“यथा राजा तथा प्रजा”

0
407

-आलोक कुमार-    Communal Politics1

राजनीति में सुधार के लिए नागरिकों को कर्तव्य-अधिकार और संवैधानिक व्यवस्था की जानकारी जरूरी है। किसी भी प्रणाली या व्यवस्था में सुधार की बात करने से पूर्व हमें उन समस्याओं पर भी विचार करना आवश्यक है, जिनके कारण तंत्र रोगग्रस्त होता है। संसदीय लोकतंत्र प्रणाली में चुनाव का ही महत्व है। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही जनता के लिए क़ानून बनाते हैं और संवैधानिक व्यवस्थाओं को क्रियान्वित करने का कार्य करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि लोकतंत्र “जनता का,जनता के द्वारा और जनता केलिए” शासन होता है। लेकिन वर्तमान संसदीय लोकतंत्र के परिवेश में ठीक इस के विपरीत हो रहा है।

जनप्रतिनिधि सुशिक्षित, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, देशहित को प्रधानता प्रदान करने वाले, प्रगतिशील तथा कर्मठ हों तो देशवासी सुखी, समृद्ध, स्वस्थ होंगे और देश भी विश्व में सर्वोच्च शिखर पर होगा। इसके सर्वथा विपरीत निर्वाचित प्रतिनिधि अनपढ़, अपराधी, माफिया, देश-द्रोही और देश का सौदा करने वाले होंगे तो नागरिक ही समस्त दुष्परिणाम भुगतेंगे और स्वाभाविक रूप से देश रसातल में चला जाएगा। लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था में निर्वाचित प्रतिनिधियों के जनहित में न होने पर भी उनको पांच वर्ष तक हर स्थिति में सहन करना ही होता है। पांच वर्ष का समय किसी भी देश को पतनोन्मुख बनाने हेतु कम नहीं होता।

अशिक्षित अंगूठा छाप लोगों को संसद, विधायिकाओं में भेजने और महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपने से पूर्व उनके लिए शिक्षित होना और शिक्षित होने पर भी उनको विधिवत प्रशिक्षण दिया जाना अनिवार्य होना चाहिए, भले ही इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़े। चुनाव लड़ने से पूर्व सभी प्रत्याशियों का अपनी आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाना और प्रतिवर्ष प्रत्याशी और उसके परिजनों की आय-व्यय की पूर्ण, प्रभावी और प्रमाणिक जांच की व्यवस्था किये बिना राजनीति से भ्रष्टाचार दूर होने की कोई संभावना नहीं हो सकती। मेरे विचार से उनकी किसी पद पर रहने की अवधि पूर्ण होने पर भी उनकी जांच समय – समय पर होनी चाहिए।

दल -बदल क़ानून को संशोधित कर कठोरतम बनाये बिना सांसदों और विधायकों की खरीद फरोख्त पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार निर्दलियों के चुनाव लड़ने और बिकने पर कठोरतम नियम होना चाहिए क्योंकि आवश्यकता के अनुरूप उनकेभाव चढ़ते जाते हैं, परिणामस्वरूप जनता द्वारा अमान्य और अस्वीकृत प्रतिनिधि उनके साथ मिलकर ही सरकार बनाकर स्वेच्छाचारी बन जनता को रुलाते हैं। राईट टू रीकॉल और राईट टू रिजेक्ट लागू करना भी तभी उपयोगी हो सकता है ,जब जनता शिक्षित हो,अन्यथा तो इस व्यवस्था का दुरूपयोग होगा और राजनीतिक दल जनता को मूर्ख बनाते हुए अव्यवस्था बनाये रखेंगे।

दुर्भाग्यजनक स्थिति तो यह है कि आम नागरिक अव्यवस्थाओं, दैनिक समस्याओं, भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध त्राहि-त्राहि तो करता है, परन्तु स्वयं उस व्यवस्था को चुनौती देने में समर्थ होते हुए चूक जाता है, कोई भी हितकारी या सकारात्मक कदम नहीं उठा पाता। इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए मेरी दृष्टि में जो तथ्य सामने आते हैं, उनमें प्रमुख हैं:

