धरती को गर्म होने से बचाने का संकल्प

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संदर्भः- कार्बन उत्सर्जन कटौती के राष्ट्रिय संकल्पों का प्रारुप स्वीकृत

प्रमोद भार्गव

 

पेरु के शहर लीमा में 196 देश आखिरकार वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रिय संकल्पों के साथ, आम सहमति के मसौदे पर राजी हो गए। इसमें भारत की चिंताओं का पूरा ध्यान रखा गया है। इससे अब जलवायु संकट से निपटने के मुद्दे पर अगले साल पेरिस में होने वाले महत्वाकांक्षी और बंधनकारी समझौते का मार्ग खुल गया है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इस संकल्प पर सहमति से तीन दशक पुराना वह गतिरोध भी टुट गया, जो अमीर और गरीब देशों के बीच बना हुआ था। अब 2015 के अनुबंध के लिए व्यापक खाका पेरिस में तैयार होगा। इस पर स्वीकृति के बाद यह मसौदा 2020 तक संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों पर प्रभावशील रहेगा।

मसविदे की मंजुरी को पेरिस में वैश्विक जलवायु परिवर्तन करार तक पहुंचने की दिशा में एक बड़े कदम को आगे बढ़ाने के रुप में देखा जा रहा है। क्योंकि इसमें भारत समेत अन्य विकासशील देशों की सलाह मानते हुए मसौदे में अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया है। इस पैरे में उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े कार्बन उत्सर्जन कटौती के प्रावधानों को आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा। जो हानि और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित होगा। अनेक छोटे द्विपीय देशों ने इस सिद्धांत को लागू करने के अनुरोध पर जोर दिया था। लिहाजा अब धन देने की क्षमता के आधार पर देश कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करेंगे।

पहले के मसौदे के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे धनी देशों की बनिस्बत उनके जैसी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा। यह आशंका बाद में ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ के एक खुलासे से सही भी साबित हो गई थी। मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन कार्बन से अधिक उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा महज 2.67 टन तय की गई थी। इस पर्दाफाष के बाद कार्बन उत्सर्जन की सीमा तय करने को लेकर गतिरोध अब तक बना चला आ रहा था। अब ताजा प्रारुप में तय किया गया है कि जो देश जितना कार्बन उत्सर्जन करेगा, उसी अनुपात में उसे नियंत्रण के उपाय करने होंगे। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में फिलहाल चीन शीर्ष पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे पायदान पर है। अब इस नए प्रारुप को ‘जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान’ नाम दिया गया है। पर्यावरण सुधार के इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक समझौते के रुप में देखा जा रहा है। क्यूंकि इस समझौते से 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक कि कमी लाने की उम्मीद बड़ी है।

यह पहला अवसर है, जब उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत, ब्राजील और उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार हुईं हैं। अब जो सहमति बनी है, उसके अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देश अपने कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को पेष करेंगे। इसकी समय सीमा 31मार्च 2015 तय की गई है। यह सहमति इसलिए बन पाई क्योंकि एक तो संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टाॅड स्टर्न ने उन मुद्दों को पहले समझा, जिन मुद्दों पर विकसित देश समझौता न करने के लिए बाधा बन रहे थे। इनमें प्रमुख रुप से एक बाधा तो यह थी कि विकसित राष्ट्र, विकासशील राश्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक और आर्थिक मदद दें। दूसरे, विकसित देश सभी देशों पर एक ही सशर्त आचार संहिता थोपना चाहते थे, जबकि विकासशील देश इस शर्त के विरोध में थे। दरअसल विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक प्रौद्योगिक प्रभुत्व व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहे है। इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं। इसलिए खर्च के अनुपात में ऊजा्र कटौती की पहल भी इन्हीं देशों को करनी चाहिए। विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब थी, क्योंकि वे यदि किसी प्रावधान के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अकुंष लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थ-व्यवस्था की बुनियाद ही दरक जाएगी। भारत और चीन के लिए यह चिंता महत्वपूर्ण थी, क्योंकि ये दोनों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं। इसलिए ये विकसित देशों की हितकारी इकतरफा शर्तों के खिलाफ में थे। लेकिन अब मोटे तौर पर बनी सहमति से वे लक्ष्य संभव होते दिख रहे हैं, जिन्हें भारत और चीन पाना चाहते थे।

चूंकि यह सहमति मोटे तौर पर हुई है और पेरिस में ही समझौते का स्पष्ट और बाध्यकारी प्रारुप सामने आएगा। लिहाजा अनेक सवालों के जवाब फिलहाल अनुत्तरित हैं। इस मसौदे में इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है कि जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए वित्तीय स्त्रोत कैसे हासिल होंगे और धनराशि संकलन की प्रक्रिया क्या होगी ? हालांकि अमेरिका के विदेश मंत्री जाॅन केरी ने जो बयान दिया है, उसके चलते यह अनुमान लगाना सहज है कि अमेरिका जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट को देखते हुए नरम रुख अपनाने को तैयार हैं। क्योंकि केरी ने कहा है कि ‘गर्म होती धरती को बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए अब विकल्पों की तलाश एक भूल होगी, लिहाजा इसे तत्काल लागू करना जरुरी है।’ अमेरिका को यह दलील देने की जरुरत नहीं थी, यदि वह और दुनिया के अन्य अमीर देश संयुक्त राष्ट्र की 1992 में हुई जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहली संधि के प्रस्तावों को मानने के लिए तैयार हो गए होते ? इसके बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकाॅल में भी यह सहमति बनी थी कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण सभी देशों का कर्तव्य है, साथ ही उन देशों की ज्यादा जवाबदेही बनती है जो ग्रीन हाउस गैसों का अधिकतम उत्सर्जन करते रहे हैं। लेकिन विकसित देशों ने इस प्रस्ताव को तब नजरअंदाज कर दिया था।

दरअसल जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। क्योकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृशि को अनुकूल बनाने के लिए प्रति वर्ष करीब पांच अरब डाॅलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। अंतरराष्ट्रिय खाद्य नीति शोध संस्थान के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रही तो एशिया में 1 करोड़ 10 लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और शेष दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। इसी सिलसिले में भारत के कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन ने कहा है कि यदि धरती के तापमान में 1 डिग्री सेल्षियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है। लिहाजा वैज्ञानिकों की मंशा है कि औद्योगिक क्रांति के समय से धरती के तापमान में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसे 2 डिग्री सेल्षियस तक घटाया जाए। अब असली परिणाम पेरिस में 2015 में होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में सामने आएंगे। फिलहाल इस दिशा में दनिया एक कदम आगे बड़ी है।

 

 

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  1. I wish Hindu,s could understand,learn and fellow the pinciple of Panchmahabhuta.There is everything in our greatbooks- vedas.Hindu must weakeup and stop being fake hindu fallowers.

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