अवतार का अर्थ है अवतरण अर्थात अवतरित होना

-अशोक प्रवृद्ध”-

incarnationअवतार यानि अवतरित होना न कि जन्म लेना, प्रकट होना जिस प्रकार क्रोध प्रकट होता है वह अवतरित नहीं होता उसे तो अहंकार जन्म देता है परन्तु अवतार का जन्म नहीं होता जन्म दो के संयोग से प्राप्त होता है, जैसे अहंकार और इर्ष्या का संयोग क्रोध जन्मता है | लोक मान्यता है कि अवतार अपनी लीला के द्वारा व्यावहारिक रूप से अर्थात प्रेक्टिकली कर्म कर के दिखाता है | जो – जो कर्म अवतार करता है, उसे अन्य सहायक अवतार नहीं कर पाते वह उनका बखान प्रचार करने वाले प्रचारक मात्र भर होते हैं बाकि रही बात अंश की हर जड़-चेतन भूत प्राणी उसी एक परमात्मा का अंश मात्र होता है |अवतार लेने के समय भगवान माया को अपने अधीन कर लेते हैं |

 

अवतार का अर्थ है अवतरण l प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसका अवतरण ?

इसका स्पष्ट वर्णन करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास ने श्रीमद्भगवद्गीता में योगीराज श्रीकृष्ण के मुख से कहलवाया है कि “जो – जो जगत् में वस्तु, शक्ति विभूति श्रीसम्पन्न हैं , वे जान मेरे तेज के ही अंश से उत्पन्न हैं ॥“

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८-४० में अंकित है –

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता १० – ४१

अर्थात – (यत् तत् विभूतिमत्) जो – जो ऐश्वर्ययुक्त , (सत्वम्) श्रेष्ठ पदार्थ हैं , (श्रीमत् ऊर्जितम् एव) अथवा कान्तियुक्त तथा शक्तियुक्त भी हैं l

(तत् तत् एव त्वं अवगच्छ) तुम उसे (मम तेजोंऽश सम्भवम्) मेरे तेज के अंश से उत्पन्न समझों l

स्मरणतः भगवदगीता में मम् मया इत्यादि शब्दों से अभिप्राय परमात्मा के और परमात्मा से समझना चाहिए l

इस प्रकार श्लोक का अभिप्राय यह बनता है कि इस संसार में जो – जो ऐश्वर्य , कान्ति और शक्तियुक्त पदार्थ हैं, सब परमात्मा के तेज के एक अंश से ही बने हैं l

यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी में प्राण (कार्य करने की शक्ति) परमात्मा की ही देन है l ब्रह्मसूत्र में भी कहा है कि “वाकादि इन्द्रियों के कार्यों से (प्राणी में) उस परमात्मा के चिह्न का पता चलता है .” – ब्रह्मसूत्र १-३-१८

तत्पश्चात लिखा है कि ‘यह अर्थात प्राण शक्ति उसने इतर (जीवात्मा) की सलाह से कार्य करने के लिए दी हुई है l ”

अभिप्राय यह है कि प्राणियों के प्राण अर्थात कार्य करने की शक्ति परमात्मा की है और जो विशेष विभूतियुक्त श्रीमत् और ऊर्जितम् पदार्थ अथवा प्राणी होते हैं , उनमे परमात्मा की विशेष शक्ति होती है l ऐसे प्राणी ही परमात्मा का अवतार कहाते हैं l

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आर्य इतिहास में जिस – जिस अवतार का वर्णन आया है , वे परमात्मा की विशेष प्राण – शक्ति को रखने वाले थे l इन अवतारों की गणना पुराणों में कराई गई है , ये सब ऐतिहासिक व्यक्ति हुए हैं l वास्तव में पुरातन भारतीय परम्परा (पद्धति) में इतिहास इन अवतारों का ही इतिहास है l यह पुराणों में मिलता है . इस कारण पुराण इतिहास के अंग हैं l

यह स्मरण रखा जाये कि यह आवश्यक नहींं कि अवतार मनुष्य – तुल्य प्राणी ही हो l मुख्य बात जो एक अवतार में देखने की है , वह है उसमें ईश्वरीय शक्ति . यहाँ यह भी स्मरण रखनी चाहिए कि परमात्मा का तेज अर्थात प्राण तो जीवों में भी है और निर्जीव वस्तुओं में भी है l जब परमात्मा की विशेष शक्ति किसी निर्जीव पदार्थ में होती है तो उसे देवता कहती है l जैसे अग्नि , इंद्र , वायु , वरुण इत्यादि l वे भी अवतार तब होते हैं जब वे इस सृष्टि में में विशेष ऐश्वर्ययुक्त अथवा सामर्थ्य युक्त कार्य करने के योग्य होते हैं l

