अर्थवाही शब्द रचना-डॉ.मधुसूदन

19
652

सूचना: एकाग्रता बनाए रखे, और कुछ समझते समझते, धीरे धीरे पढें, मैं मेरी ओर से पूरा प्रयास करूंगा, विषय को सरल बनाने के लिए। –धन्यवाद।

(१) अर्थवाही भारतीय शब्द

तेल शब्द कहांसे आया? तो पढा हुआ समरण है, कि तेल शब्द का मूल ”तिल” है। अब तिल को निचोडने से जो द्रव निकला उसे ”तैल” कहा गया। यह प्रत्ययों के नियमाधिन बनता है।

मिथिला से जैसे मैथिल, और फिर मैथिली, विदर्भ से बना वैदर्भ, और फिर वैदर्भी।

तो उसी प्रकार तिल से बना हुआ इस अर्थ में तैल कहा गया।

मूलतः तिल से निचोडकर निकला इसलिए, उसे तैल कहा , फिर हिन्दी में तैल से तेल हो गया, बेचनेवाला तेली हो गया।फिर, इस तेल का अर्थ विस्तार भी हुआ, और आज सरसों, नारियल, अरे मिट्टी का भी तेल बन गया।

हाथ को ’कर’ भी कहा जाता है, क्यों कि हाथों से काम ”करते” हैं। पैरों को चरण, क्यों कि पैरों से विचरण किया जाता है। आंखों को ’नयन’, इसी लिए, कि वे हमें गन्तव्य की ओर (नयन करते) ले जाते हैं। ऐसे ऐसे हमारे शब्द बनते चले जाते हैं। यास्क मुनि निरुक्त लिख गए हमारे लिए।

(२) शब्द कलेवर में अर्थ

ऐसे, कुछ परम्परा गत शब्दों के उदाहरणों से, शब्दों के कलेवर में कैसे अर्थ भरा गया है, यह विशद करना चाहता हूँ। आप कह सकते हैं, कि शब्द अपने गठन में अपना अर्थ ढोते हुए चलता है, या अर्थ वहन कर चलता है। इस लिए हमारी बहुतेरी शब्द रचना प्रमुखतः अर्थवाही (अर्थ ढोनेवाली) है।

जब शब्द ही अर्थवाही, (अर्थ-सूचक) हो, तो उसका अर्थ शब्द के उच्चारण से ही प्रकट हो जाता है। इस कारण,पारिभाषिक शब्दों की व्याख्याओं को रटना नहीं पडता। और देव नागरी के कारण स्पेलिंग भी रटना भी नहीं पडता।

(३) लेखक की समस्या

कठिनाई यह है, कि जिन उदाहरणों द्वारा, समझाने का प्रयास होगा, उन्हें समझने में भी कुछ शुद्ध हिन्दी या संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। पर स्वतंत्रता के बाद संस्कृत को (और हिन्दी) को भी बढावा देना तो दूर, उसकी घोर उपेक्षा ही हुयी, इसी कारण आप पाठकॊं को भी मेरी बात, स्वीकार करने में शायद कठिनाई हो सकती है।

फिर भी इस विषय पर लिखने के अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं। अतः एकाग्रता बनाए रखे, और कुछ समझने के लिए धीरे धीरे पढें, मैं मेरी ओरसे पूरा प्रयास करूंगा, विषय को सरल बनाने के लिए।

इस लेख में कुछ परिचित, और प्रति दिन बोले जाने वाले शब्दों के उदाहरण लेता हूँ।

पारिभाषिक शब्दों के उदाहरण, कभी आगे लेख में दिए जा सकते हैं।

(४) नदी, की शब्दार्थ वहन की शक्ति

नदी, सरिता, तरंगिणी सारे जल प्रवाह के ही नाम है। नदी का बीज धातु नद है।संस्कृत में, ”या नादति सा नदी” ऐसी व्याख्या करेंगे। नाद का अर्थ, है ध्वनि या गर्जना।

