आतंक के लिए मजहब की ओट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एसियान’ सम्मेलन में बड़े पते की बात कह दी है। उन्होंने कहा है कि आतंकवाद को किसी भी मजहब (धर्म−रिलीजन) के साथ न जोड़ा जाए। उसे सारी मानवता का दुश्मन समझा जाए। यह सबसे बड़ा सत्य है लेकिन दुनिया के नेतागण और आम लोग भी इस सत्य को समझने की कोशिश तक नहीं करते। वे आतंकवादियों की लंतरानियों को जस का तस निगल लेते हैं।
यदि आतंकवादी कहते हैं कि हम मुसलमान हैं और हमने ‘निज़ामे−मुस्तफा’ कायम करने के लिए सिर पर कफन बांध रखा है तो हम तुरंत कह देते हैं कि यह ‘इस्लामी आतंकवाद’ है। यदि कुछ भगवा वस्त्रधारी लोग किसी मस्जिद पर बम फेंकते हुए या किसी ‘समझौता एक्सप्रेस’ को उड़ाते हुए पकड़े जाएं और कह दें कि हम मुसलमानों से बदला ले रहे हैं और हिंदू राष्ट्र की स्थापना करेंगे तो उन्हें हमारे सेक्यूलर भाई तुरंत ‘हिंदू आतंकवादी’ नाम दे देते हैं। इसी तरह फिलीपीन्स, स्पेन और अन्य पश्चिमी देश में कोई आतंक की घटना घटती है तो उन्हें ‘ईसाई आतंकवादी’ कह दिया जाता है। हमारे पंजाब में बरसों तक ‘सिख आतंकवाद’ चलता रहा।
वास्तव में आतंकवाद शुद्ध राजनीतिक कुकर्म है। इसका धर्म या मज़हब या रिलीजन से कोई लेना−देना नहीं है। यह तो पूर्ण अधर्म है। बेकसूर और निहत्थे लोगों पर किया जाने वाला कायराना हमला है। इसीलिए जो भी व्यक्ति अपने आपको धार्मिक या मजहबी मानता है, उसको आतंकवाद की भर्त्सना करना चाहिए। आतंकवादी लोग मज़हब की ओट में अपनी दाल पकाते हैं। यदि वे मज़हब की ओट न लें तो उनकी दाल गलना मुश्किल हो जाए।
मजहब की लहर में गरीब, बेरोजगार, अशिक्षित और जुनूनी नौजवान आसानी से बहकाए जा सकते हैं। आतंकवादियों को कभी अपने देश के तानाशाहों, फौजियों और अत्याचारियों से लड़ना होता है, कभी अपने देश पर छाई हुई विदेशी ताकतों का मुकाबला करना होता है, कभी वे शिया−सुन्नी विवाद में फंसे होते हैं, कभी वे रुस और अमेरिका के मोहरे बने होते हैं और कभी अपने हुक्मरानों के इशारों पर पड़ौसी देशों में आतंक फैलाते रहते हैं। वे किसी धर्म या मजहब या रिलीजन के सिद्धांतों का पालन न तो अपने निजी जीवन में करते हैं और न ही उनको फैलाना उनका लक्ष्य होता है। आतंकवादियों के साध्य कभी−कभी सही भी होते हैं लेकिन उनका हिंसा का साधन हमेशा गलत होता है। उसका समर्थन जो करे, वह धर्म कैसे हो सकता है?

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