पुराने हिन्दी फिल्मों के गीतों में स्वस्थ्य मनोरंजन के साथ दर्षन का पुट भी झलकता है। इस भावना का पर्याय गीत है, पर्दे में रहने दो, पर्दा न हटाओ, पर्दा जो खुल गया तो भेद जाएगा। देश की सर्वोच्च अदालत ने राजनीतिक दलों द्वारा लिए जाने वाले चंदे में पारदर्शिता लाने के नजरिये से, छह प्रमुख दलों को आरटीआर्इ के दायरे में ला दिया था। चूंकि सभी दल चोर-चोर मौसेरे भार्इ की तर्ज पर काम कर रहे हैं, इसलिए इनकी छातियों पर सांप लोटना लाजिमी था। इस सांप से मुक्ति के लिए केंद्र सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलार्इ और दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने का फैसला ले लिया। कैबिनेट ने 2005 में बने आरटीआर्इ कानून में परिवर्तन की मंजूरी दे दी। संशोधित विधेयक मानसून सत्र में पेश होगा। चूंकि सभी दल बदलाव के पक्ष में हैं, इसलिए विधेयक के पारित होने में अड़चनें आनी ही नहीं हैं। हालांकि न्यायालय के आए ऐतिहासिक फैसले के बाद से ही ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि सरकार ने जिस तरह से सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार कानून से मुक्त कर दिया था, कुछ वैसा हश्र, इस फैसले के साथ भी होगा।
राजनीतिक दलों में पारदर्शिता लाने के नजरिये से इन्हें आरटीआर्इ के दायरे में लाना एक ऐतिहासिक घटना ऐतिहासिक फैसला था। केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाकर उल्लेखनीय पहल की थी। इससे प्रमुख दल मांगे गए सवाल का जवाब देने के लिए बाध्यकारी हो गये थे। मौजूदा स्थिति में कोर्इ भी राजनीतिक दल आरटीआर्इ के दायरे में आना नहीं चाहता था। क्योंकि वे औधोगिक घरानों से बेहिसाब चंदा लेते हैं और फिर उनके हित साधक की भूमिका में आ जाते हैं।
मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा और सूचना आयुक्त एमएल शर्मा व अन्नपूर्णा दीक्षित की पूर्ण पीठ ने अपने फैसले में आरटीआर्इ कानून के तहत छह राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था माना था। इनमें कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा शामिल थे। आगे इस फेहरिष्त में अन्य दलों का भी आना तय था। समाजवादी पार्टी, अकाली दल, जनता दल और तृणमूल कांग्रेस जैसे बड़े दल आरटीआर्इ के दायरे से बचे रह गए थे। पीठ ने यह फैसला आरटीआर्इ कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स के प्रमुख अनिल बैरवाल के आवेदनों पर सुनाया था। दरअसल इन कार्यकर्ताओं ने इन छह दलों से उन्हें दान में मिले धन और दानदाताओं के नामों की जानकारी मांगी थी। लेकिन पारदर्शिता पर पर्दा डाले रखने की दृष्टि से सभी दलों ने जानकारी देने से इनकार कर दिया था। अब कैबिनेट ने फैसला लेकर साफ कर दिया है कि उनसे आरटीआर्इ के तहत चंदा संबंधी जानकारी मांगी ही नहीं जा सकती।
