वैश्विक नेता के रुप में उभरते मोदी

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प्रमोद भार्गव

 

एक के बाद एक ऐशियाई व पश्चिमी देशों की यात्राओं में मिली अप्रत्याशीत सफलताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वैश्विक नेता के रुप में उभार दिया है। द्विपक्षीय रिश्तों में वे इसी तरह जान डालते रहे तो भविष्य में विश्व-मंच के मोदी ही प्रमुख नेता व सूत्रधार होंगे। इन सभी यात्राओं की खास बात यह रही कि हिंदी में भाषण देने के बावजूद राष्ट्रिय ही नहीं, अंतराष्ट्रिय मीडिया में भी मोदी का जादू सिर चढ़कर बोलता रहा है। पिछले कुछ दशकों में ऐसा माहौल भारतीय प्रधानमंत्री तो क्या अन्य किसी देश के मुखिया के विदेशी दौरों में दिखाई नहीं दिया है। उनके इस जादू के असर का प्रमुख कारण स्पष्टवादिता और दृढ़ता है। मोदी के इसी आचरण के कारण ब्रिट्रेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरेन उनके प्रशंसकों की सूची में शामिल हो गए हैं। अपने पक्ष में मिल रहे विश्वव्यापी समर्थन को देखते हुए ही, मोदी ने फिजी में कह भी दिया कि ‘भारत विश्व गुरु की भूमिका निभाएगा और अपनी ज्ञानशक्ति से विश्व का नेतृत्व करेगा।’ दरअसल भविष्य का राजनीतिक नेतृत्व ज्ञान आधारित नेतृत्व पर ही टिका होगा, यह संभावना अमेरिका और ब्रिटेन भी जता चुके हैं।

भूटान, ब्राजील, नेपाल, जापान और अमेरिका दौरे के बाद नरेंद्र मोदी म्यांमार, आस्ट्रेलिया एवं फिजी का दस दिनी दौरा खत्म कर स्वदेश लौट आए हैं। यही नहीं मोदी ने प्रशांत महासागर के लघु द्वीपों में स्थित 13 अन्य छोटे देशों के राष्ट्राध्यक्षों से भी मुलाकात व द्विपक्षीय वार्ताएं कीं। इन राष्ट्राध्यक्षों की संख्या 40 है। मोदी ने फिजी समेत इन सभी 14 देशों के नागरिकों को भारत में बीसा के साथ आगमन की स्वतंत्रता दी है। मसलन पर्यटक के यात्रा समय के बंधन से मुक्त रहेंगे। उन्हें रोजाना संबंधित थाने में हाजिरी भी दर्ज नहीं करानी होगी। लघु निवेश को बढ़ावा देने की यह तरकीब बहतरीन नुस्खा है। जाहिर है, सत्ता संभालने के महज छह माह के भीतर ही मोदी ने विदेश नीति के स्तर पर अहम् कामयाबी हासिल कर ली है। इन पहलुओं का रचनात्मक पक्ष यह भी है कि इन देशों में भारतीय मूल के जो लोग रह रहे हैं, उनसे कालांतर में भारत को कूटनीतिक लाभ और विदेशी पूंजी का निवेश मिलने लग जाएगा। क्योंकि इन लोगों में मोदी के नेतृत्व के प्रति भरोसा जगा है।

राष्ट्राध्यक्षों की विदेश यात्राओं के दौरान यह घटना विलक्षण ही होती है कि कोई मेजबान देश अतिथि प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को अपने देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद में बोलने का अवसर दे ? लेकिन मोदी ने नेपाल, भूटान और फिजी की संसदों को तो संबोधित किया ही, विकसित देश आस्ट्रेलिया की संसद को संबोधित करने का मौका उन्हें दिया गया। इस तरह किसी पश्चिमी देश की संसद को संबोधित करने वाले मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री बन गए हैं। आस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान प्रवासी भारतीयों ने तो मोदी का गर्मजोशी से स्वागत अलफाॅन्स एरीना स्टेडियम में किया ही, वहां के प्रधानमंत्री टोनी एबाॅट भी रिश्तों को पुख्ता करने में अतिरिक्त उत्साहित दिखे। इसी उमंग के चलते रक्षा समेत कई क्षेत्रों में परस्पर संबंध मतबूत होने के रास्त खुले हैं। दोनों देशों के बीच,, सामाजिक सुरक्षा, कैदियों की अदला-बदली, नशीले पदार्थों की तस्करी पर प्रतिबंध के अलावा संस्कृति-कला व पर्यटन में बढ़ावा देने वाले समझौतों पर दस्तखत हुए हैं। बावजूद यूरेनियम की खरीद और द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने वाले मसले अटक गए हैं। जबकि टोनी एबाॅट इसी साल सिंतबर में जब भारत-यात्रा पर आए थे, तब असैन्य परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हो गए थे। दरअसल यह पेच इसलिए फंसा हुआ है, क्योंकि 2009 में भारत और आस्ट्रेलिया ने अपने संबंधों को रणनीतिक मसलन सटेजिक स्वरुप प्रदान किया था, लेकिन इस शब्द की व्याख्या अभी तक स्पष्ट नहीं हुई है। इस वजह से करार पर दस्तखत हो चुकने बाद भी प्रश्न का हल संभव नहीं हुआ है। परस्पर व्यापार – वृद्धि का मसला इसलिए भी अटका है, क्योंकि नरेंद्र मोदी से मुलाकात के ठीक पहले टोनी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से दोहरी वार्ता समाप्त कर करार कर चुके थे। मुक्त व्यापार का यह करार करीब 150 अरब डाॅलर सालाना है। जबकि भारत और आस्ट्रेलिया के बीच यह व्यापार महज 15 अरब डाॅलर प्रति वर्ष है। अब यदि टोनी भारत से वस्तुओं के आयात को बढ़ावा देते हैं तो चीनी आयात को कम करना होगा ? यह ऐसा सवाल है, जो व्यापार के क्षेत्र में द्विपक्षीय वार्ता कर रहे देशों के बीच हमेशा जीवंत बना रहता है। आस्ट्रेलिया के अलावा भारत, अमेरिका, चीन और जापान के साथ भी इसी चुनौती का सामना कर रहा है। बावजूद मोदी के नेतृत्व और कार्य-संस्कृति में खुलेपन का सभी लोहा मान रहे हैं।

