असम हिंसा : दहशत की नर्इ इबारत

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प्रमोद भार्गव

यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि असम हिंसा का लगातार विस्तार हो रहा है। मोबाइल व इंटरनेट तकनीक के जरीए दहशत फैलाने की नर्इ तरकीब र्इजाद कर ली गर्इ है। भय के इन संदेशो से पूर्वोत्तर राज्यों के पुणे, बैंगलोर, हैदराबाद, और मुंबर्इ में रहने वाले छात्र व आर्इटी कंपनियों में नौकरीपैषा पलायन को मजबूर हो गए। विशेष व सामान्य रेलगाडि़यो के जरिए दो दिन के भीतर ही करीब दस हजार लोग अपने मूल निवास स्थानो की ओर रवाना हो गए। केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम आष्वासनों के बावजूद पलायन थम नहीं रहा है। जाहिर है राष्ट्र और राज्य दोंनो ही विश्वास पैदा करने में नाकाम साबित हो रहे है। हमारे यहां ऐसा तो अकसर होता रहा है कि एक राज्य की हिंसा दूसरे राज्यों में प्रतिहिंसा का कारण बनती रही है। लेकिन शायद यह पहला अवसर है जब असम हिंसा के प्रतिफलस्वरूप पूर्वोत्तर के जो लोग अन्य राज्यों में रह रहे हैं वे अपने रोजी रोटी और पढ़ार्इ लिखार्इ जोखिम में डालकर पलायन को उठ खड़े हुए हों। ये हालात देश की मूल अवधारणा अनेकता में एकता के लिए खतरनाक हैं।

संसद में कही लालकृष्ण आडवाणी की इस बात में दम था कि असम हिंसा की समस्या को हिंदु और मुसिलम समस्या के तौर पर न देखते हुए इसे देशी और विदेशी नजरिए से देखा जाना चाहिए। लेकिन वोट बैंक और मुसिलम तृशिटकरण की राजनीति के चलते कांग्रेस इसे हमेशा नजरअंदाज करती रही। केंद्र में जब अटल बिहारी वाजनेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार सत्ता में थी और खुद आडवाणी गृंहमंत्री थे, तब उनके भी इस मुददे पर नतीजे ढाक के तीन पात रहे थे। असम हिंसा कि पृष्टभूमि में काम कर रही हकीकत को जानने के बावजूद स्वंतत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री डां मनमोहन सिंह असम हिंसा का तो जिक्र करते है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में मुबंर्इ में विरोध के लिए इकटठे हुए मुसिलम समुदाय के लोगों ने हिंसा का जो उपद्रव रचा, प्रधानमंत्री उसे नजरअंदाज कर देते है। जबकि समस्या ज्वलंत थी और हिंसा में दो लोग मरे भी थे। यदि प्रधानमंत्री असम हिंसा की मुंबर्इ घटना को भी बरदाष्त न करने की ललकार लगाते तो शायद उपद्रवियों को षह नहीं मिलती और मोबाइल संदेशो के मार्फत खौफ की इबारत नहीं लिखी जाती।

मुबंर्इ की धटना के बाद पुणे में पूर्वोत्तर के दो छात्रों के साथ समुदाय विशेष के लोगों ने हिंसक झड़पें कीं। लेकिन शासन प्रशासन ने इसे भी हलके से लिया और पुलिस अभी तक हमलावारों को हिरासत में लेने में नाकाम रही है। प्रशासनिक ढिलार्इ और लापरवाही के इन हालातों ने पूर्वोत्तर के छात्रों मे अविश्वास को बढ़ाया और वे सामूहिक रूप से पलायन को तैयार हो गए। यही नहीं इसी दौरान असम में भी लगातार न केवल हिंसक वारदातें सामने आ रही हैं, बलिक इसका अबतक अछूते रहे क्षेत्रों में फैलाव भी हो रहा है। हिंसा की आग अब तक असम के चार जिलों कोकराझार, चिरांग धुबरी और बक्षा में थी, लेकिन अब इसकी चपेट में कामरूप जिला भी आ गया है। सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में दौरा करने के बावजूद हिंसा का यह विस्तार इस बात का संकेत है कि लोगो में बदले की आग ने जहन में कर्इ गहरे पैठ बना ली है। इसलिए यदि इससे अभी भी देशी बनाम विदेशी नजरिए से नहीं निपटा गया तो असम समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में कश्मीर जैसे हालात बन सकते हैं।