अनिल बैरवाल ने तीन सैद्धांतिक बिंदुओं का हवाला देते हुए दलों को आरटीआर्इ के दायरे में लाने की पैरवी की थी। एक, निर्वाचन आयोग में पंजीकृत सभी दलों को केंद्र सरकार की ओर से परोक्ष-अपरोक्ष मदद मिलती है। इनमें आयकर जैसी छूटें और आकाशवाणी व दूरदर्शन पर मुफ्त प्रचार की सुविधाएं शामिल हैं। दलों के कार्यालयों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें भूमि और भवन बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध कराती हैं। ये अप्रत्यक्ष लाभ सरकारी सहायता की श्रेणी में आते हैं। दूसरा सैद्धांतिक बिंदु था कि दल सार्वजनिक कामकाज के निश्पादन से जुड़े हैं। साथ ही उन्हें अधिकार और जवाबदेही से जुड़े संवैधानिक दायित्व प्राप्त हैं, जो आम नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। चूंकि दल निंरतर सार्वजनिक कर्तव्य से जुड़े होते है, इसलिए पारदर्शिता की दृष्टि से जनता के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। लिहाजा पारदर्शिता के साथ राजनीतिक जीवन में कर्तव्य की पवित्रता भी दिखार्इ देनी चाहिए।
तीसरा बिंदु था कि दल सीधे संवैधानिक प्रावधान व कानूनी प्रकि्रयाओं से जुड़े हैं, इसलिए भी उनके अधिकार उनके पालन में जवाबदेही की शर्त अंतनिर्हित है। राजनीतिक दल और गैर सरकारी संगठन होने के बावजूद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से सरकार के अधिकारों व कर्तव्यों को प्रभावित करते हैं, इसलिए उनका हस्तक्षेप कहीं अनावश्यक व दलगत स्वार्थपूर्ति के लिए तो नहीं है, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित होना जरुरी है ? आजकल सभी दलों की राज्य सरकारें सरकारी योजनाओं को स्थानीय स्तर पर अमल में लाने के बहाने जो मेले लगाती हैं, उनकी पृष्ठभूमि में अंतत: दल को शकित संपन्न बनाना ही होता है। इस बहाने सरकारें दलगत राजनीति को ही हवा देती हैं। सरकार, सरकारी अमले पर भीड़ जुटाने का दबाव डालती हैं और संसाधनों का भी दुरुपयोग करती हैं। लिहाजा जरुरी था कि राजनीतिक दल आरटीआर्इ के दायरे में आएं जिससे उनकी बेजा हरकतों पर एक हद तक अंकुश लगता।
राजनीतिक दल भले ही आरटीआर्इ के दायरे में आने से बच रहे हों, किंतु पहले से ही देश के कुछ व्यापारिक घरानों ने दलों को वैधानिक तरीके से चंदा देने का सिलसिला शुरु कर दिया है। डेढ़ साल पहले अनिल बैरवाल के ही संगठन ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी जुटार्इ थी। इस जानकारी से खुलासा हुआ था कि उधोग जगत अपने जन कल्याणकारी न्यासों के खातों से चैक द्वारा चंदा देने लग गए हैं। इस प्रकि्रया से तय हुआ कि उधोगपतियों ने एक सुरक्षित और भरोसे का खेल खेलना शुरु कर दिया है। सबसे ज्यादा चंदा कांग्रेस को मिला है। 2004 से 2011 में कांग्रेस को 2008 करोड़ रुपए मिले, जबकि दूसरे नंबर पर रहने वाली भाजपा को इस अवधि में 995 करोड़ रुपए मिले। इसके बाद बसपा, सपा और राकांपा हैं। अब तक केवल 50 दानदाताओं से जानकारी हासिल हुर्इ है। जिस अनुपात में दलों को चंदा दिया गया है, उससे स्पष्ट होता है कि उधोगपति चंदा देने में चतुरार्इ बरतते हैं। उनका दलीय विचारधारा में विश्वास होने की बजाय दल की ताकत पर दृष्टि होती है। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा की सरकारें रहने के दौरान देश के दिग्गज अरब-खरबपति चंदा देने की होड़ में लगे रहे।