यहां अर्थ हुआ, जो प्रवाह कल कल छल छल नाद करता हुआ बहता है, उसे नदी कहा जाएगा।

नदी ऐसा नाद किस कारण करती है? भूगोल में आप ने पढा होगा, कि जब एक प्रवाह परबत की ऊंचाइ से गिरता है, तो अल्हड बालिका की भाँति, शिलाओं पर टकराते टकराते एक कर्ण मधुर नाद करता हुआ, उछल कूद करते नीचे उतरता है। इस कर्ण मधुर गूँज को ही नाद संज्ञा दी गयी है। और ऐसी ध्वनि करते करते जो प्रवाह बहता है, उसे ही नदी कहा जाता है। या नादयति सा नदी। जो नाद करती है, वह नदी है। अतः नदी शब्द के अंतर्गत नाद अक्षर जुडे होना ही उसका अर्थ वहन माना जा सकता है। इसे ही शब्दार्थ वहन की शक्ति कहा गया है। तो बंधु ओं नदी, जल वहन ही नहीं पर अपना अर्थ भी वहन कर रही है। अर्थ को भी ढो रही है। यह हमारी देव वाणी संस्कृत का चमत्कार है। अब यदि आप पूछेंगे, कि नदी को सरिता क्यों कहा जाता है?

(५) सरिता,

सरिता का शब्द बीज धातु सृ है। अब जब ऊपरि नदी का जल प्रवाह पहाडों से समतल भूमि पर उतर आता है, तो ढलान घटने के कारण, उसकी गति धीमी होती जाती है, और जब और भूमि सपाट होने लगती है, तो, बहाव की गति और धीमी हो जाती है, तो वह प्रवाह सरने लगता है, जैसे कोइ सर्प सर रहा है।

तो अब उसे नदी नहीं सरिता नाम से जानेंगे। और संस्कृत में व्याख्या करेंगे, ”या सरति सा सरिता”। हिन्दी में, जो सरते सरते बहती है, वह सरिता है।तो पाठकों, बोल चाल की भाषा में हम सरिता और नदी में भेद नहीं करते पर शब्द बीज दोनों के अलग हैं। इस लिए वास्तव में अर्थ भी अलग है।

(६) तरंगिणी

वैसे तथाकथित नदी को तरंगिणी भी कहा जाता है। किस नदी को तरंगिणी कहा जाएगा? तो, लहरों को, आप जानते होंगे, तरंग भी कहते हैं। ”तरंग” शब्द भी अपना तैरने का अर्थ साथ लेकर ही है। जो जल-पृष्ठ पर तैरता है वह तरंग है। यह तृ बीज-धातु से निकला हुआ शब्द है। यः तरति सः तरंगः। यहा अर्थ होगा, जिस नदी पर लहरें नाच रही है, उसे तरंगिणी कहा जाएगा। यह सारे शब्द, तरंग, तरंगिणी, तारक, तरणी,अवतार तॄ धातु से निकले हुए हैं।

”निघंटु” में (नदी) के लिए ३७ नाम गिनाए गए हैं।

निघंटु के पश्चात भी पाणिनीय विधि से और भी नाम है। निघंटु वेदों के शब्दों का संग्रह है। उसके शब्दों की व्युत्पत्तियों का शोध करने वाले ग्रन्थों को निरुक्त कहते हैं। यास्क मुनि ने अतीव तर्क शुद्ध निरुक्त लिखा है।

(७) अर्थ परिवर्तन

ऊपरि उदाहरणों से निष्कर्ष निकलता है, कि अर्थ में परिवर्तन होता रहता है। किन्तु यह परिवर्तन की प्रक्रिया सर्वथा ऊटपटांग नहीं होती। अर्थ विस्तार एक प्रकार की प्रक्रिया है। जो तिल से तेल बनने की प्रक्रिया में दर्शाई गयी है।

वैसे और भी बहुत उदाहरण है। कुछ उदाहरण संक्षेप में प्रस्तुत करता हूँ।

प्रवीण शब्द लीजिए।

(८)प्रवीण

अब, प्रवीण शब्द का विश्लेषण करते हैं। शब्द को देखने से पता चलता है, कि, यह शब्द वीणा शब्द के अंश वीण को प्र उपसर्ग जोड कर बना हुआ है। प्र +वीण =प्रवीण। संस्कृत में कहेंगे,–>’प्रकृष्टो वीणायाम्‌’, अर्थ हुआ, -’वीणा बजाने में कुशल व्यक्ति’। पर इस प्रवीण शब्द का अर्थ विस्तार हुआ, और किसी भी कला, शास्त्र, या काम में निपुण व्यक्ति को, प्रवीण कहा जाने लगा। कोई झाडू देने में प्रवीण, तो कोई भोजन पकाने में प्रवीण, कोई व्यापार में प्रवीण। चाहे इन लोगों ने कभी वीणा को छुआ तक ना हो, फिर भी वे प्रवीण कहाने लगे।