महाभागवत् पुराण में अवतारों की गणना इस प्रकार है –

  • ब्रह्मा
  • सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार
  • वराह
  • नारद
  • नर – नारायण
  • कपिल
  • दत्तात्रेय
  • यज
  • ऋषभदेव
  • पृथु
  • मत्स्य
  • कच्छ
  • धनवन्तरि
  • मोहिनी
  • नरसिंह
  • वामन
  • परशुराम
  • व्यास
  • राम
  • कृष्ण
  • बुद्ध
  • कल्ङ्कि

इन अवतारों की गणना करने के उपरांत महाभागवत् पुराण का रचयिता पुराणकार कहता है-

 

अवतारा ह्यसंख्येया हरे: सत्वनिधेर्द्विजा :l

यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्यु: सहस्त्रशः ll

ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजशः l

कलाःसर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा ll

  • भागवत महापुराण १-३-२६,२७

 

अर्थात . जैसे एक सरोवर से हजारों नाले – नदियाँ निकलती हैं सत्वनिधि भगवान से सहस्त्रों ही अवतार हुए हैं l

वे ऋषि – मुनि , देव और मनु – पुत्र महान ओज वाले हुए हैं l यह वही बात हुई जो भगवद्गीता १० – ४१ में कही गई है l

परमात्मा का तेज विशेष रूप में जब किसी पदार्थ अथवा प्राणी में आता है तो वह अवतार कहाता है l

अवतार चेतन तत्व भी होते हैं और अचेतन तत्व भी l चेतन – अचेतन का अन्तर है “ईक्षण” करने की शक्ति में l ईक्षण से अभिप्राय है कार्य करने का स्थान , काल और दिशा का निश्चय करना l जो ऐसा करने की सामर्थ्य रखता है उसे चेतन कहते हैं और जो नहींं रखता वह अचेतन कहाता है l

कुछ प्राकृतिक पदार्थ भी विशेष ओजयुक्त , ऐश्वर्यवान और सामर्थ्यवान देखे जाते हैं l उन्हें भी अवतार माना जाता है l यही पुराणों की पद्धति है l दोनों में अन्तर भी यहाँ स्पष्ट है l अचेतन अवतार एक कार्य के लिए ही होते हैं और उस कार्य के उपरान्त उनका अस्तित्व नहींं रहता l अचेतन अवतार इच्छानुसार अनेक कार्य करता है l

इस कथन का प्रमाण भी श्रीमद्भगवदगीता में ही उपस्थित है l परमात्मा की विशेष विभूति से युक्त पदार्थों की गणना गीता में की गई है l उस गणना में जहां राम और कार्तिकेय का कथन है , वहाँ उसमे वज्र और हिमालय का नाम भी है l जहां बृहस्पति ,भृगु को परमात्मा की विशेष विभूति वाला माना है , वहाँ अक्षरों में ओं (ओउम्) और समासों में द्वन्द्व को भी बताया है l इस प्रकार किसी भी पदार्थ को ,जिसमें परमात्मा के तेज का अंश है , उसे परमात्मा का अवतार माना है l

 

अवतार परमात्मा स्वयं नहींं हो सकता l कृष्ण स्वयं परमात्मा नहींं थे l राम भी परमात्मा नहींं थे l इसी भान्ति बुद्ध तथा अन्य अवतार परमात्मा नहींं कहे जा सकते l वे केवल परमात्मा के तेज अर्थात प्राण की विशेष मात्र को रखने वाले होते हैं l

अतः पुराणों में वंशों का चरित् (वंशानुचरित्) से अभिप्राय है कि इन अवतारों और उनसे संपन्न होने वाली घटनाओं का वर्णन .इस प्रकार भूमण्डल के इतिहास से अभिप्राय है अवतारों का इतिहास .

