और भी हैं बदनसीब जफ़र दफ्न के लिए

आशुतोष शर्मा

अपने देश से मुहब्बत इंसान की प्राकृतिक देन है। हजारों मील दूर रहने के बावजूद वह जन्मभूमि को चाहकर भी भूल नहीं पाता है। चाहे नौकरी की तलाश में अपनी सरजमीं से दूर हो या फिर शरणार्थी के रूप में उसे वतन छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा हो, देश की मिट्टी की खुशबू उसे हर वक्त वतन की याद दिलाती रहती है। इसे आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफ़र के इस शेर से भी इसे समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने रंगून में निर्वासित जीवन बिताते हुए हिंदुस्तान की तड़प को इस शेर के माध्यम से जाहिर किया था ‘कितना है बदनसीब जफ़र दफ्न के लिए, दो ग़ज़ जमीं भी मिल न सकी कूए यार में‘।

दुनिया भर में बसे भारतवंशियों का वतन से दूर रहकर भी मुल्क की में ही मरने की इच्छा किसी से छुपी नहीं है। हर साल होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस में ऐसे कई भारतवंशी हैं जो सम्मेलन में हिस्सा लेने से ज्यादा अपने पूवर्जों की धरती को नमन करने और अपनी जड़ की कड़ी को तलाशने के मकसद से आते हैं। ऐसे लोग अपनी नई पीढ़ी को भी बड़े गर्व के साथ इससे जोड़ते हैं। कुछ ऐसी ही मुहब्बत उन हिंदुस्तानियों की भी है जो एलओसी के दूसरी ओर इस इंतजार में तड़प रहे हैं कि कभी तो उन्हें अपनी धरती की मिट्टी नसीब होगी और आखिरी वक्त उनका हिंदुस्तान में गुजरेगा। 1947 के बटवारे में जो लोग पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का हिस्सा बन गए थे, आज वह उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके हैं। ऐसे अधिकतर आज भी अपने वतन वापस आने के लिए बेकरार हैं। कुछ हिंदुस्तान में आकर सकून पाना चाहते हैं तो किसी की ख्वाहिश इसी मिट्टी में दफन होने की है। 93 वर्षीय अनारा बेगम की उम्र के इस आखिरी पड़ाव में अंतिम इच्छा कुछ और नहीं बल्कि मरने के बाद उसी हिंदुस्तान में दो गज़ जमीं की है जहां उनका जन्म हुआ था। अनारा बेगम बटवारे से पूर्व जम्मु-कश्मी र स्थित पुंछ में पैदा हुईं थीं। परिस्थिति ने ऐसी करवट ली कि 1965 में उन्हें अपने दस साल के बीमार बेटे को छोड़कर पति और तीन बेटियों के साथ पाक अधिकृत कश्मीबर के बाग जिला पलायन करना पड़ा। प्रवासन के 44 वर्ष बाद 9 अप्रैल 2009 को इन्हें पहली बार भारत आने का मौका नसीब हुआ। एलओसी के करीब पुंछ जिला स्थित झूला गांव में रह रहे इन्हें अपने बेटे राशिद से मिलने की प्रबल इच्छा थी जो अब तीन बच्चों का दादा बन चुका है।

हालांकि इन्हें केवल एक माह के लिए ही यहां ठहरने की इजाजत मिली थी लेकिन अनारा बेगम ने भारतीय कोर्ट में एक अपील दायर कर आखिरी सांस तक यहीं रूकने की आज्ञा मांगी। पिछले तीन वर्षों से वह कानूनी लड़ाई लड़ रही हैं और उन्हें उम्मीद है कि उनकी आखिरी इच्छा का सम्मान किया जाएगा। अनारा बेगम कहती हैं कि हालात ऐसे थे कि उन्हें सरहद पार करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। पलायन के वक्त राशिद काफी बीमार था। ऐसे में उन्होंने अपने बेटे को माता-पिता के हवाले कर पति और बेटियों के साथ यह सोंचकर सीमा पार चली गईं कि परिस्थिति ठीक होते ही वह अपने वतन वापस लौट आएंगी। लेकिन वक्त तो जैसे अनारा बेगम पर कहर बनकर टूट रहा था। एलओसी जाने के कुछ ही साल के अंदर कम उम्र में ही एक एक कर उनकी तीनों बेटियों की मौत हो गई। उनके पति ने भी दूसरी शादी कर ली। वक्त गुजरने के साथ साथ सरहद इस पार इनके माता-पिता और हमउम्र भाई बहन भी इस दुनिया से चले गए। जिसकी खबर इन्हें काफी दिनों बाद मिलती थी। तो दूसरी ओर इनके पति और उनकी दूसरी पत्नी की भी मौत हो गई। देखते ही देखते इनका बेटा राशिद बड़ा हो गया और उसकी शादी भी हो गई। लेकिन अनारा बेगम अपने बेटे के सर पर सेहरा सजाने की हसरत लिए पाक अधिकृत कश्मीमर में ही तड़पती रहीं। सरहद पार आने से पहले वह अपने सौतेले बच्चों के साथ जिदगी गुजार रही थीं।