यहां सवाल उठता है कि यदि लोकतंत्र में संसद और विधानसभाओं को गतिशील व लोक-कल्याणकारी बनाए रखने की जो जवाबदेही दलों की होती है, यदि वहीं औधोगिक घरानों, माफिया सरगनाओं और काले व जाली धन के जरिये खुद के हित साधन में लग जाएंगे तो उनकी प्राथमिकताओं में जन-आकांक्षाओं की पूर्ति की बजाय, वे उधोगपतियों के हित संरक्षण में लगी रहेंगी। आर्थिक उदारवाद के पिछले दो दशकों के भीतर कुछ ऐसा ही देखने में आया है। राजनैतिक दल यदि सूचना के दायरे में बने रहते तो आवारा पूंजी उनके खाते में आने से कमोबेश वंचित रहती। इससे चुनावों में फिजूलखर्ची अंकुश लगने की उम्मीद थी। लेकिन अब यह सिलसिला बना रहेगा।
* * * अपन खाते गूदा-गूदा अउ…हमला देथे फोकला !!! * * *
इस विवादित और RTI एक्ट विरोधी कैबिनेट के फैसले ने, लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने वाली संवैधानिक प्रक्रियायों के अस्तित्व और औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा दिया है| इसी सरकार के द्वारा पारित इस कानून के ही प्रावधानों के अनुसार/ सेक्शन के अनुसार …सूचना- आयोग के फैसला के नामंजूर होने पर पीड़ित पक्षकार को “कोर्ट” में रिट दायर करके ,सूचना-आयोग के फैसले को चुनौती देना था…तब कहीं वह कानून-सम्मत तरीका होता | परन्तु इस मामले ने तो “सत्ता” की सीनाजोरी की जो मिसाल दी है … उसने कदाचित समूचे देश के “भविष्य के इतिहास” की अराजक दशा को भी स्पष्ट दिशा दे दी है | आने वाले समय में , एक- एक करके , विभिन्न प्राधिकरण अपने को इस कानून से मुक्त किये जाने के पक्ष में अपनी-अपनी दलीलें भी देंगे | उन तमाम दलीलों को “एक्ट” के अनुसार स्वीकार – अस्वीकार करने वाले “आयोग” की प्रासंगिक-मुद्दे में, राजनितिक पार्टियों ने एक सुर में…गज़ब का ताल मिलाते हुए सरेआम/ घोर अवहेलना की है | अस्वीकृति के विरुद्ध पार्टियों के द्वारा उठाये गए कदम न केवल मौजूदा क़ानून के सरासर विरुद्ध है वरन इस उदाहरण ने कानून बनाने वालों के ही द्वारा, जनभावनाओं के और अपने ही वादों के विपरीत , स्वहित में अपनाये जा सकने वाले ” हथकंडों ” की सारी सीमा पार कर दी है| कई-कई बरस पुराने पड़े बिल , कानून नहीं बन सके , केवल इसलिए की लोकतंत्र में विरोधी या विरोध का भी सम्मानजनक स्थान होता है ,परन्तु प्रासंगिक मुद्दे ने तो , बात-बात में जूते-चप्पल-माइक फेकने वालों को गज़ब की स्पीड में “एक दूजे के लिए” बना दिया | अपनी तनख्वाह-सुविधाएँ और गोपनियता व् सुरक्षा के मामलों में रातो-रात एक हो जाने वाले लोकतंत्र के इस अत्यावश्यक स्तंभ ने, दरअसल केवल सूचना-आयोग के “फुल-बेंच” के आदेश की ही अवहेलना नहीं की है वरन विरोध और अस्वीकृति के अपने इस ” तरीके” से जिस नयी संस्कृति की शुरुआत की है वह “तरीका” लोकतंत्र के अन्य स्तभों के कार्य-संस्कृति, सीमा-रेखा (जो कुछ बचा-खुचा रह गया है ) और उनकी बुनियाद पर भी निश्चित असर डालेगा| और अंत में …..फलों के गूंदा भाग को खा- खाकर उसके फोकला ( छिलका) को सजाकर,हरबार , लोक के हिस्से परोसने वाले कहीं स्वयं भविष्य का इतिहास न बन जाएँ …आमीन!!! –Yogesh Agrawal