अथ श्री चचा कथा ….!!

bitwaतारकेश कुमार ओझा
वाणिज्य का छात्र होने के नाते कॉलेज में पढ़ा था कि बुरी – मुद्रा – अच्छी मुद्र्ा को चलन से बाहर कर देती है।पेशे के नाते महसूस किया कि नई खबर – पुरानी को चलन से बाहर कर देती है। अब हाल तक मेरे गृह प्रदेश के कुछ शहरों में उत्पन्न तनाव का मसला गर्म था। एक राष्ट्रीय चैनल के मसले को उछाल देने से मामला तूल पकड़ने ही वाला था। लेकिन तभी मुख्यमंत्री के भतीजे की हुई कार दुर्घटना ने पुराने घटनाक्रमों पर मानो एक झटके में पानी डाल दिया। कुछ दिन बाद देश के सबसे बड़े सूबे में चाचा – भतीजा विवाद सुर्खियों में था। लग रहा था मानो हम कोई मेगा सीरियल देख रहे हैं। जिसमें सस्पेंस और घात – प्रतिघात से लेकर रोमांच आदि सब कुछ शामिल है। लेकिन इस बीच भोपाल में जेल से भागे कथित आतंकवादियों की मुठभेड़ में मौत की घटना ने चाचा – भतीजा प्रकरण को पीछे धकेल दिया। ऐसे में मैं सोचता हूं कि क्या भोपाल की घटना के बाद चाचा – भतीजा विवाद सच में शांत पड़ गया। या प्रचार माध्यम ने इस ओर से मुंह मोड़ लिया।
वैसे देखा जाए तो आम चचा भी एेसे ही होते हैं। भतीजा सामने आया नहीं कि शुरू हो गए, अरे पुत्तन… जरा इहां आओ तो बिटवा, सुनो जाओ फट से उहां चला जाओ.. अउर इ काम कर डाओ…। एेसे सभी चाचाओं में एक बात कामन होती है। भतीजे के बाप यानी अपने बड़े भैया की बहुत इज्जत करेंगे। उनके सामने मुंह नहीं खोलेंगे। कोई किंतु – परंतु नहीं, कोई सवाल – जबाव नहीं। लेकिन भतीजे के लिए जी का जंजाल बने रहेंगे। भतीजा चाहे जितने बड़े ओहदे पर पहुंच जाए, बात – बात पर उसकी कान उमेठने से बाज नहीं आएंगे। अभी उस दिन टेलीविजन चैनल पर एक बहुचर्चिच चाचा बयान दे रहे थे, जिसका लब्बोलुआब यही था कि … वे अक्सर भूल जाते हैं कि फलां अब मुख्यमंत्री है। क्योंकि उनकी नजर में तो बंदा वहीं मेरा बच्चा – भतीजा है। अब ऐसे बयानों से भतीजे की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। एक और प्रख्यात चाचा हैं जो उच्चस्तरीय बैठकों में बड़े – बड़े अफसरों के सामने भी अपने मुंह बोले भतीजे का घरेलू नाम लेकर पुकारते हैं। बेचारा भतीजा कई बार इस बात का शालीन विरोध कर चुका है। लेकिन चचा हैं कि मानते ही नहीं। इन चाचाओं की नजर में उनका भतीजा हमेशा बच्चा ही बना रहता है। यदि भतीजे ने चाचा से कोई सवाल – जवाब कर दिया तो शुरू हो गए… अब तुम हमका सिखइहो…। यह नहीं देखेंगे कि भतीजा अब किस ओहदे पर पहुंच चुका है। भतीजा मातहतों के साथ कोई बैठक कर रहा है, तभी चाचा की इंट्री हुई और शुरू हो गए… अरे लल्लू , तुम इहां बैइठे हो, अरे तुम ता लखनऊ जवइया रहो, नाहि गवो का…। अच्छा जाओ अपनी चाची से कह दो एक लोटा पानी पठय देएं। फिर शुरू कर देंगे एेसी बातें , जिनकी चर्चा वक्ती तौर पर कतई जरूरी नहीं। जरा चूं चपड़ की नहीं कि शुरू हो जाएंगे… बहुत बड़े हो गए हो ना… भूल गए इन्हीं कंधों पर चढ़ कर घूमा करते थे। हमार तो कोई सुनता ही नहीं…। नाराजगी का नशा इन चाचाओं पर हमेशा सवार रहता है। कुछ बोलने की कोशिश की नहीं कि झट जवाब मिलेगा… अब तुम हमका सिखइहो… ऐसे में भतीजा बेचारा परेशान तो होगा ही। असली मंशा यह दिखाने की कि कमबख्त कितना भी बड़ा हो जाए, है मेरा भतीजा और मैं इसका चाचा हूं…। आम चाचाओं की तरह सबसे बड़े सूबे में भी चाचा लोग भतीजे के साथ कुछ एेसा ही बर्ताव कर रहे हैं, तो इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। देश में में चाहे जो हो जाए, लेकिन राजनेता भतीजों को अपने चाचाओं से तो आगे भी निपटना ही पड़ेगा…। यह आम भतीजों की घर – घर की कहानी है।

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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