(९) कुशल

ऐसा ही दूसरा अर्थ विस्तृत शब्द हैं, कुशल।इस शब्द को देखिए। कुशल शब्द का अर्थ था ’कुश लानेवाला’ कुश उखाडने में सतर्कता से काम लेना पडता है। एक तो उसकी सही पहचान करना, और दूसरे उखाडते समय सावधानी बरतना, नहीं तो उसके नुकीले अग्रभाग से उँगलियों के छिद जाने का भय बना रहता है। तो आरम्भ में ”कुशल” केवल कुश सावधानी से उखाड लाने की चतुराई का वाचक था। पर पश्चात किसी भी प्रकार की चतुराई का वाचक बन गया। अब किसी भी काम में चतुर व्यक्ति को कुशल कहा जाता है। कुश, कुशल, कुशलता, कौशल्य इसी जुडे हुए शब्द है।

(१०) कुशाग्रता

इसी कुश से जुडा हुआ शब्द है ”कुशाग्रता”। कुश का अग्र भाग नुकीला, पैना होता है।

ऐसी पैनी बुद्धि को कुशाग्रता कहा जाएगा। और ऐसे व्यक्ति को कुशाग्र बुद्धिवाला कहा जाएगा।

(११) गोरज मूहूर्त।

मुझे और एक शब्द जो प्रिय है, वह है गोरज मुहूर्त। सन्ध्या का समय है। गांव के बाहर दूर गौएं, बछडे इत्यादि चराके वापस लाए जा रहें हैं। और गौओं के चरणो तले से रज-धूलि उड रही है। इस रजके उडने की जो समय घटिका है, उसका हमारे पूरखों ने गोरज-मूहूर्त नामकरण किया। वे,आज के किसी भी कवि से कम नहीं होंगे। मुझे तो लिखते लिखते भी भाउकता से हृदय गद गद हो जाता है।

(७)संध्या, या संध्याकाल।

शब्द ही क्या क्या भाव जगाता है? दिवस का अन्त और रात्रि का आगमन। रात्रि-दिवस का मिलन या सन्धि काल। सन्ध्या कहते ही अर्थ प्रकट।

(१२) मनः अस्ति स मानवः

मानव शब्द की व्याख्या है, वही मानव है, जिसे मन है। मन विचार करने के लिए होता है। संस्कृत व्याख्या होगी—> मनः अस्ति स मानवः। आप जानते होंगे कि, मन होने के कारण मानव विचार कर सकता है। अन्य प्राणी विचार करने में असमर्थ है, वे जन्म-जात (Instinct) वृत्ति लेकर जन्म लेते हैं।

एक दूसरी भी व्याख्या दी जाती है, मानवकी। वह है मनु के पुत्र के नाते ,मानव। जैसे पांडु के पुत्र पांडव, कुरू के कौरव, रघु के पुत्र सारे राघव। ठीक वैसे ही मनु के पुत्र मानव कहाए गए।

(१३) उधार शब्द क्यों नहीं ?

जो शब्द अंग्रेज़ी से, उधार लिए जाते हैं , उन में यह गुण होता नहीं है, और होता भी है, तो उसका संदर्भ परदेशी लातिनी या युनानी होने से हमारी भाषाओं में वैसा शब्द लडखडाते चलता है। पता चल जाता है, कि शब्द लंगडा रहा है, उच्चारण लडखडा रहा है। दूसरा कारण, उस शब्द पर हमारे उपसर्ग, प्रत्यय, समास, सन्धि इत्यादिका वृक्ष (संदर्भ: शब्द वृक्ष) खडा नहीं किया जा सकता। शब्द अकेला ही स्वीकार कर के , स्पेलिंग और व्याख्या भी रटनी पडती है। शब्द अर्थ वाही नहीं होता।

(१४) व्यक्ति (अव्यक्त व्यक्त व्यक्ति )

उसी प्रकार दूसरा शब्द व्यक्ति है। परमात्मा की उत्तम कृति जहां व्यक्त होती है, वह व्यक्ति है।जन्म के पहले हम अव्यक्त थे, जन्मे तो व्यक्त हुए, और मृत्यु के बाद फिर से अव्यक्त में विलीन हो जाएंगे। इतना बडा सत्य जब हम किसी को व्यक्ति कहते हैं, तो व्यक्त करते हैं।

