नालंदा विश्वविद्यालय का अतित क्या था? वह सब कुछ इतिहास के पन्नों में लिखा है। भविष्य भी भविष्य के गर्व में और वर्तमान बड़े जोर शोर और उत्साह से प्रारम्भ किया गया था। बड़े-बड़े नामी लोगों को नालंदा से जोड़ा गया था। राज्य और केन्द्र की सरकारें नहीं बल्कि विश्व के देशों का संगठन उसमें बौद्ध बहुल्य देशों के प्रतिनिध्यिों का योगदान भी शामिल है। नालंदा अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का सत्र तो इस वर्ष से प्रारम्भ कर दिया गया है मगर जिस गति और उर्जा के साथ नालंदा को अपने पिछले छवि और ख्याति को प्राप्त करनेवाले की योजना थी, उसकी गति बड़ी ध्ीमी रही है। इसके लिए बिहार में राजनीति का उठापटक, केन्द्र सरकार की उपेक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय मंच का विश्वविद्यालय में अधिक रुचि नहीं लेना है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय नालंदा के पुर्नजन्म को कठिन मानते आए हैं। नालंदा अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में तीन तीन हाथों का हस्तक्षेप है जो विश्वविद्यालय को गति प्रदान करने और सुचारू रूप से चलाने के लिऐ सबसे बड़ी बाधयें हैं।
नालंदा का अतित वापस आऐगा? यह तो मुझे नहीं पता! मगर इस शैक्षिक केन्द्र ने अतित में जिस भी प्रकार से भारत का नाम विश्व में ज्वलित किया भारत विश्व गुरु कहलाया और बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं से आगे निकल कर विश्व भर में फला फूला , उसमें इस नालंदा का बड़ा योगदान रहा था! इसके योगदान, ज्ञान और धर्म के प्रकाश को ज्वलित करने में भूमिकाओं को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। प्राचीन भारत और बिहार की इतिहास का यह केन्द्र रीढ़ रहा है।
बिहार, विहार है! और यह संस्कृत भाषा का शब्द है! विहार का शाब्दिक अर्थ खेलकूद है। तत्पश्चात् विहार उस स्थान को कहा जाने लगा, जहाँ पर साध्ुसंत अथवा बौद्धभिक्षु धर्मिक गतिविधियों में लीन रहने लगे थे। और धर्मिक गतिविधियों में हर्ष व उल्लास के साथ जीवनयापन में लगे रहते थे। समय के अनुरूप इसका अर्थ बदलता गया और बुद्ध विहारों की अधिकता के कारण इस स्थान को विहार के नाम से जाने जाने लगा। अतः एक धर्मिक शिक्षा के केन्द्र अर्थात् नालंदा के कारण ही इसका नाम पड़ा था। उस समय नालंदा विहार और विहार ही नालंदा था!
छठी सदी इस्वी पूर्व अर्थात् 600 ईसा पूर्व में मगध् की राजधानी बेहद शक्तिशाली थी। और मगध् देश के मध्य में इसकी राजधानी का नाम ‘‘सागरपुर’’ था! क्योंकि इस स्थान पर एक पौध बड़ा ही सुगंध्ति उगता था, जिसका नाम ‘कोसा’ था। इस कारण से इस स्थान को सागरपुर के नाम से पुकारा जाने लगा था। यह शहर चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा एक सुरक्षित, सम्पन्न और शांत एवं शक्तिशाली राजधानी थी। पूर्व की ओर से पहाड़ को काट कर एक रास्ता बनाया गया था।
राजगीर अथवा राजगढ़ वर्तमान समय में जिस स्थान को हम राजगीर के नाम से जानते और पहचानते हैं असल में वह राजगढ़ हुआ करता था। और राजा बिम्बिसार ने अपनी राजधानी सागरपुर से ही राजगढ़ पर शासन किया था। राजगढ़ के इतिहास में बिलीन होने के प्रमुख कारण राज्य के अनेकों स्थानों पर आग से क्षति थी। आज भी बिहार प्रदेश का एक बड़ा भाग एक निश्चित ट्टतु में आग लगने से प्रभावित होता रहता है। राजा बिम्बिसार के पुत्रा आजादशट्रू ने अपने प्रदेश की राजधानी राजगढ़ में ही स्थापित किया था। बाद के दिनों में राजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलीपुत्रा में स्थानांतरित कर डाला था। पाटलीपुत्रा के स्थापित होने से पूर्व इस स्थान का नाम कसमपुरा था जो आज बिहार प्रदेश की राजधानी पटना कहलाती है। अशोक ने राजधानी बदलने के पश्चात राजगढ़ में ब्राह्मणों को बसाया था। चीनी यात्राी अपने यात्रा वृतांत में लिखता है कि जिस समय वह इस स्थान पर गया था वहां पर ब्राह्मणों के एक हजार से भी अधिक परिवार रह रहा था। आगे वह लिखता है शहर तबाह हो चुके हैं मगर शहर में अब भी विशाल भवन शेष बचे हैं।