जन साधारण की गाथाएं भी पुराणों में हैं ,परन्तु इतने लम्बेकाल लगभग उनचालीस लाख वर्ष काल का इतिहास लिखने में केवल विशेष विभूति युक्त पदार्थो (अवतारों) का वर्णन ही किया सकता था . इन अवतारों का इतिहास का वर्णन कर दिए जाने से भूमण्डल विशेष रूप में भारतवर्ष का पूर्ण इतिहास इसमें आ जाता है l

2 COMMENTS

  1. श्रीकृष्ण परमात्मा के अवतार नहीं वरन महान योगी थे
    डॉ. रंजित सिंह जी !
    महोदय!
    यह सर्वमान्य तथ्य है कि श्रीमद्भगवद्गीता का पूर्ण कथन उपनिषदादि ग्रंथों पर आधारित है । स्वयं श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय के चौथे श्लोक में यह स्वीकार किया है कि जो कुछ भी इस प्रवचन में कहा गया है, वही वेदों में , ऋषियों ने बहुत प्रकार से गान किया है और ब्रह्मसूत्रों में भी उसे युक्तियुक्त ढंग से स्पष्ट किया गया है , परन्तु कुछ भाष्यकारों ने गीता प्रवचन के ऐसे अर्थ निकाले हैं जो वेदादि शास्त्रों के विरोधी हैं जो कदापि मान्य नहीं हो सकते ।
    इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जो कुछ वेदादि सद्ग्रंथों में कहा गया है वही श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है ।
    इसकी पुष्टि हेतु श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय का चतुर्थ श्लोक का उद्धृत करना समीचीन होगा –
    ऋषिभिर्बहुधा गीतं छंदोंभिर्विविधैः पृथक्।
    ब्रह्मसूत्रपदैश्चचैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।।
    – श्रीमद्भगवद्गीता का तेरहवें अध्याय का चतुर्थ श्लोक
    अर्थात – इस क्षेत्र अर्थात शरीर और क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मत्त्वों के विषय में ऋषियों ने और वेदों ने विविध भान्ति से समझाया है ।इसी प्रकार ब्रह्मसूत्रों में पृथक्-पृथक् शरीर, जीवात्मा और परमात्मा के विषय में युक्तियुक्त रीति से इसका वर्णन किया है ।
    इस प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं यह बात स्पष्ट कर दिया है कि वे वही बात कह रहे हैं जो हमारे वेद शास्त्रों में आदिकाल में ही कह दी गई है ।श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण तो केवल उसका स्मरण मात्र करा रहे हैं ।श्रीकृष्ण ने अपने कर्तव्य से विमुख अर्जुन को उसके कर्तव्य का भान कराने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन किया था ।इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वैराग्य अर्थात भक्तिप्रधान अवतारवाद का ग्रन्थ नहीं अपितु कर्मयोग का ग्रन्थ है , हाँ इसमें अध्यात्म का समावेश अवश्य है ।
    श्रीमद्भगवद्गीता के अनेक भाष्यकारों ने गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान् माना है , परन्तु श्रीकृष्ण अवतार तो हो सकते हैं किन्तु भगवान् अर्थात परमात्मा नहीं क्योंकि परमेश्वरोक्त वैदिक ग्रंथों के अनुसार अनादि, अजन्मा, सर्वव्यापक , सर्वशक्तिमान परमात्मा अर्थात भगवान तो एक ही है जिसके अनेक दिव्य गुणों के कारण असंख्य नाम हैं । हाँ श्रीमद्भगवद्गीता में जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ने मैं , मेरा, मेरे द्वारा आदि शब्दों का प्रयोग किया है वह कथन ईश्वर के लिए है ।श्रीमद्भगवद्गीता २-६१ में श्रीकृष्ण के कहे अनुसार –
    तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीतमत्परः ।
    वशे ही यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।- श्रीमद्भगवद्गीता २-६१
    अर्थात -इससे उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके योगयुक्त हो मेरे (ईश्वर के) परायण कर दे । क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रिय वश में होती है , उसकी बुद्धि स्थिर होती है
    इस श्लोक में मत्परः का अर्थ है मेरे परायण। यह गीता की प्रवचन शैली है । इसका स्पष्टीकरण महाभारत अश्वमेधिक पर्व में भी किया गया है। वहाँ श्रीकृष्ण ने कहा है कि गीता का प्रवचन मैंने योगयुक्त अवस्था में किया था । उस समय मैं ऐसे गीता का प्रवचन कह रहा था मानो परमात्मा मुझमे बैठकर कह रहा हो ।

