दुराग्रही और नासमझ होते हैं एकतरफा सोचने वाले

 डॉ. दीपक आचार्य

यह दुनिया एक अजायबघर है जहाँ किसम-किसम के पशु-पक्षियों और मनुष्यों का ऎसा जमघट है जो कभी कम नहीं होने वाला। आदिकाल से साथ-साथ रहते हुए इन सभी की आदतों में कहीं न कहीं नकल और दोहराव के साथ अनुगमन और परिमार्जित आदतों को हृदयंगम कर लिए जाने की स्थितियाँ भी सामने आयीं हैं।

पशुओं ने भले ही समझदारी दिखाते हुए मनुष्यों की आदतों को नहीं अपनाया और अपनी मर्यादाओं को नहीं तोड़ा लेकिन मनुष्यों ने पशुओं से बहुत कुछ सीख लिया है। वह भी सीखा जो सिखना चाहिए, और वह भी जो कभी नहीं सिखना चाहिए। पर मनुष्य की फितरत में है कि वह सब कुछ सिखना और जानना चाहता है जो उसके काम का है, और नहीं भी।

मनुष्यों की तमाम विचित्र प्रजातियों में एक है उन लोगों की जो दुराग्रही या पूर्वाग्रही हैं। ऎसे लोग अपनी परिधियाँ बना लेते हैं और फिर उनमें ही रमण करते हुए अपनी घटिया सोच के कतरों को हवा में उड़ाते रहते हैं।

एक बात यह सिद्ध है कि जो लोग किसी न किसी के प्रति पूर्वाग्रह या दुराग्रह रखते हैं वे कभी किसी के नहीं हो सकते। उन्हें हमेशा कोई न कोई ऎसा अदृश्य पात्र चाहिए जिसके बारे में चर्चा और कुतर्क करते हुए टाईमपास कर सकें।

उनके लिए अपने क्षुद्र स्वार्थ और दुबुद्रि्धपूर्ण दुराग्रह ही सर्वोपरि होते हैं। जो स्थिति गिद्धों की होती है वही स्थिति इन लोगों की होती है जो कि हमेशा अपने संकीर्ण दायरों में परिभ्रमण करते हुए एकतरफा सोच में जीते हुए न खुद सत्य जानना चाहते हैं और न जमाने के सच को स्वीेकार कर पाते हैं।

इन लोगों के लिए डींगे हाँकना और झूठ फैलाना ही जीवन का सबसे बड़ा काम है जो नित्य कर्म की तरह रोजाना इनकी दिनचर्या में छाया रहता है। फिर ऎसे झूठे और जमाने भर की सडांध को अपने दिमाग में भरे हुए ये लोग ऎसे आडम्बरों में माहिर भी होते हैं जिनसे ये हमेशा लोगों में लोकप्रियता का भरम फैलाते रहें।

इस किस्म के कई लोग चाहे प्रौढ़ हो जाएं, चाहे बूढ़े-खसूट और बेड़ौल, इनका यह हिंसक व्यक्तित्व रोजाना कहीं न कहीं प्रकट होता ही रहता है। ऎसे लोगों के साथ उनकी ही किस्मों के वे लोग भी जुड़ जाया करते हैं जो इनकी झूठन पर पलते हैं और इनकी झूठन को जमाने को जीतने का अमृत मानकर गट करते रहते हैं।

ये लोग यह मानने के आदी होते हैं कि उनके इलाकों में जो कुछ हो, वह वही हो जो वे चाहते हैं, चाहे इससे उनका कोई लेना-देना हो या न हो। दुनिया के हर काम में टाँग अड़ा देना और फिर अपने भीतर की पशुता को दुनिया पर थोंपने की आदत पाले हुए ये लोग हर कहीं बिन बुलाये घुस आते हैं और शुरू कर देते हैं अपनी बकवास।

इस किस्म के लोग हमेशा एकतरफा सोच रखते हैं और कभी दूसरे पक्षों की बात जानने की कोई कोशिश ये नहीं करते। जो लोग झूठ में आकंठ डूबे होते हैं उन्हें हमेशा यही लगता है कि वे जो कुछ कह रहे हैं और कर रहे हैं वही सच है।

एक जमाना वह भी था जब इस प्रकार की मछलियाँ एक-दो होती थीं तब भी पूरा तालाब गंदा कर दिया करती थीं। आज तो ऎसी गंदी मछलियों से बढ़कर ऎसे गंदे और जमाने भर का खा-खाकर मोटे-तगड़े हुए जा रहे खूब हिंसक गैण्डे हमारे बीच हैं जिनसे मानवीय सभ्यता का तालाब तो क्या, पूरा सागर प्रदूषित होने लगा है।

किसी जमाने में आसुरी शक्तियों से परिपूर्ण रहे ऎसे लोग आज भी हमारे सामने हैं जिनकी शक्तियाँ और सामथ्र्य कभी का जवाब दे चुके हैं लेकिन पुरानी हिंसक मानसिकता अब भी इस कदर हावी है इन्हें अपने सामने न मौत दिखती है, न ईश्वर या धर्म।

आश्चर्य इस बात का है कि जिन लोगों के लिए श्मशान के रास्तों की खोज जरूरी हो चली है वे दूसरों के लिए कब्र खोदने में रमे हुए हैं। लोगों को भी उस दिन का ही इंतजार रहने लगा है जब पुराना पानी जाए और नयों को काम करने या अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिले। जब पूरी दुनिया बदल गई है तो फिर उन लोगों का क्या कत्र्तव्य शेष रह गया है जमाने के प्रति।

कई बार लोग ईश्वर को भी कोसते रहते हैं। इस बात के लिए कि जिन लोगों की जमाने को जरूरत होती है उन लोगों को जल्दी उठा देता है, और जमाने को जिनसे घृणा होती है, जिन्हें जमाना कभी नहीं चाहता है ऎसे-ऎसे लोग हमारे बीच रहकर हमारी छाती पर मूँग दल रहे हैं।

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