अंग्रेज़ी में जब हम इसका अनुवाद Individual करते हैं, तो क्या यह अर्थ व्यक्त होता है? नहीं, नहीं।

ऐसे बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं।

(१५) वृक्ष

वृक्ष को वृक्ष क्यों कहते हैं। वृक्ष्‌ वृक्षते। वृक्ष धातु बीज का अर्थ होता है, वेष्टित करना, आवरित करना, आवरण प्रदान करना। तो अर्थ हुआ ”जो आवरण करते हैं, वे वृक्ष” है। आवरण के कारण छाया भी देते हैं। छाया देने का अर्थ वृक्ष के साथ जुडा हुआ है।

(१६) भारतीय शब्द व्युत्पत्ति

भारतीय शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर रचा जाता है। व्युत्पत्ति का अर्थ है ” विशेष उत्पत्ति।

अंग्रेज़ी शब्दों की Etymology होती है। Etymology का अर्थ होता है, शब्द का प्रवास ढूँढना। शब्द किस भाषा में जन्मा, वहां से और किन किन भाषाओं में गया, और अंत में अंग्रेज़ी में कैसे आया। उसे आप शब्द प्रवास कह सकते हैं।

(१७) गुण वाचक संस्कृत शब्द

संस्कृत में , गुण वाचक अर्थ भर कर शब्द रचने की परम्परा है। लातिनी की परम्परा नहीं है, ऐसा नहीं, पर हमारी परम्परा बहुत ही समृद्ध है।और हमारे लिए लातिनी परम्परा का उपयोग नहीं, जब तक हम कुछ लातिनी भी न सीख ले। इससे उलटे संस्कृत परम्परा है।आप जैसे वस्तुओं के गुण वर्णित करेंगे, वैसा शब्द संस्कृत आपको देने में समर्थ है। आपको केवल गुण दर्शाने होंगे। संस्कृत शब्द गुण वाचक, अर्थ-वाचक, अर्थ-बोधक, अर्थ-वाही होता है।

(१८)अंग्रेज़ी का शब्द

अंग्रेज़ी का शब्द किसी वस्तु पर आवश्यकता पडनेपर आरोपित किया जाता है।अंग्रेज़ी शब्द का इतिहास ढूँढा जाता है, कि किस भाषासे वह लिया गया है। संस्कृत शब्द मूलतः गुणवाचक होता है। अपने गुणों को उसके अर्थ को साथ वहन करता है। अंग्रेज़ी ने कम से कम पचास भाषाओं से शब्द लिए, इस लिए उसकी खिचडी बनी हुयी है। उसके उच्चारण का भी कोई एक सूत्रता नहीं, नियम नहीं। इस विषय में कभी हमारे अंग्रेज़ी के दीवानों ने सोचा है?

19 COMMENTS

    • भेद उपयोग में होगा. अर्थ छटाएँ दोनों की कुछ अलग है. मातृप्रेम कहा जाएगा. मातृप्रीती की अपेक्षा मातृप्रेम अधिक सहज मानता हूँ. वैसे अर्थ दोनों का प्रायः समान है. पर फिर भी उनकी छटाएँ अलग प्रतीत होती है. ऐसा भेद साहित्यिक शैली का है.
      मैंने हिन्दी साहित्यिक अध्ययन विशेष किया नहीं है. गुजराती मातृभाषा है. आप किसी साहित्यिक से परामर्श करें. आप के प्रश्न का इससे अधिक (अच्छा) उत्तर मेरे पास नहीं है.

  1. ​​
    ​बंधुवर झवेरी जी – सर्वोत्तम कहूँ या सर्वश्रेष्ठ – वास्तव में आप के शोध और व्याख्या को पढ़ कर आनंद आ गया। मैंने अपने मित्र श्री उमेश अग्निहोत्री जी से आप की चर्चा की थी। आज कल वे कुछ अस्वस्थ चल रहे हैं। ​

