कहने को तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचो पर कहा जाता है कि स्वास्थ्य बुनियादी मानवाधिकारी है। पर हकीकत यह है कि आम भारतीय के लिए इस अधिकार को हसिल करना आसान नहीं है। स्वास्थ के लिए यह स्वस्थ चिंतन की बात है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अघ्यक्ष सोनीया गांधी ने इस सच्चार्इ को सार्वजनिक मंच ‘दक्षिण एशियार्इ आंटिजम नेटवर्क द्वारा दिल्ली में आयोजित सम्मेलन में न केवल स्वीकारा,बलिक इसे सुधारने की दिशा में पहल करने पर जोर दिया। यह सम्मेलन आटिज्म रोग से पीडि़त बच्चों की स्थिति सुधारने के लिए आयोजित था। सोनिया ने माना कि देश में कर्इ तरह की पहल और नीतिगत बदलाव के बावजूद स्वास्थ लाभ हासिल कराने के परिप्रेक्ष्य में एक ऐसी लोकनीति बनाने की जरूरत है,जिससे जन्मजात अशक्तों को मदद मिल सके। क्योंकि पर्याप्त संस्थागत तंत्र के सहयोग के अभाव में अभी भी मानसिक रूप से अषक्त लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं। हालांकि यहां यह सवाल उठता है कि जिम्मेबारी समझ लेने और सहानभुति जताने भर से कुछ हासिल होने वाला नहीं है? वे देश की सत्ता में सबसे ज्यादा शकितशाली महिला हैं, लिहाजा जरूरी है कि वे कोर्इ ऐसी ठोस पहल करें, जिससे अशक्तों को जन्म से जुड़ी विकृति से मुक्ति मिले।
शारीरिक, मानसिक और अन्य जन्मजात विकारों से ग्रस्त लाचारों के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कर्इ योजनाएं लागू हैं। अनेक पीडि़तो को लाभ भी मिल रहा है। किंतु बच्चों के प्राकृतिक रूप से विकास में बाधा डालने वाले विकारों में आटिज्म नामक मानसिक रोग एक ऐसा रोग है,जिसका न तो आसानी से उपचार स्वास्थ्य केंद्र्रो पर उपलब्ध है और न ही इस रोग के बाबत अभी पर्याप्त जगरूकता है। जबकि एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 80 लाख बच्चे इस रोग की असामान्य पीड़ा से जूझ रहे हैं। इसलिए वकार्इ इस दिशा में एक लोकनीति को वजूद में लाने की जरूरत है।
हांलाकि करीब ड़ेढ़ साल पहले ढाका में आटिज्म पर केंद्रित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो चुका है। इसमें आटिज्म की बीमारी से पीडि़त बच्चों के स्वास्थ सुधार की दिशा में पहल करते हुए नौ प्राथमिक कार्यों को चिनिहत भी किया गया था। भारत सहित दक्षिण पूर्व एशिया के सभी सदस्य देशो ने इस धोषणा पत्र पर सहमति भी जतार्इ थी। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में आम सहमति के ड़ेढ साल गुजर जाने के बावजूद बच्चों के कुदरती विकास में अड़चन बनने वाले विकारों से निपटने के कोर्इ उपाय धरातल पर नहीं आए। जाहिर है ढाका घोशणा-पत्र की उपलबिध कागजी खानापूर्ति भर रही। हालांकि अब आटिजम्म रोग चिकित्सा क्षेत्र के लोगों के लिए कोर्इ अनजाना रोग नहीं है। रोग की पहचान और निदान से जुड़े कर्इ अध्ययन, खोजें व तकनीकें सामने आ गर्इं हैं। जरूरत है रोग की पहचान व उपचार की एक व्यावहारिक योजना बनाकर उसे देश भर में अमल में लाया जाए। इससे आटिज्म से प्रभावित लोगों व उनके परिजनों में समझ व जागरुकता पैदा होगी और वे रोगी को भगवान व भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। दरअसल आटिज्म रोग, एक मानसिक बीमारी है, जिसमें बच्चे या तो किसी बात पर ध्यान नहीं लगा पाते अथवा लंबे समय तक किसी एक ही चीज में उलझे रहते हैं। कुछ मामलों में बच्चों में खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृतित भी पनपते देखी गर्इ है। ये बच्चे दीवार से सिर पीटते अथवा घरेलू धारदार औजारों से हाथ-पैर