असम समस्या नर्इ नहीं होने के बावजूद इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। हालांकि राजीव गाधी ने इस समस्या की मूल जड़ को समझा था कि यह स्थनीय स्तर पर जातीय, नस्लीय अथवा साप्रदांयिक संर्धश नहीं है, बलिक बांग्लादेशी घुसपैठियों की वजह से उपजा संकट है और संकट इसलिए भयावह होता जा रहा है क्योंकि धुसपैठियों के पास रोजी – रोटी व आवास के संसाधान जुटाने का जारिया एक ही था कि वे स्थानीय मूलनिवासियों के पंरपरागत संसाधनों को कब्जा लें। समस्या की इसी वजह को 1985 में तात्कालीन मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने भी समझ लिया था। लिहाजा इस समस्या के समाधान की दिषा में राज्य और केंद्र सरकार के बीच एक अनुबंध हुआ था, जिसके तहत घुसपैठियों को सीमा पर ही रोकना और असम की सीमा में आ चुके घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें बांग्लादेश की सीमा में खदेड़ना था। इस अनुबंध पर कठोरता से अमल की शुरुआत हुर्इ तो वामपंथियों और मानवाधिकारवादियों ने हल्ला मचाना शुरु कर दिया। यहां इन्हें समझने की जरुरत थी कि जो घुसपैठिये मूल निवासियों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं, उनकी पक्षधरता किसलिए ? इस विरोध के बाद इस अनुबंध पर अमल को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। और समस्या न केवल यथावत बनी रही, बलिक भयावह होती चली गर्इ।

असम में छह साल से कोंग्रेसी सत्ता की कमान संभाल रहे मुख्यमंत्री तरुण गोगोर्इ ने भी कभी इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया। क्योंकि जो घुसपैठिये अधिकृत मतदाता बन गए हैं, उनके थोक में वोट कांग्रेस को ही मिलते हैं। इसलिए असम में जब 2008 में बोडो और मुसिलमों के बीच वर्चस्व की लड़ार्इ छिड़ी तो तरुण गोगोर्इ इसे स्थानीय जातियों और संप्रदायों के बीच झड़पें कहकर टालते रहे। लेकिन असम में अब जो हिंसा का ताण्डव जारी है और 77 लोगों की जानें चली गर्इं तो तरुण गोगोर्इ की आंखों पर पड़ा तुष्टिकरण का पर्दा हट गया और अब हकीकत से रुबरु होते हुए वे यह मान रहे हैं कि घुसपैठ के चलते ही स्थानीय बोडो और संथाल जनजातियां बांग्लादेशियों के खिलाफ लामबंद हुर्इं। यही वजह रही कि मुख्यमंत्री ने अपनी कमजोरियों का दोश केंद्र सरकार पर यह कहकर मढ़ दिया कि हिंसा की जानकारी केंद्र को दे देने के बावजूद छह दिन बाद सेना घटना स्थलों पर पहुंची। इस समय तक चार लाख लोग बेघरवार हो चुके थे और करीब 55 लोग हिंसा की भेंट चढ़ चुके थे।

इस हिंसा के दुश्परिणाम अब बड़ी आंतरिक समस्या के रुप में खड़े हो गए हैं। नतीजतन हिंसा प्रभावित एक राज्य के भारतीय नागरिक दूसरे राज्य में रहने पर अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। और प्रधानमंत्री व राज्यों सरकारों के मंत्रियों द्वारा पुख्ता भरोसा दिलाए जाने के बावजूद पलायन को उठे, पैर थम नहीं रहे हैं। महानगरों के रेलवे स्टेशनों पर अविश्वास का पसरा या नजारा इस बात का संकेत है कि नागरिकों का विश्वास केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों से उठ गया है। पलायन की इस स्थिति को दलगत राजनीति से उठकर एक नर्इ आतंरिक समस्या के रुप में देखते हुए, इससे निपटने के कठोर उपाय अपनाने की जरुरत है।

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