    इस प्रकार जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ने मैं, मेरा इत्यादि शब्द प्रयोग किये हैं , वहाँ उसका अभिप्राय परमात्मा का ही है ।अतः मेरे परायण का अर्थ ईश्वर के परायण समझना चाहिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा के अवतार नहीं थे बल्कि योगिराज श्रीकृष्ण का जीवात्मा दिव्य जन्म लेता हुआ भी दुसरे जीवात्माओं की श्रेणी का ही जीवात्मा था ।
    महाभारत ,अश्वमेधिक पर्व के एक प्रसंग के अनुसार महाभारत के युद्धोपरांत जब अर्जुन ने एक बार पुनः श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश सुनने की इच्छा श्रीकृष्ण से व्यक्त की तो श्रीकृष्ण ने उससे कहा –
    न च शक्यं पुनर्वक्तुं अशेषेण धनञ्जय ।- महाभारत ,अश्वमेधिक पर्व
    अर्थात – हे अर्जुन !अब मैं उपदेश को ज्यों का त्यों नहीं कह सकता ।
    इसी प्रकरण में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि वह धर्म जो मैंने गीता में वर्णन किया है वह ब्रह्मपद को प्राप्त कराने की सामर्थ्य रखता था। वह सारा का सारा धर्म उसी रूप में दुहरा देन अब मेरे वश की बात नहीं है । उस समय तो मैंने योगयुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन किया था।
    श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है –
    दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्यमे योगमैश्वरम् ।
    अर्थात – मैं तुझे दिव्यदृष्टि प्रदान करता हूँ जिससे तुम मेरी योगशक्ति दर्शन कर सकोगे ।
    इसके बाद श्रीकृष्ण ने ईश्वर का विराट रूप अर्जुन को दिखाया और उसको कहा कि ये सब तो भगवान द्वारा पहले ही मारे गए हैं , उसे तो केवल निमित बनना है –
    मयैवैते निहिता पूर्वमेव निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन ।
    ये सब तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं । हे सव्यसाची ! तुम तो केवल इसके निमित बन रहे हो। (यहाँ पर मेरे का अभिप्राय भगवान् है) ।

  2. श्री अशोक प्रबुद्ध जी,

    मान्यवर! आपने लिखा है –

    “अवतार परमात्मा स्वयं नहीं हो सकता l कृष्ण स्वयं परमात्मा नहीं थे l राम भी परमात्मा नहीं थे l इसी भान्ति बुद्ध तथा अन्य अवतार परमात्मा नहीं कहे जा सकते l वे केवल परमात्मा के तेज अर्थात प्राण की विशेष मात्र को रखने वाले होते हैं l”

    यह सब आपने कह तो दिया श्रीमान् परन्तु कैसे? क्या है प्रमाण आपके पास इस कथन की पुष्टि में कि अवतार परमात्मा स्वयं नहीं हो सकता? आपने अपने लेख में श्रीमद्भगवद्गीता की चर्चा की; परन्तु क्या भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं उसमें यह नहीं कहा कि मैं युग युग में अवतार लेता हूँ? देखें प्रमाण।

    अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
    प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
    यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
    अभुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ (४:६-७)

    और यह भी कि वे संसार के रचयिता साक्षात् भगवान् हैं, जैसे—

    १) मैं “महासर्ग के आदि में अपनी प्रकृति को वशमें करके सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति करता हूँ और महाप्रलय के समय वे सब प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं। (९।७-८)”
    २) मैं सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त हूँ और सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं। (९।४)
    ३) मैं सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए ही अवतार लेता हूँ। (४।६)
    ४) जो मेरे ईश्वर भाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना करते हैं, वे मूढ हैं, मूर्ख हैं। (९।११)
    ५) जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता तथा सम्पूर्ण संसारका मालिक, उसका स्वामी नहीं मानते, उनका पतन हो जाता है। (९।२४)
    ६) मैं सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करने वाला हूँ। मेरे अतिरिक्त उसकी रचना करने वाला अन्य कोई नहीं। मैं ही सारे जगत् में ओतप्रोत हूँ। (७।६-७)
    ७) सम्पूर्ण जगत् मेरे किसी एक अंशमें स्थित है। (१०।४२)
    ८) मैं ही अपनी प्रकृति में स्थित होकर संसार की रचना करता हूँ। (९।८)

    क्या ये सब उनकी भगवत्ता को सिद्ध नहीं करते, प्रमाणित् नहीं करते? फिर आपने यह कैसे कहा कि “अवतार परमात्मा स्वयं नहीं हो सकता l कृष्ण स्वयं परमात्मा नहीं थे l राम भी परमात्मा नहीं थे l इसी भान्ति बुद्ध तथा अन्य अवतार परमात्मा नहीं कहे जा सकते l वे केवल परमात्मा के तेज अर्थात प्राण की विशेष मात्र को रखने वाले होते हैं l”
    क्या कृपाकर बतलायेंगे?

    उत्तरापेक्षी,
    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

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