खतरे में हैं अरावली पर्वत श्रृंखलाएं

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-संदर्भः राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बोर्ड का फैसला-

-प्रमोद भार्गव-   Aravali-Mountain-Ranges

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बोर्ड ने पर्यटन को बढ़ावा देने के बहाने अरावली पहाड़ियों में निर्माण कार्यों की मंजूरी देकर पहाड़ियों को खतरे में डालने का रास्ता खोल दिया है। ये पहाड़ियां हरियाणा राज्य के फरीदाबाद और गुड़गांव के बीच फैली हुई हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन पहाड़ियों पर किसी भी प्रकार के निर्माण पर रोक लगाई हुई है। लेकिन यह मंजूरी इको टूरिज्म बनाम पर्यावरण हितैशी पर्यटन के बहाने दी गई हैं। दरअसल, यह बहाना एक छल है, जो पर्यटन के धंधे में लगी कंपनियों के दबाव और अधिकतम राजस्व वसूली के लिए लिया गया है।
ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक संपदाओं का दोहन वर्तमान आधुनिक एवं आर्थिक विकास नीति का आधार है। लेकिन हमारे यहां जिस निर्दयी बेशरमी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है, उस परिपेक्ष्य में मौजूदा आर्थिक विकास की निरंतरता तो बनी ही नहीं रह सकती, दीर्घकालिक दृष्टि से देंखे तो विकास की यह आवधारणा उस बहुसंख्यक आबादी के लिए जीने का भयावह संवैधानिक संकट खड़ा कर सकती है, जिसकी रोजी-रोटी की निर्भरता प्रकृति पर ही अवलंबित है। इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से उत्खनन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन अब यदि बोर्ड का निर्णय राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण भी इस फैसले को बहाल रखता है तो पहाड़ियों पर सीमेंट-कंक्रीट के जंगल खड़े होना शुरू हो जाएंगे, जो पूरी अरावली पर्वत श्रृंखला के वजूद के लिए बड़ा खतरा खड़ा कर देंगे।
आज का सीमेंट, कंक्रीट व लोहे की संरचनाओं से जुड़ा आधुनिक विकास हो, अथवा कंप्यूटर व संचार क्रांति से संबंधित प्रौधोगिक विकास सबकी निर्भरता प्राकृतिक संपदा पर आश्रित है। इस विकास के दारोमदार जल, जंगल और जमीन तो हैं ही, तमाम खनिज जीवाष्म ईंधन और तरल पदार्थ भी हैं। ये संपदाएं अब अकूत नहीं रहीं। इनके भण्डार बेशुमार दोहन से रीत रहे हैं। लिहाजा प्रकृति का पारिस्थिति की संतुलन संकट में आ ही गया है, एक बड़ी आबादी के जीने का अधिकार भी खतरे में है। क्योंकि प्रकृति के खजाने लुट जाएंगे तो संविधान के अनुच्छेद-21 में दिए जीने के अधिकार के प्रावधान का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। इसी लिहाज से गुड़गांव, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के 548 वर्ग किलोमीटर के दायरे में खनन पर हरित पंचाट ने रोक लगा दी थी।
अरावली – पहाड़ियां दुनिया की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाएं हैं। लगभग 800 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली ये पहाड़ियां गुजरात से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा होते हुए दिल्ली तक पसरी हैं। इन पहाड़ियों का मानव समुदाय के लिए कुदरती महत्व है। इन्हीं पहाड़ियों की ओट पश्चिमी रेगिस्तान को फैलने से रोके हुए है। अन्यथा हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जो उपजाऊ भूमि है, उसे रेगिस्तान में तब्दील होने में समय नहीं लगेगा। पहाड़ियों की हरियाली नष्ट होने से इस क्षेत्र में शुष्कता का विस्तार हुआ है। नतीजतन जल स्तर नीचे चला गया। प्रकृति का पारिस्थितिकीय तंत्र स्थिर रहे, इस लिहास से अदालत द्वारा सख्ती बरतना जरूरी था। क्योंकि हमारी राजनीतिक इच्छा शक्ति और प्रशासनिक दृढ़ता तो आखिरकार अपने निजी हितों के चलते उत्खनन कर्ताओं के ही हित-पोषण में लगी हुई है।