नागरिक को देश की संवैधानिक व्यवस्था की जानकारी न होना।

पढ़े लिखे वर्ग को भी हमारी संवैधानिक व्यवस्था की पूर्ण जानकारी नहीं है। उदाहरणार्थ बहुमत दल किस प्रकार सरकार बनाएगा, वोट न देने से क्या हानि है, लोकसभा के चुनाव से या विधान सभा के चुनाव के पश्चात देश और प्रदेश पर क्या प्रभाव पड़ता है इत्यादि। कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ लोगों की तो बात ही छोड़ दी जाय। शिक्षित वर्ग की भी ये बहुत बड़ी विडंबना है कि पूर्ण ज्ञान न होने पर किसी से जानकारी लेना उसको अपमानजनक लगता है। सब ( देश की जनता ) इसी व्याधि से ग्रस्त हैं। अशिक्षित जन या अर्ध-शिक्षित को तो बस इतना ही ज्ञात होता है कि चुनाव होने हैं, कौन से चुनाव हैं, इनसे क्या लाभ- हानि होगी कुछ पता नहीं होता। आज भी ऐसे मतदाताओं की ही अधिकता है, जो जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद तथा अन्य क्षुद्र लाभों से प्रभावित हो कर वोट देते हैं। महिलाओं और बच्चों कोतो आदेश का पालन करते हुए उसी प्रत्याशी को वोट देना होता है, जिसको घर के पुरुष या अभिभावक पसंद करते हैं। अतः मेरा मानना यही है कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के लिए सर्वप्रथम आवश्यक और महत्वपूर्ण है आम लोगों को देश की संवैधानिकप्रणाली से परिचित कराना। इसके लिए सरकारी रूप से तथा राजनीतिक दलों की ओर से भागीरथ प्रयास किए बिना वांछित परिणाम कभी नहीं आ सकते और देश का उद्धार नहीं हो सकता।

हम बात तो करते हैं कि व्यस्क मताधिकार की परन्तु ये विचार कभी नहीं किया जाता कि नागरिक कर्तव्यों या अधिकारों और संवैधानिक व्यवस्था के ज्ञान के अभाव में सब व्यर्थ है और ये बहुत बड़ी विडंबना है देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए। ये ज्ञान तो सबको ही दिया जाना आवश्यक है, आप अपने आम परिचितों, मित्र-मंडली में चर्चा करके देखिये तो ये अनुभव आपको स्वयं ही हो जाएगा। अपराधी, माफिया आदि के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना भी मेरे विचार से किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य होना चाहिए। जब तक इन लोगों का विधायिका के अंगों, संसद के सदनों और स्थानीय प्रशासन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध नहीं होगा देश की राजनीति में सुधार की आशा करना ही बेमानी है।

नैतिकता स्वयं में एक बहुत ही पावन शब्द है, परन्तु वर्तमान राजनीति में नैतिकता की बात करना दिवास्वप्न देखना है। राजनीति का अर्थ ही राज की नीति है और राजनीति में “साम-दाम, दंड-भेद” सब सम्मिलित है। राजनीति के प्रकांड पंडित चाणक्य ऩे भी भारतको अखंड साम्राज्य बनाने के लिए इसी सूत्र को अपनाया था, शिवाजी, भगवान श्रीकृष्ण सभी को राजनीति के इन महामंत्रों को अपनाना पडा था। अपितु स्मरणीय है की ये सब सूत्र देश धर्म की रक्षार्थ अपनाए गये थे। परन्तु आज स्थिति इस के विपरीत है। आज देशको इन महानायकों जैसे ही भारत निर्माताओं की आवश्यकता है। जनता तो स्वयं ही शासकों की अनुगामी होगी क्योंकि “यथा राजा तथा प्रजा”।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here