  2. आपके श्रम को नमन् .आपके श्रम को मंच मिला अतःपाठक भी मिले.कुछ मेरे चिंतन का आप उपयोग कर लेँ उपयोगी लगे तो. नार =पानी;नार > नर > नारी ;नार=नाल (नाभिनाल > पानी या द्रव रूप मेँ भोजन रसवाहक #यह नार नाल नाला नारी ;आँचलिक बोली मेँ नरदा घर की नाली है. नार+द =नारद संभवतः जल पानी से ही होँ . पिता ब्रह्मा भी नारायन के नाभिनाल से जुड़े हैँ यह नार पानी का बहाव नाद करते हुए नद>नदी बनते हैँ .ब्रह्मपुत्र नद है नदी नहीँ . नर्मदा > नर + मद > मदा या नार मदा >जल पानी के मद वाली नरमदा >नर्मदा है जो शोणनद या शोणभद्र अब सोन नदी से विपरीत दिशा मेँ बही तो आदरणीय आपका शब्द मेँ अर्थवाहिता के गुण का कथन निश्चय सत्य है आँचलिक बोली बानी मेँ ही क्या नागर वार्तालाप मेँ भी ‘वो’,’वोई’ कहकर कोई भेद या मर्यादा बोध क है . बहन+वोई= बहनोई,ननद+वोई=ननदोई .लेकिन हमारी कुसंगति मेँ बेचारे शब्द बुरे अर्थ ढो रहे हैँ.यथा -: दादा, भाई, गुण्डा, गुरु, उस्ताद ,नेता आदि शब्द अपने वास्तविक अर्थ से विपरीत दहशत,अपराध ,अपमान ढो रहे हैँ .दस मेँ आठ नेताओँ को नेता का मूल पता नहीँ

  3. बहुत दिनो के बाद इतना गहन एवं विस्तृत लेख पड़ने को मिला, बहुत बहुत धन्यन्वाद| मैंने अभी तक हिंदी भाषा में इतना गूड़ शब्दों की रचना और उनका क्या प्रभाव हो सकता है, नहीं पड़ा

  4. बहुत दिनोया के बाद इतना गहन एवं विस्तृत लेख पड़ने को मिला, बहुत बहुत धन्यन्वाद| मैंने अभी तक हिंदी भाषा में इतना गूड़ शब्दों की रचना और उनका क्या प्रभाव हो सकता है, नहीं पड़ा|

  5. मधु सूदन जी का संस्कृत भाषा के विषय में लिखा एक उत्कृष्ट लेख ही कहा जाएगा. किसी भी विषय पर लिखा लेख, पुस्तक या शोध तभी पठन योग्य और प्रसिद्धि पाते हैं यदि पाठक के लिए विषय रोचक और प्रस्तुत की गई सामग्री में उत्सुकता हो. मैं भारी भरकम विषय पर लिखनेवाले बहुत कम ही लेखकों को पढ़ पाया हूँ जिनकी लेखन शैली के कारण विषय में रोचकता और उत्सुकता बनी रहती है, और इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रो० मधु सूदन उनमें से एक हैं. विज्ञानं के छात्र, अभियांत्रिकी के प्रोफ़ेसर और अमेरिका मैं रहने के बावजूद अपनी धरती, अपनी संस्कृति और अपनी भाषा से इतना लगाव और जुडाव बहुत कम ही लोगों में देखने को मिलता है. यदि मधु सूदन जी की लेखन शैली में भाषा और व्याकरण की पाठ्य-पुस्कतें विद्यालयों में पढाई जाएँ तो अपनी भाषा का ज्ञान विद्यालय स्तर से ही छात्रों प्राप्त करना सरल होगा.
    हमारे जैसे भाषा के अल्प ज्ञानी वैसे भी इस स्तर के लेखकों के आलेख पर कुछ कहने का सामर्थ्य ही नहीं रखते . मैं तो मदूसुदन जी को साधुवाद ही दे सकता हूँ.
    आज ही नेट पर संस्कृत भाषा के विषय में कुछ आश्चर्यजनक तथ्य मेरे संज्ञान में आये हैं उन्हें प्रवक्ता के मध्यम से पाठकों में साँझा करना चाहता हूँ. : —–
    1. कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा। संदर्भ: – फोर्ब्स पत्रिका 1987.

    2. सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, हिंदू कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिक परिवर्तन के साथ शुरू होता है) संदर्भ: जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी.

    3. दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बात करने से व्यक्ति… स्वस्थ और बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदि जैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानव शरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति का शरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रिय हो जाता है।संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद).

    4. संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी (Technology) रखती है।संदर्भ: रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी.

    नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्ते की पांडुलिपियों है जो वे अध्ययन का उपयोग कर रहे हैं. असत्यापित रिपोर्ट का कहना है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं.

    दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए है, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय इंडिया (भारत) में नहीं है।

    5. दुनिया की सभी भाषाओं की माँ संस्कृत है। सभी भाषाएँ (97%) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है। संदर्भ: – यूएनओ

    6. नासा वैज्ञानिक द्वारा एक रिपोर्ट है कि अमेरिका 6 और 7 वीं पीढ़ी के सुपर कंप्यूटर संस्कृत भाषा पर आधारित बना रहा है जिससे सुपर कंप्यूटर अपनी अधिकतम सीमा तक उपयोग किया जा सके। परियोजना की समय सीमा 2025 (6 पीढ़ी के लिए) और 2034 (7 वीं पीढ़ी के लिए) है, इसके बाद दुनिया भर में संस्कृत सीखने के लिए एक भाषा क्रांति होगी।

    7. दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छी भाषा संस्कृत है। संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985.

    8. संस्कृत भाषा वर्तमान में “उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी” तकनीक में इस्तेमाल की जा रही है। (वर्तमान में, उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी तकनीक सिर्फ रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका में ही मौजूद हैं। भारत के पास आज “सरल किर्लियन फोटोग्राफी” भी नहीं है )

    9. अमेरिका, रूस, स्वीडन, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और ऑस्ट्रिया वर्तमान में भरत नाट्यम और नटराज के महत्व के बारे में शोध कर रहे हैं। (नटराज शिव जी का कॉस्मिक नृत्य है। जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के सामने शिव या नटराज की एक मूर्ति है ).

    10. ब्रिटेन वर्तमान में हमारे श्री चक्र पर आधारित एक रक्षा प्रणाली पर शोध कर रहा है

  6. डॉ. राजेश कपूर,
    श्री अभिनव द्विवेदी,
    और बहन रेखा– सभीका धन्यवाद|
    वास्तव में देववाणी की श्रेष्ठता, यास्क, पाणिनि, पतंजलि और देववाणी, एवं हमारे वेद —–जितना समझ पा रहा हूँ, आत्म विश्वास हो रहा है, की देव वाणी वास्तव में देव वाणी है|
    आगे और भी बहुत सामग्री सोची है, समय मिलते ही आप की सेवामें देव वाणी की कृपा से और बिन्दुओं को प्रस्तुत करूंगा|
    गंगा का जल गंगा में —–तेरा तुझको अर्पण –क्या लागे मेरा?
    परमात्मा की कृपा बनी रहे|
    सभीका धन्यवाद|

  7. मुझे लगता है की प्रो. मधुसुदन झावेरी जी के जीवन का राष्ट्र के लिए सबसे मूल्यवान योगदान यह शोध है. कितना मौलिक और महत्वपूर्ण चिंतन है इनका. वाईस मार्शल श्री विश्वमोहन जी का चिंतन इस शोध को और निखारने में सहायक है. प्रो. झावेरी जी का यह विषय न होने पर भी जैसी पकड़ उनकी इस पर है, यह अद्भुत है. भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं पर करने की चाह……? वहीँ हम चूक रहे हैं. पर अब सही समय आ गया है और प्रो. झावेरी जैसी अद्भुत प्रतिभाओं के योगदानों के ठोस परिणाम जल्द ही सामने आने लगेंगे, इसमें अब संदेह नहीं. नमन एवं शुभकामनाओं सहित.

  8. धन्यवाद |
    बहुत ही सुन्दर लेख है | जिनको भाषा का बहुत अभ्यास न हो, उनको भी समज में आ जाए इतना सरल है | महर्षि अरविन्द का एक निबंध, “ध ओरिगिन ऑफ़ आर्यन स्पीच” , इस विषयसे बहुत सम्बन्ध रखता है | काफी गहरiई वह निबंध में है | वह निबंध उनकी ” ध सीक्रेट ऑफ़ ध वेदास” पुस्तक में अंतिम प्रकरण में दिया गया है |

  9. सुदर्शन शुक्ल जी, और जित भार्गव जी—
    बहुत बहुत धन्यवाद|
    सभी प्रतिक्रियाओं के कारण एक विशेष लाभ होता है| प्रतिक्रियाएं मुझे आगे के लेखों की दिशा एवं विषय वस्तु का निर्देश करती है| अतः आप प्रतिक्रियाएं देते रहें|
    और दोष दिखाने से भी ना चुकें|
    धन्यवाद

  10. बहुत ही सरल-सहज तरीके से आपने हमारी संस्कृत-हिन्दी की विरासत से अवगत कराया. आज तक इन शब्दों को हमने कई बार उपयोग किया है..लेकिन अब उनके मर्म और आधार को भी समझने का लिया है. सो अब हर शब्द पर एक क्षण विचार करने को मन करेगा.
    हमेशा की तरह पठनीय और संग्रहणीय लेख के लिए हार्दिक साधुवाद.

