अरुणाचल प्रदेश की जनता के लिए ये सौभाग्य का विषय है या दुर्भाग्य का कि करोड़ों रूपये चुनावों में खर्च करने वाले राजनैतिक दलों में जनता की सेवा की तत्परता देखते ही बन रही है।
ईटानगर की यह सेवाभाव की लड़ाई जब दिल्ली सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो पांच जजों वाली पीठ ने कहा कि “लोकतन्त्र के हत्या हो रही है तो मूकदर्शक नही रह सकते”
मामला अरुणाचल प्रदेश के राजनैतिक और सवैंधानिक संकट का है 60 विधायकों वाली विधानसभा में 42 विधायकों के साथ कांग्रेस के नबाम टुकी मुख्यमंत्री थे। लेकिन अचानक 42 में से 21 सदस्य नाराज होकर 11 बीजेपी और 2 निर्दलीय विधायको के साथ मिलकर विधानसभा के अध्यक्ष नबाम रेबिया के खिलाफ महाभियोग लाकर उनको हटा दिया। हालाँकि ये शोध का विषय है कि 21 सदस्य जनता की सेवा न होने से नाराज थे या खुद का विकास न होने से नाराज थे। समझ नही आता कि जिस देश के सरकारी अस्पतालों में बिना रिश्वत के मरीज के पलंग के निचे झाड़ू नही लगती क्या उस देश में चुनावों में करोड़ो रूपये खर्च करने वाले व्यवसायिक लोग बिना किसी लालच के अपना घर छोड़े होंगे।
असम बीजेपी के पूर्व महासचिव और वर्तमान में अरुणाचल के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा की इस सवैंधानिक संकट को पैदा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने गत वर्ष दिसम्बर में बिना सरकार की अनुशंसा के विधानसभा सत्र को बढ़ाने का आदेश दिया था।
इस संकट को देखते हुए केंद्र सरकार की सिफारिश पर माननीय राष्ट्रपति ने गणतन्त्र दिवस की संध्या पर राष्ट्रपति शासन लगा दिया।
नई सरकार के गठन के बाद जिस तरह से पुराने राज्यपालों को हटाकर अपने नेताओं को राज्यपाल बनाया गया था जिसके बाद कई गैर बीजेपी शासित राज्यों में राज्यपालों के माध्यम से केंद्र सरकार ने उन राज्य सरकारों के कामकाज में दखल देने के तमाम प्रयत्न किये है।
नजीब जंग के माध्यम से केजरीवाल सरकार के कामकाज में अवरोध भी इसकी ताजा बानगी है। पूर्व बीजेपी के नेता जो अब राज्यपाल है का केंद्र सरकार या बीजेपी चुनाव प्रचार के लिए भी प्रयोग कर रही है नागालैंड के राज्यपाल पी वी आचर्य का विवादित बयान इसी और इशारा करता है।
राज्यपालों की नियुक्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की भी कई गाइडलाइन है पर कोई भी सरकार उन्हें मानने को तैयार नही है बल्कि राज्यपालों का इस्तेमाल विपक्षी पार्टी की राज्य सरकारों में खलल डालने के लिए किया जाता रहा है। राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है उस पद पर राजनैतिक लोगो की नियुक्ति के बजाय साहित्यकारों, लेखकों, कवियों, पत्रकारो, वेज्ञानिको, सेवानिवृत न्यायधीशों और अधिकारीयों और समाजसेवी लोगों को नियुक्त किया जाये तो अरुणाचल जैसे संकट बन्द हो जायेंगे।
जगजाहिर है कि अरुणाचल प्रदेश में इतना बड़ा संकट बिना खरीद फरोख्त के नही आया होगा इससे पहले भी दिल्ली में विधायकों को खरीदने की तमाम कोशिशे की गई थी पर वे सफल नही हो पाये।
21 फरवरी 1998 में भी एक ऐसा ही वाक्या उत्तर प्रदेश देखने को मिला था जब जगदम्बिका पाल ने अपनी ही पार्टी से बगावत करके तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा पर जगदम्बिका पाल बहुमत सिध्द नही कर पाये और न्यायालय ने उससे पूर्व मुख्यमंत्री का दर्जा भी छिन लिया था इस पुरे मामले में भी राज्यपाल की भूमिका संदिग्ध थी। पाल उस समय कांग्रेस में चले गए थे पर कहते है कि दुनिया गोल ही नही बहुत छोटी भी है इसलिए उनकी घर वापसी हो गई है।
दल बदल कानून 1985 में सविंधान में 52वां संशोधन करके बनाया गया है जिसके अनुसार अगर कोई सदस्य उस पार्टी को छोड़कर जाता है जिस पार्टी के चुनाव चिन्ह के साथ उसने चुनाव जीता है तो उसकी सदस्यता समाप्त मानी जायेगी पर अगर छोड़कर जाने वाले सदस्यों की संख्या एक तिहाई हो तो यह नियम लागु नही होता।
हम सविंधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष मना रहे है पर देश में ऐसी अनेक घटनाएं देखने को मिलती जिनमे लोकतन्त्र की हत्या की जा रही है।
विरोधी पार्टियो को पानी पी पीकर कोसने वाले लोग कैसे पलभर में उस पार्टी की तमाम गलतियों को भुलाकर अपनी पूर्व पार्टी के खिलाफ बोलने लगते है इससे ये ही कहा जा सकता है कि दल बदलने वाले लोग कितने जल्दी लालच में आकर दिल भी बदल लेते है।
सूरज कुमार बैरवा
हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय जयपुर