राजगीर अथवा राजगढ़ से कुछ दूरी पर एक बाग ;फुलवारी था जिसके मध्य में एक तालाब था, इसी पानी के तालाब में एक नाग साँप रहता था। दूसरा तर्क इस स्थान पर ‘नाग’ जनजाति की बस्ती थी। और वह बाग और तालाब नागा जनजातियों के मुखिया की थी, जिसके नाम पर इस स्थान का नामाकरण नालंदा पड़ा था। व्यक्तिगत नाम, तालाब का नाम, घर और परिसर का नाम और फिर गाँव का नाम यह नाम का विस्तार था। एक ओर ऐतिहासिक तर्क है कि बौद्ध विहारों को भी नालंदा कहा जाता था और उच्च शिक्षा एवं बौद्ध धर्म की शिक्षा को भी नालंदा के नाम से सम्बोध्ति किया जाने लगा था। नालंदा के इसी बाग में भगवान बुद्ध ने काफी समय तक तप किया था। उसी स्थान पर राजा सकरूत ने एक विहार का निर्माण करवाया था। राजा के उत्तराधिकारी बुद्धगुप्त ने एक और विशालतम विहार का निर्माण करवाया, टाढा गाना, बालादत्त, वजर राजा जैसे राजाओं ने अपने पूर्वजों की परम्पराओं को संजोते हुऐ विहारों का निर्माण कार्य करवाते रहे और इसकी सुरक्षा और संचालनों का प्रावधन भी करते रहे। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधर पर इस प्राचीन, बहुमूल्य शिक्षा संस्थासनों में 10 हजार से अधिक छात्रों को एक समय में शिक्षा ग्रहण करने का प्रमाण है। जिसमें 100 से अधिक प्रोफेसर और एक चांसलर ;शालीभद्रद्ध के नेतृत्व में विश्वविद्यालय का संचालन किया जाता था जहां पर भारत ही नहीं विश्व के कोने-कोने से छात्रगण आ आ कर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। इस विश्वविद्यालय के लिये सौ गाँवों को दान में राजाओं ने दे रखा था। साथ ही साथ 200 से अधिक परिवारों के अन्यदान दिऐ जाने का रिवाज था। और परिवारों के द्वारा अन्य दान दिऐ जाने की प्रथा का आज भी विश्व के कई देशों में बुद्ध भिक्षुओं के लिए प्रावधान जारी है। विश्वविद्यालय के परिसर के समीप कुछ परिवार रहते होंगे। दुकानें आदि अवश्य होगी।
मुस्लिम आक्रमणकारियों के समय में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थिति पहले जैसी नहीं थी। मगर शहर पहले से अधिक सम्पन्न हो गया था। नालंदा के समीप विहार नाम का कस्बा था, जहाँ पर सम्पन्न लोग रहते थे, जो वर्तमान का बिहार शरीफ है और मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद बख्तियार खिलजी का आक्रमण इसी पर हुआ था। खलजी 8 वर्षों तक अवध् पर शासन करते हुऐ अपनी शक्ति बढ़ा कर बिहार और बंगाल पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा था। खलजी कई वर्षों तक विहार ओर मनेर पर चढ़ाई करता रहा। उसके आक्रमण के डर से बड़ी संख्या में लोगों ने नालंदा परिसर में पनाह ले रखी थी। नालंदा चारों दिशाओं से ऊँचे और मजबूत दिवारों से घिरा था। समकालीन लेखक मिन्हाज ने अपनी पुस्तक तबकात नासरी में जो सूचना नालंदा पर आक्रमण के सम्बंध् में दी है वह रचना उन्होंने आक्रमण के 43 वर्षों के पश्चात की सूचना खलजी के दो सैनिकों के माध्यम से उन्होंने दी है, कि बड़ी कठिनाई से खलजी ने यह परिसर जीता जिसमें उसे बड़ी मात्रा में धन की प्राप्ति हुई थी। उसी के सूचना के आधार पर, इस परिसर में अधिक बौद्ध भिक्षु थे जो आक्रमण में मारे गऐ एक बड़ा पुस्तकालय था, यह धरोहर संस्कृत और पाली में थी जो नष्ट कर दिऐ गऐ।
विशालतम परिसर और गगनचुंबी इमारतें तो बनेगी। आज नहीं तो कल! जब नालंदा और विक्रमशीला का पतन हो रहा था तो आक्सपफोर्ड का जन्म हो रहा था। कभी न कभी और किसी न किसी के हाथों से इन दोनों संस्थानों का जीवन उद्धार तो होगा मगर अरमान यही है कि हम लोग भी इसके चरम को देख लेते। वह ज्ञान, वह धरोहर तो वापस नहीं लाया जा सकता मगर खोया सम्मान को पुनः प्राप्त अवश्य ही किया जा सकता है।
फखरे आलम