  11. अर्थवाही शब्द रचना एक उत्तम और श्रेष्ट लेख हैं i स्वतंत्रआ के पश्चात भारत की सिक्षा पर्नाली अंग्रेजी भाषा पर आधारित हैं. डॉ.मधुसूदन जी ने अंग्रेजी भाषा की त्र्रुतिया का चित्रण किया हैं जिसमे कम से कम ५० अलग अलग भाषाऊ के शब्द लिए हुईं हैं . अंग्रेजी भाषा के शब्दों के उचारण का भी कोई एक सिधानत नहीं हैं. हिंदी भाषा मुख्यता संस्कृत भाषा से जुडी हैं. संस्कृत और हिंदी भाषा के शब्दों की रचना ऐसी हैं के शब्द से इसका अर्थ श्पस्ता हो जाता हैं जैसे हस्त और अक्षर मिल कर हस्तकर बन जाता हैं. जबके हिंदी भाषा में अधिकतर दस्तखत शब्द का पर्योग होता हैं. डॉ.मधुसूदन जी के लेखो में इतनी सूचना और जानकारी भरी होती हैं के यदि जनता और पत्रकारिता के लोग ऐसे लेखो के समझे और पर्योग में लाये तो सरे भारत में संस्कृत , हिंदी और अन्य भारतीय भाषायो को अधिक महत्व मिलना आरम्भ हो जायेगा और विदेशी भाषा अंग्रेजी का महत्व कम हो जायगा . डॉ.मधुसूदन जी ऐसे उच्चा कोटि के लेखो के लिए बधाये के पात्र हैं.

  12. विनोद जी आपसे पूरी सहमति व्यक्त करता हूँ|
    — कुछ जीविका और व्यवसाय के कारण पूरा न्याय नहीं कर पाता|
    आगे प्रयास करूंगा|
    ऐसे ही सुझाव देते रहें|
    बहुत बहुत धन्यवाद|

  13. शायद आपके ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ, वह भी शब्द चर्चा से। किन्तु लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। संस्कृत न सीखने का दुख सदा रहेगा किन्तु उससे स्नेह सदा बना रहेगा। जितनी संस्कृत व उसके शब्द जानती हूँ वे ही मुझे उससे जोड़ देते हैं।
    यह लेख अच्छा लगा। आशा है इस विषय पर और भी पढ़ने को मिलेगा।
    घुघूती बासूती

    • घुघूती बासूती जी–नमस्कार एवं धन्यवाद||
      प्रवक्ता पर ऐसी ही भेंट करते रहिए| और हमारे गुणावगुण की ओर ध्यान दिलाते रहिए|
      यह जाल स्थल सभी का है|
      बहुत बहुत धन्यवाद|

  14. आपकी शब्दावली‌ में‌ कहूं तब आपका लेख निस्संदेह आनन्दवाही‌ है।
    ऐसे लेखों कि आवश्यकता है ताकि हमारे समाज का बड़ा हिस्सा
    अपनी भाषा के वैभव से परिचित हो और आनंद उठाए, उसे रटने की‌आवश्यकता नहीं।
    अब आपके पाठकों को जलप्रपात देखने पर उसके मधुर नाद में अधिक आनंद आएगा।
    और सरिता के भीतर वह भी सर सर कर अधिक आनंद लेगा।

    तृ धातु से निसृत शब्द भी आनंद के सागर में तैराते हैं।
    किन्तु अवतार का अर्थ मेरी जानकारी‌में ‘नीचे उतरने’ से है, ईश्वर एक ऊँची स्थिति से मनुष्य की नीची स्थिति में‌ उतरते हैं। यहं उतरने का अर्थ ‘जल पर उतराना’ से नहीं लगता।