काटते देखे गए हैं। इसीलिए इस बीमारी को मानसिक विकृति भी माना जाता है। ऐसे बच्चों के उपचार की दृष्टि से कर्इ किस्म की दवार्इयां दिए जाने के बावजूद कोर्इ लाभ नहीं मिलता। मिलता भी है तो लंबे समय तक असरकारी नहीं रहता। ऐसे में यदि बच्चे में खुद को नुकसान पहंचाने की प्रवृतित पनप गर्इ है तो अभिभावकों को यह बड़ी चिंता का कारण बन जाती है। अनुसंधानों से पता चला है कि दिमाग के तंत्रिका तंत्र यदि किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है तो आटिज्म की बीमारी पनप सकती है। गर्भवति महिलाओं को उचित पोषाहार न मिल पाने से ही नवजात शिशु इस रोग से ग्रस्त हो जाता है।
नए अध्ययनों से पता चला है कि यह रोग कृमि संक्रमण की देन है। इसी नजरिए से आटिज्म पीडि़त बच्चों पर प्रयोगशालाओं में इस कृमि संक्रमण को दूर करने के लिए कृमि उपचार किया जा रहा है। इस रोग के निदान के लिए टाइचुरिस सुइस नामक कृमि की भूमिका पर अनुसंधान चल रहा है। ऐसे ही एक प्रयोग के तहत आटिज्म से ग्रस्त बच्चे को प्रयोगशाला में कार्यरत चिकित्सकों की सलाह पर टाइचुरिस सुइस के 2500 अण्डे प्रति सप्ताह देने का सिलसिला शुरु किया गया। कुछ ही दिनों में इस बच्चे के आचरण एवं रोग संबंधी लक्षणों में अकल्पनीय सुधार देखने में आया। उसके अतिवादी आचरण और खुद को हानि पहुंचाने की प्रवृतित में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ हो देखने में आया।
चिकित्सा क्षेत्र में कृमियों द्वारा उपचार किए जाने की दिशा में अयोवा विश्वविधालय में बड़े पैमाने पर शोध किए जाकर इलाज की नर्इ-नर्इ तकनीकें र्इजाद की जा रही हैं। लेकिन भारत समेत अन्य विकासशील देशो में ऐसे दुर्लभ चिकित्सा अनुसंधान नहीं हो रहे हैं, यह चिंताजनक पहलू है। इसके उलट हमारे चिकित्सा महा विधालयों एवं अनुसंधान केंद्रों में उपचार के लिए लाए गए बच्चों पर गैर कानूनी तरीके से चिकित्सा परीक्षण करके उन्हें तिल-तिल मरने को भगवान भरोसे छोड़ा जा रहा है। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त एक जानकारी के मुताबिक अकेले दिल्ली के सफदर जंग अस्पताल में बीते पांच साल के भीतर करीब 8250 बच्चों की मौंतें हुर्इं। इनमें से 3000 नवजात थे। यहां यह गंभीर और हैरान करने वाली बात है कि इनमें से ज्यादातर मौतें अवैध दवा परीक्षणों के दौरान हुर्इं।
दरअसल हम जिस लोक मान्यताओं और व्यवहार वाले समाज में रहते हैं, उसमें सामान्य रुप से स्वस्थ और बौद्धिक रुप से समृद्ध व्यकित को ही समाज की सहज स्वीकार्यता मिलती है। मामूली सी शारीरिक या मानसिक विकृति वाले लोगों को आसानी से उपहास का पात्र मान लिया जाता है। इसलिए ऐसे लोगों को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना एक साथ झेलते रहने की लाचारी से गुजरना होता है। इस सामाजिक भेदभाव के कारण कर्इ माता-पिता ऐसे बच्चों का लालन-पालन पर उचित ध्यान नहीं देते। जाहिर है, ये बच्चे जीवन की दौड़ उपेक्षित किए जाने की वजहों से पिछड़ जाते हैं। साफ है यह विडंबना समाज और कानून दोनों ही स्तरों पर बरकरार है। ऐसे निशक्तों के लिए कारगर नीतियां बनाना और उनको व्यवहार में लाना सरकार की प्राथमिकताओं में सबसे निचले पायदान पर है। इस लिहाज से जरुरी है कि स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ी लोकनीतियां अशक्तों के लिए तो बनें ही, आर्थिक रुप से उन कमजोरों के लिए भी बनें, जो धनाभाव के चलते अनजाने में ही दवा परीक्षण के शिकंजे में आ जाते हैं। यदि ऐसा होता है तो देश के अशक्तों की समाज में सुविधा व सम्मानजनक स्थिति बन सकती है