मोदी के नेतृत्व का लोहा मानने की पुष्टि इसी यात्रा के दौरान ब्रिस्वेन में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में हुई है। विकसित और विकासशील देशों के इस संयुक्त संगठन ने ब्रिस्वेन घोषणा-पत्र जारी किया है। इसमें कालाधन के मुद्दे को मोदी की मांग पर ही शामिल किया गया है। यह कम बात नहीं है कि पहली बार दुनिया के प्रमुख शक्तिशाली नेताओं नेता सीमा पार कर चोरी को रोकने के उद्देष्य से वर्ष 2017 या 2018 के अंत तक सूचनाओं के स्वतः आदान-प्रदान पर सहमत हो गए हैं। इतनी पुरजोरी से न तो किसी वैश्विक मंच पर कालेधन का मुद्दा उठाया गया और न ही इतने बड़े स्तर पर कालेधन पर प्रतिबंध की मांग को स्वीकार्यता मिली। जाहिर है, विश्व स्तर पर मोदी कूटनीति के चतुर खिलाड़ी साबित हो रहे हैं।

मोदी की चतुरता प्रवासी भारतीयों को लुभाने में भी पेश आ रही है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और फिजी में इस संभावना की पुष्टि हो चुकी है। इससे पहले देश का कोई प्रधानमंत्री अपने ही रक्त संबंधियों की भावनाओं को इस तरह सम्मोहित नहीं कर पाया ? आस्ट्रेलिया में 28 साल बाद तो फिजी में 33 साल बाद भारत का कोई प्रधानमंत्री दुख – दर्द बांटने पहुंचा है। मोदी के पहले राजीव गांधी और इसके पहले इंदिरा गांधी फिजी गए थे। फिजी में 40 प्रतिषत भारतीय मूल के लोगों की आबादी है। इनमें से ज्यादातर ब्रिटिश शासनकाल 1879 से 1916 के बीच गिरमिटिया मजदूरों के रुप में ले जाए गए थे। फिजी की 83 फीसदी अर्थव्यवस्था वन संपदा, मछली और पर्यटन उद्योग पर टिकी है। लेकिन विडंबना यह है कि इस उद्योग के बड़े भाग पर वर्चस्व महज दो फीसदी गोरी आबादी का है। बावजूद फिजी की राजनीति में भारतवंशियों का दबदबा कायम है। 1997 में फिजी में जब लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो उसके प्रधानमंत्री भारतवंशी महेंन्द्र सिंह चौधरी बने। फिजी में भारतीयों की अब राजनीति के साथ-साथ आर्थिक हैसियत भी बढ़ रही है। इसीलिए मोदी को फिजी की संसद को संबोधित करने का अवसर मिला है। फिजी भारत के निकटता अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत और हिंदी के कारण है। वहां हिंदी खूब पढ़ी व बोली जाती है। फिजी विश्व हिंदी सम्मेलन भी आयोजित कर चुका है। इंदिरा गांधी ने भी फिजीवासियों के इस मर्म को समझा था। इस कारण वे भी फिजी गई थीं और उन्होंने द्विपक्षीय वार्ता में फिजी को महत्व दिया था। मोदी ने अब फिजी में कृषि व दुग्ध उद्योग के क्षेत्र में बढ़ावे का करार किया है। डिजीटल क्षेत्र में भी भारत फिजी की मदद करेगा। लेकिन यहां यह तथ्य भी ध्यान रखने की जरुरत है कि फिजीवासी भी निजी स्तर पर अपने पूर्वजों की मातृभूमि में पूंजी निवेश को उत्सुक हैं। प्रवासी भारतीय हर साल अपने नाते-रिश्तेदारों को 70 अरब डाॅलर भारत भेजते हैं। मोदी की निगाहें प्रवासी भारतीयों के इस निवेश को और बढ़ाने पर भी टिकी हैं। चूंकि ज्यादातर प्रवासी भारतीय गरीबी की हालत में अपने साथ धरोहर के रुप में गीता और रामायण ले गए थे और मोदी इसी सांस्कृतिक विरासत को लेकर दुनिया के देशों की यात्रा कर रहे हैं, इसलिए दुनिया भारतीयों के बीच मोदी लोकप्रिय हो रहे हैं। मोदी की यहीं लोकप्रियता उन्हें वैश्विक नेता के रुप में स्थापित करने का काम करेगी।

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