अब सारे कार्यों के लिए लोग राज्य की ओर टकटकी लगाये रहकर देखते रहते हैं। अधिकार प्रेमी लोग प्रमादी होते हैं और कम्युनिस्टों ने ऐसे ही समाज का निर्माण किया है। जबकि भारत की आश्रम-व्यवस्था का तो शाब्दिक अर्थ भी आश्रम=श्रम से परिपूर्ण है। ब्रहमचर्याश्रम में विद्याध्ययन का श्रम है, गृहस्थ में गृहस्थी को चलाने का श्रम हैं, वानप्रस्थ में पुन: खोयी हुई शक्ति को प्राप्त करने का श्रम है तो संन्यास आश्रम में अर्जित ज्ञान को पुन: समाज के लिए बाँटने का श्रम है। अकर्मण्य कोई नहीं है। इसलिए वेद ने कहा कि-‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समा नर:।’’
अर्थात् मनुष्य को कर्मशील और कर्तव्यशील बने रहकर ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। नागरिक विषयों में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम तभी होगा जब नागरिक स्वभावत: कर्तव्य परायण होंगे, कर्मशील होंगे और एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रखते होंगे। वानप्रस्थाश्रम में व्यक्ति पुन: सद्शास्त्रों का अध्ययन कर वनों में जाकर तपस्यादि करता था जिससे कि गृहस्थ में रहते हुए यदि कहीं कोई भूल हो गयी हो तो उसे सुधारा जा सके। आजकल भी हम यज्ञ करते समय स्विष्टकृताहुति देते हैं। यज्ञ के मध्य आहुति देने का प्रयोजन भी भारत के वानप्रस्थाश्रम की परंपरा का पावन स्मरण करना ही है। समय रहते हुए अपने दोषों का शोधन कर लेना, या प्रायश्चित कर लेना ही उत्तम है, चलते समय दोषों को स्वीकार करने से कुछ नहीं होगा। घर में भी समय रहते दोष स्वीकार करने की परंपरा से ही घर का परिवेश अच्छा रह पाता है, इससे संसार में अपरिग्रह का समन्वयवादी परिवेश स्थापित होता है। भारत के साम्यवाद की इस अनूठी और महान परंपरा को कम्युनिस्ट तनिक भी नहीं समझ पाए हैं।
अब भारत के संन्यासाश्रम की ओर आते हैं। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं-इस भावना को हम संन्यास में देखते हैं। इस आश्रम में लगा शब्द ‘न्यास’ अंग्रेजी के ‘ट्रस्ट’ का पर्यायवाची ‘ट्रस्ट’ है। स्पष्ट है कि संन्यासी व्यक्ति एक ‘ट्रस्टी’ है, वह संसार को और संसार के पदार्थों को अब एक ट्रस्टी अर्थात् न्यासी के रूप में ही देखता है। वह उनमें रमता नहीं है। वह पूर्णत: अपरिग्रहवादी हो चुका है। संसार के पदार्थों को वह संसार के लिए छोड़ रहा है। अंग्रेजी के ट्रस्ट शब्द का एक अर्थ विश्वास भी है। इसलिए संन्यासी व्यक्ति का सभी विश्वास करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई संन्यासी व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों को और अध्यात्म के अनुभवों को समाज में बाँट रहा है, या वह कुछ भी बता रहा है, तो उसे लोग मानते हैं। स्वीकार करते हैं। सोचते हैं कि वह जो कुछ भी कह रहा है या बता रहा है वह हमारे भले के लिए बता रहा है। इस प्रकार भारत की प्राचीन आश्रम व्यवस्था पूर्णरूपेण लोक कल्याण पर आधारित थी और लोक कल्याण ही भारत का साम्यवाद था। हर
व्यक्ति हर स्थान पर खड़ा होकर मानो लोक कल्याण की माला भजता था। सोचता था कि इस लोक कल्याण के महान् यज्ञ में मेरी आहुति या उपयोगिता क्या हो सकती है? यही स्थिति भारत की वर्ण-व्यवस्था की थी। वर्ण-व्यवस्था में भी व्यक्ति लोक कल्याण के लिए समर्पित रहता था। भारत ने व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की तो खोज की ही, साथ ही समाज के मूलभूत शत्रुओं की भी खोज की। समाज की मूलभूत आवश्यकता ज्ञान है तो अज्ञान भी व्यक्ति का पहला शत्रु हो जाना स्वाभाविक ही है।
