आज़म का दम और सपा मुलायम

azam khan सिद्धार्थ मिश्र “स्वतंत्र”

सपा की राजनीतिक ज़मीन और सत्ता का संचालन अब किसी से छुपा नहीं है। सपा का ये चरित्र वस्तुतः एक क्षेत्रीय दल के मूल चरित्र के अनुरूप ही है। इन दलों का मूल उद्देश्य एन-केन प्रकारेण कार्यसिद्धि कर केन्द्रीय सत्ता के कार्यों मे दखल देना या निज स्वार्थों संबन्धित मुद्दों पर मोलभाव करना होता है। इस आधार पर देखें तो सपा निश्चय ही अपना किरदार निभा रही है। अगर आपको ये तर्क कुछ अटपटा लग रहा हो तो,इस बात के ढेरों उदाहरण हैं। यथा बिहार मे रामविलास पासवान को ही ले लें उचित मोलभाव की बदौलत वे संप्रग और राजग दोनों गठबंधनों मे मंत्री पद पर आसीन हुए। इसके अतिरिक्त लालू यादव भी अपने संख्या बल के दम पर सरकारों को असहज करने के लिए जाने जाते हैं। अब यदि कार्य पद्धति की बात करें तो सपा का आचरण भी इन के जैसा ही है। इन दलों की विस्तार प्रणाली का अहम उपकरण है जाति एवं धर्म आधारित घृणित सियासत।इतिहास गवाह है की इस प्रकृति की सियासत से किसी भी देश,धर्म,जाति या क्षेत्र का कोई भला नहीं हुआ है,क्योंकि विकास की मूल अवधारणा समानता ही है। जब भी विकास का असमान वितरण होगा विद्वेष पनपेगा। और अंतरीम रूप मे कहें तो विद्वेष और विकास कभी भी एक साथ नहीं रह सकते। यही कारण की अधिकांश क्षेत्रीय दलों का कार्यकाल कभी भी विकास परक नहीं रहा । शायद यही वजह है की विभिन्न धर्म और जातियों की राजनीति करने वाले राजनेता तो अकूत सम्पदा के मालिक बन जाते हैं किन्तु उनका वोटबैंक हमेशा ही उपेक्षा का शिकार होता है। इस उपेक्षा के परिणाम स्वरूप ये दल अन्तरिम रूप से पतन की गर्त मे समा जाते हैं।

सपा के वर्तमान कार्यकाल को उपरोक्त विमर्श के आधार पर देखें तो चीज़ें खुद-बख़ुद समझ आ जाएंगी। सपा का वोटबैंक (माय) मुस्लिम यादव है। हालांकि की इस वोटबैंक की खोज का आधिकारिक श्रेय लालू प्रसाद यादव को जाता है। अपनी इस खोज की बदौलत लालू ने लगभग डेढ़ दशक तक विपक्षियों की नींद हराम कर दी थी । अगर उप्र की बात करें तो सपा ने निश्चित तौर पर इसी अवधारणा की पुनरावृत्ति की है। स्मरण रहे की पंथ-निरपेक्षता का दावा करने वाली सपा हर मुद्दे पर बुरी तरह पिट गयी है। इस बात को समझने के लिए दिग्विजय सिंह के एक बयान का हवाला देना चाहूँगा। अपने इस बयान मे उन्होने कहा कि कानून व्यवस्था के मामले मे बसपा सपा कि वर्तमान सरकार से बेहतर थी। हालांकि इस बयान मे ऐसा कुछ नहीं है जो लोगों को पता न हो लेकिन बावजूद इसके ये बयान खासा असर रखता है। वाकई चुनावी वादे लैपटाप इत्यादि के वितरण और तुष्टीकरण से भरे निर्णयों को छोड़ दे तो सपा के पास फिलहाल कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है । बहुमत से कहीं अधिक सीट जीतने के बावजूद सपा ने अपने डेढ़ वर्ष के कार्यकाल सभी को निराश ही किया है। या और भी कड़े शब्दों मे कहें तो ये सरकार अब अपनी लोकप्रियता खो चुकी है। अभी मुजफ्फरनगर और इसके पूर्व प्रतापगढ़,बरेली,मथुरा और अन्य स्थानों पर घटित 50 से अधिक सांप्रदायिक हिंसक घटनाएँ ये साबित करती हैं,कि सपा के कार्यकाल मे दंगों को बढ़ावा मिला है। इस बात को सपा नेता भले ही अस्वीकार करें किन्तु ये ध्रुव सत्य है कि इन घटनाओं के कारण अखिलेश कि लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे की ओर गिरा है। जहां तक विधान सभा चुनावों मे अप्रत्याशित सफलता का प्रश्न है तो उसके पीछे निस्संदेह अखिलेश कि विनम्र छवि और समाज के प्रत्येक वर्ग के सहयोग का बहुत बड़ा योगदान है। दुर्भाग्य से सपा के नीति-नियंता इसे कुछ खास वर्गों से जोड़कर देख रहे हैं,जिसका खामियाजा आगामी लोकसभा चुनावों मे उन्हे उठाना ही होगा। सपा नेता इस सत्य को स्वीकार करें अथवा न करें किन्तु खतरे कि घंटी बज चुकी है।

