना सहयोग देने आये | इनमें से एक है गोवा में जन्मे 48 वर्षीय ब्रिटिश-भारतीय पेशावश मानवाधिकारधर्मी श्री डेस्मंड काऊटिन्हो (Desmond Coutinho) | पत्राचार के माध्यम से दोनों में प्रेम बढ़ा | इरोम शर्मीला चानू इनसे शादी करना चाहती हैं | ध्यान देने वाली बात ये कि पहले दो निर्णयों की भाँति इस फैसले में भी समाज की सहमति नहीं है |

इरोम शर्मीला को समाज के नब्ज को भांपना होगा, उसे अपने साथ करना होगा या स्वयं उसके साथ खड़ा होना होगा | वास्तव में जनता संवेदनाशून्य नहीं, समय की ‘लहर’ को भांपना आवश्यक है | यदि संभव हो तो बेशक खुद चुनाव न लड़ें, पर्दे के पीछे रहकर कमान अपने हाथ में रखें फिर वहां सहानुभूति भी होगी और राजनीतिक ज़मीन भी | भविष्य में उन्होंने राजनीति ज़ारी रखने की कवायाद की है और जिस भावुकता से उन्होंने अपने 90 मतदाताओं को सम्मान दिया है वही 90 वोट उनकी ज़मीन तैयार करेंगे |

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here