हमारे देश में अरावली की पर्वत श्रेणियां ऐसे अकेले स्थल नहीं हैं, जहां की संपदा को बेजा लूटकर पर्यावरण विनाश नहीं किया गया हो? इसके पूर्व दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटियों में उत्खनन की प्रक्रिया जारी रहने से घाटी के वन क्षेत्र और नदियों की गहराई संकट के दायरे में आ गए थे। पश्चिम के ये वन प्रांत दुलर्भ वनस्पतियों व जैव विविधता के अनुपम उदाहण हैं। इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को बचाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायलय को पहल करनी पड़ी थी।
भारत में पर्यावरण विनाश की सीमा अरावली पर्वत श्रेणियों और पश्चिमी के घाटों तक ही सीमित नहीं है, मध्यक्षेत्र में भी बेतरतीब ढंग से प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के कारण सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां तो खतरे में हैं ही, अनेक जीवनदायी नादियों का वजूद भी संकट में है। छत्तीसगढ़ में कच्चे अयस्क के अवैज्ञानिक दोहन से शंखिनी नदी को प्रदूषित कर दिया है। बैलाडिला के जो लोह तत्व अवशेष के रूप में निकलते हैं, वे किरींदल नाले के जरिए शंखिनी नदी में प्रवाहित होते हैं। इस कारण नदी और नाले का पानी अम्लीय होकर लाल हो जाता है, जो न पीने लायक रह गया है और न ही सिंचाई के लायक?
मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे स्टील संयत्र रोजाना करीब 60 टन दूषित मलवा चंबल और चामला नादियों में बहाकर उन्हें दूषित तो बना ही रहे हैं, मनुष्य-मवेशी व अन्य जलीय जीव-जंतुओं के लिए भी जानलेवा साबित हो रहे हैं। बड़े पैमाने पर पारिस्थितिकीय तंत्र को गड़बड़ाने जा रही रेणुका बांध परियोजना को रद्द करने की भी मांग उठ रही है। इस परियोजना को अस्तित्व में लाने का मुख्य मकसद दिल्लीवासियों को अतिरिक्त 275 मिलियन गैलन पानी प्रतिदिन मुहैया कराना है। जबकि दिल्ली के लिए हथिनीकुंड और वजीराबाद बैराज पहले से ही जल सरंक्षण और जल प्रदाय कर रहे हैं। 1994 की इस परियोजना पर पांच सहयोगी प्रदेश राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल और उत्तर प्रदेश समझौता करने एकजुट हुए थे। लेकिन राजस्थान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था। ऐसी स्थिति में पारियोजना रद्द मानी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा हैं नहीं। धीमी गति से परियोजना को गतिशील बनाने के लिए कार्रवाइयां जारी हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह परियोजना यदि अमल में आती है तो निचले हिमालय क्षेत्र में दो हजार हेक्टेयर में फैले जंगल और कृषि क्षेत्र डूब जाएंगे। रेणुका अभ्यारण्य डूब में आएगा। सात सौ से ज्यादा परिवार प्रभावित होंगे, जो वनोत्पाद से अपना जीवनयापन करते हैं। साथ ही लहसन, अदरक और टमाटर की नगदी फसलों पर अधारित यहां की कृषि अर्थव्यस्था नष्ट हो जाएगी। बड़े पैमाने पर विभिन्न समुदायों के लोगों की धार्मिक, सांस्कृतिक व पुरातात्विक धरोहरों का भी विनाश होगा।
अब यहां समस्या उठती है कि हम विकास का ऐसा कौन सा आदर्श प्रति वर्ष तैयार करें जिसके अंतर्गत विकास की गतिशीलता भी बनी रहे और पर्यावरण सरंक्षण की दिशा में समानांतर सुधार होता रहे। आधुनिक विकास का आधार प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन इनके विनाश की शर्त पर खनिजों के दोहन का वर्तमान सिलसिला जारी रहा तो प्रकृति के पारिस्थितिकी तंत्र का असुतंलित हो जाना तय है। यह तंत्र लड़खड़ाता है तो जीव-जगत का विनाष भी तय है। लिहाजा अब औद्योगिक विकास व वाणिज्यिक लाभ-हानि के गुणाभाग से परे आर्थिक विकास का मूल्यांकन जल, जंगल और जमीन के विनाश के पैमाने पर होना चाहिए। क्योंकि प्राणी जगत का अस्त्तिव अंततः प्रकृतिक संपदा की उपलब्धता में ही निहित है। शायद इसलिए गांधीजी ने पहले ही कह दिया था कि हमें कोई अधिकार नहीं की हम प्रकृति के भण्डार में से आने वाली पीढ़ियों का हिस्सा भी हड़प लें ? लेकिन गांधी के इस संजीवनी वाक्य पर अमल कौन करेगी ?

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