एक पुरानी कहावत है सफलता को पचाना बहुत मुश्किल होता है। संभवतः सपा का हाजमा भी सफलता से ही खराब हुआ है। स्मरण रहे कि प्रदेश कि राजनीति पर केन्द्रित रही सपा की नीतियाँ इस सफलता के बाद बिलकुल बदल गयी हैं। सत्ता मे आने के तुरंत बाद ही मुलायम ने कार्यकर्ताओं को लोकसभा कि तैयारी मे जुट जाने के लिए कहे था। मिशन 2014 का सीधा सा अर्थ था मुलायम को प्रधान मंत्री बनाना। संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री देश का सबसे बड़ा पद है । इस लिए इस कुर्सी की लालसा प्रायः हर बड़े राजनेता को होती है,मुलायम जी भी इससे इतर नहीं कहे सकते। अब जब लालसा बड़ी है तो उसके लिए वोटबैंक भी अति आवश्यक तत्व है। इसी कारण सपा ने प्रायः हर एक विषय मे मुसलमानों का हमदर्द बने रहना सबसे मुफीद समझा। अत्यधिक सरकारी संरक्षण,तुष्टीकरणपरक आर्थिक नीतियाँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इसी प्रक्रिया ने पार्टी मे आजम खाँ के कद को अनावश्यक रूप से बढ़ा दिया जो अब पार्टी के लिए मुसीबत बनते जा रहे हैं। इस बात को उनके विगत एक-डेढ़ वर्ष के कार्यकाल से समझा जा सकता है। चाहे प्रशासनिक अधिकारीयों को थप्पड़ मारने का मामला हो या बेतुके बयानों की बात हो,आज़म ने हमेशा ही सपा के लिए सिरदर्द खड़े किए हैं। आज़म के चरमपंथी कार्यकलाप अब किसी से भी छुपे नहीं हैं। अगर अंदरखाने कि खबरों पर यकीन करें तो अखिलेश का अधिकाश समय नाराज आज़म चाचा को मनाने मे ही बीतता है। ऐसा क्यों है ? इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि सपा आज़म को मुस्लिम समाज का सर्वमान्य नेता मानती है। मुलायम जी को आशा है कि आज़म आगामी लोकसभा चुनावों मे मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कर सपा को केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचाने मे बड़ी भूमिका निभाएंगे । मुलायम का यही भ्रम आज आज़म के कद को अत्यधिक विस्तार दे गया है। यही वजह है कि आज़म का बढ़ा कद अब सपा के अन्य नेताओं समेत मुस्लिम नेताओं को भी अखरने लगा है।

सपा मे दबी जुबान ही सही आज़म का विरोध होने लगा है। आगरा मे चल रही सपा कि बैठक से आज़म कि गैर मौजूदगी किसी न किसी विवाद को जन्म तो अवश्य ही देगी। इस बात को हम सपा के वरिष्ठ नेताओं के बयान से भी समझ सकते हैं। अपने हालिया बयान मे सपा नेता रामगोपाल यादव ने आज़म के रवैये पर कड़ी प्रतिक्रीया व्यक्त करते हुए पार्टी पद से इस्तीफा देने कि बात भी कही है। वहीं एक अन्य नेता व मंत्री नरेश अग्रवाल ने स्पष्ट कह दिया कि किसी भी नेता का कद पार्टी से बड़ा नहीं होता। जहां तक मुस्लिम मतों का प्रश्न है तो वो निस्संदेह नेताजी(मुलायम) कि बदौलत ही है। पार्टी के बड़े नेताओं के बयान से आज़म की वर्तमान स्वीकार्यता को बखूबी समझा जा सकता है । बावजूद इसके आज़म को मुलायम का खुला समर्थन अभी भी प्राप्त है,क्योंकि एन चुनावों के वक़्त मुलायम आज़म कि नाराजगी का जोखिम नहीं उठा सकते। ये कहना भी गलत नहीं होगा कभी मुलायम कि छाया मे पले आज़म आज मुलायम की सियासी मजबूरी बन चुके हैं॥ इसलिए देर शाम तक मुलायम को ये कहना पड़ा कि हमसे रूठ नहीं सकते आज़म । अब इस मामले मे मुलायम जी कि सियासी मजबूरीया जो भी हों पर आजम के दम के आगे सपा का मुलायम होना पार्टी की नियति बन चुकी है। जहां तक इन विषम पारिस्थतियों कि निर्मिती का प्रश्न है तो निसंदेह इसके पीछे सपा कि तुष्टीकरण परक नीतियाँ ही जवाबदेह हैं।

 

 

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