इस वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत चार वर्णों में मानव समाज को बाँटा गया था जैसी जिसकी प्रतिभा और जैसी जिसकी योग्यता वैसा ही उसका वर्ण हो जाता था। अज्ञान अंधकार को मिटाने वाले लोग और समाज को अपने ज्ञानबल से मार्गदर्शन देने वाले लोग ब्राह्मण कहलाते थे। ये व्यक्ति के अज्ञान रूपी शत्रु से लडऩे वाले योद्धा होते थे। इनका पूरा जीवन मानव समाज से अज्ञान को मिटाने के लिए संघर्ष करता था।
दूसरा शत्रु अन्याय था। समाज में सबल निर्बल का शोषण करता है, उस पर अन्याय करता है। जिससे समाज की गति क्षरणावस्था को प्राप्त होने लगती है। उस क्षरण की अवस्था से त्राण करता था क्षत्रिय समाज। इसीलिए उसे क्षत्रिय कहते हैं। समाज में कहीं भी अन्याय ना हो शोषण ना हो, अत्याचार ना हो, इस पूरी की पूरी व्यवस्था को देखता था क्षत्रिय वर्ग, पूरी तरह सावधान और सजग रहकर वह समाज का पहरा देता था।
अब आते हैं हम तीसरे शत्रु अर्थात् अभाव पर। भोजन, वस्त्र और आवास की सुविधा देना और उसके सारे संसाधन विकसित करना फिर उनका उचित वितरण करना:-ये सारी व्यवस्था देखता था समाज का वैश्यवर्ग। इस वर्ग के द्वारा भी समाज की बहुत बड़ी सेवा की जाती थी, अब जो लोग स्वयं को अज्ञान, अन्याय और अभाव तीनों में से किसी से भी लडऩे में अक्षम और असमर्थ पाते थे या समझते थे उनका काम समाज की सेवा करना होता था।
वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म था। कर्म परिवर्तन से वर्ण परिवर्तन स्वयं हो जाता था। शूद्र का बच्चा कर्म से ब्राह्मण और ब्राह्मण का बच्चा कर्म से शूद्र हो सकता था। समाज की व्यवस्था में जो जहाँ खड़ा होकर सेवा कर सकता था, या जो जहाँ के लिए उपयुक्त था वह उसी वर्ण का व्यक्ति कहलाता था। आरक्षण का पचड़ा नहीं था। सबका लक्ष्य सामूहिक उत्कर्ष था। किसी को पीछे छोडऩा उद्देश्य नहीं था। यही था वास्तविक साम्यवाद। आज भी हम इसी वर्ण व्यवस्था को देखते हैं सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी शूद्र ही हैं। व्यवस्था तो भारत की अपना रखी है और गुण विदेशों के गाते हैं-यह कैसी राष्ट्रभक्ति है? उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि हिंदुत्व (आर्यत्व) एक जीवन-व्यवस्था है। इस जीवन-व्यवस्था या जीवन प्रणाली को
हिन्दूवादी संगठन अपनाकर चलते हैं, या उसे भारत की वर्तमान समस्याओं का एक मात्र समाधान मानते हैं तो इसमें साम्प्रदायिकता कहाँ से आ घुसी? इस जीवन व्यवस्था को अपना जीवनादर्श घोषित कर आगे बढऩे के लिए वेद ने मानव समाज को आदेशित किया कि-‘‘सं गच्छध्वं सं वद ध्वं सं वो मनांसि जानताम।’’ अर्थात् तुम्हारी चाल एक जैसी हो, तुम्हारी वाणी एक जैसी हो तथा तुम्हारे मन एक जैसे हों। मन का अभिप्राय यहाँ संकल्पों से है। कहने का अभिप्राय है कि लोक कल्याण की उत्कृष्ट भावना से व्यक्ति व्यक्ति रोमांचित हो उठे, उससे झूम उठे तो सारी वसुधा को आर्य बनाने में तथा एक परिवार बनाने में देर नहीं लगेगी। कम्युनिस्टों के लिए आवश्यक है कि वे भारत को समझें तथा भारत की संस्कृति को अपनाकर संसार को सुसंस्कृत बनाने का प्रयास करें।