2006 में शुरू हुए पुंछ-रावलाकोट और अप्रैल 2005 में श्रीनगर-मुजफ्फराबाद के बीच शुरू होने वाली कारवां अमन सर्विस का इस्तेमाल करते हुए अनारा बेगम की तरह कई बुजुर्ग पाक अधिकृत कश्मीर से अपने वतन हिंदुस्तान आ चुके हैं और अब यहीं रहना चाहते हैं। हाल के वर्शों में जम्मु कश्मीर उच्च न्यायालय में नागरिकता एक्ट, 1995 की धारा 9 (2) के अंतर्गत कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं जिनमे याचिकाकर्ताओं ने राज्य के किसी भी दूसरे नागरिक की तरह स्वंय के साथ भी बर्ताव करने का अनुरोध किया है। उनका तर्क है कि भारत पाक अधिकृत कश्मीर को देश का ही हिस्सा मानता है ऐसे में वह भी उस क्षेत्र का होने के बावजूद भारत का ही नागरिक कहलाएंगे। अदालत ने अपने अंतरिम फैसले में कई याचिकाकर्ता को यह कहते हुए राहत दी है कि इन्हें उस वक्त तक जबरदस्ती देश से बाहर न भेजा जाए जबतक नागरिकता से संबंधित उनकी अर्जी पर सुनवाई पूरी नहीं हो जाती है। वर्तमान कानून के अंतर्गत एलओसी के दोनों ओर के नागरिकों को एक विशेष प्रार्थनापत्र के बाद एक कुछ समय के लिए सरहद पार रहने की इजाजत दी जाती है। इस संबंध में जम्मु बार ऐसोसिएशन के उपाध्यक्ष और वरिश्ठ वकील मोहम्मद उस्मान सालारिया का तर्क है कि ऐसे मामले को इंसानी नजरीए से हल करने की जरूरत है क्योंकि ऐसी इच्छा रखने वाले अधिकतर बुजुर्ग हैं जिनकी आखिरी ख्वाहिश का सम्मान किया जाना चाहिए। बटवारे के समय परिस्थिती ने इन्हें अपनी सरजमीं से दूर किया था। लेकिन आज इनका वहां कोई नहीं है। जो उम्र के इस पड़ाव में इनकी देखभाल करे। दूसरी ओर पाक अधिकृत कश्मीकर के बिगड़ते हालात भी उन्हें पलायन करने पर मजबूर कर रही है। उस्मान सालारिया अबतक ऐसे 8 याचिकाकर्ताओं की उच्च न्यायालय में पैरवी कर चुके हैं। अपने जिरह में मोहम्मद उस्मान भारत सरकार के पाक अधिकृत कश्मीर को देश का हिस्सा मानने को ही अपना तर्क बनाते हैं। उनका कहना है कि भारतीय वोटर लिस्ट और राशन कार्ड में नाम देखकर भी उनके भारतीय होने का पता लगाया जा सकता है।

इस तरह की राज्य में अबतक कितनी याचिकाएं दाखिल की गई हैं इसका कोई स्पष्ट रिकार्ड मौजूद नहीं है। ऐसी याचिकाओं की बढ़ती संख्या के बाद उच्च न्यायालय ने इनसे संबंधित सभी याचिकाओं को एकसाथ जोड़ने का आदेश दिया है। इसके साथ ही न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकार से भी हलफनामा दाखिल रूख स्पष्टी करने को कहा है। दूसरी ओर गुलाम मोहम्मद और काजी इल्मुद्दीन जैसे कुछ ऐसे भी बुजुर्ग हैं जिनकी भारतीय सरजमीं में दफन होने की इच्छा सिर्फ इसलिए पूरी हो गई क्योंकि किसी भी तरह का फैसला आने से पहले ही उनकी मौत हो चुकी है। गुलाम मोहम्मद 2007 में एलओसी से पुंछ आए थे और 2008 में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई थी। काजी इल्मुद्दीन भी ऐसे ही खुशकिस्मत हैं जो अपनी मातृभूमि की गोद में हमेशा हमेशा के लिए समा गए हैं। वह 2008 में पुंछ स्थित अपने गांव राजपूरा आए थे और केस की सुनवाई के बीच में ही उनकी मृत्यु हो गई है। बहरहाल इस संबंध में अभी न्यायालय का फैसला आना बाकी है। लेकिन इतना तो तय है कि अनारा बेगम जैसे बुजुर्ग जो अपने वतन वापसी की चाहत रखते हैं, उनकी आखिरी ख्वाहिश का सम्मान किसी भी सरहद और कानून से उंचा होना चाहिए। आवश्यकता है इस संबंध में दोनों ही देशों की सरकारों को किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने की ताकि इंसानी रिश्तों के बीच रोड़ा बनने वाली सभी सीमाएं हमेशा के लिए छोटी पड़ जाएं। (चरखा फीचर्स)

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