    हमें पढ़ाया जाता है कि अंग्रेज़ी‌बहुत ही समृद्ध भाषा है न कि हमारी‌ भाषाएं,
    और हममें से अधिकांश इसे मान जाते हैं, अपने अज्ञान के कारन !
    जिस भाषा में एक एक वस्तु या अवधारणा के लिये नदी के२७, से लकर ५० तक शब्द हों
    अथवा जिसमें एक शब्द अनेक अवधारणाओं को व्यक्त कर सके,
    और जिसकी मां संस्कृत में एक एक धातु से हजारों शब्दों का निर्माण करने की क्षमता हो
    क्या उसकी समृद्धि में संदेह किया जा स्वकता है, कोई गुलाम ही ऐसा कर सकता है।

    आपने उधार शब्दों की सीमा बतलाकर उपकार किया है। आजकल तो भारतीय लगता है कि उधार पर ही, चाहे धन हो, या व्यवहार हो या कपड़े हों, या संस्कृति हो या भाषा हो, बस उधार पर ही जीना चाता है ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’।

    व्यक्ति ईश्वर की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है – भई वाह आनंद ही आनं द।

    आपने शब्दों को अर्थ वाहिनी कहा है जो सही है, किन्तु मुझे लगता है कि वहन करने में कोई अपने ऊपर किसी वस्तु को रखकर वहन करता है या ढोता है।
    मुझे लगता है संस्कृत के शब्द अपने ऊपर रखकर अर्थ को नहीं ढोते, वरन वे उनमें निहित होते हैं, वे उनके अंदर होते हैं – यदि एक उपमा दूं ( जो कि कमजोर होती हैं) तो कहूंगा कि अर्थ शब्द में समोसे में आलू की तरह भरा होता है, उसका एक अनिवार्य अंग होता है; और वही आलू यदि रोटी में रखकर खाएं तब रोटी आलू को ढ़ोती है।
    अर्थवाहक के स्थान पर ‘गुणवाचक’ अधिक सही शब्द है इस अवधारणा को व्यक्त करने के लिये। .

    अंग्रेज़ी के शब्द कोश अपने शब्दों की उत्पत्ति यूरोपीय, लातिनी या यूनानी शब्दों तक तो खुलकर घोषित करते हैं।
    किन्तु उनकी उत्पत्ति संस्कृत से बतलाने में यथा सम्भव बचने का प्रयत्न करते हैं। जैसे मुझे लगता है कि ‘cow’ शब्द गउ या गाय से बना होगा, या ‘door’ शब्द द्वार से बना होगा, किन्तु अंग्रेज़ी शब्दकोश यह नहीं बतलाएंगे ।. ऐसे अनेक उदाहरन हैं। क्या आप इस दिशा में कुछ प्रयास कर सकेंगे । मैं‌ चाहते हुए भी नहीं कर पा रहा हूं।

    इस समय हिन्दी को बचाने के लिये आपका यह कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। किन्तु इससे अधिक् आवश्यकता नौकरी से अंग्रेज़ी की अनिवार्यता को हटाने की है। इसके लिये हम जनसाधारण क्या करें ?

    • व्हाइस एयर मार्शल–आदरणीय विश्वमोहन जी।
      प्रणाम।
      आपने समय देकर दीर्घ टिप्पणी के योग्य लेख को समझा, यही मेरा पारितोषिक है।
      देववाणी की परम्परा से जनित शब्द भारतीय भाषाओ में, अपनासा लगता है, अतः तुरन्त घुल मिल जाता है।
      अपवादॊं का हिन्दीकरण (संस्कृतकरण) किया जाए। इस लेखक के द्वारा निर्माण अभियान्त्रिकी में पारिभाषिक शब्दावली रच कर, ३ बार (Conference) संगोष्ठियों में प्रस्तुतियां हो चुकी है।
      आपसे पूर्ण सहमति है।
      आपका सुझाव समय सर आ गया। मुझे गुजराती में यही लेख दो सामयिकों ने माँगा है। आपका “समोसे” का सुझाव मुझे काम आएगा। मैं उसे मीठा समोसा “गुझिया” बनाकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। गुजरात हर बानगी में शक्कर डाल देता है।
      सादर, सविनय।

  15. लेख अर्थपूर्ण है, पाठक में जिज्ञासा जगाता है। लेकिन लेख का अर्द्धांश भूमिका ने ही ले लिया है। जब तक पाठक विषय से तारतम्य जोड़ पाता है, कि एकाएक लेख समाप्त हो जाता है। इस लेख का यदि कुछ और विस्तार होता तो संभवतः पाठक की तृप्ति हो पाती। अब तो लकता है प्यास अधूरी रह गई।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here