आँख के दिए की बाती
पीती रही है रुधिर की धार जो
अवरूद्ध होने लगी है.
मेरे मन संकल्प का दिया
कब तक जलेगा
नहीं जानता,
मस्तिष्क में बहुत सोच बाकी है
शब्दों का रूप देने की उतावली है,
लेकिन जलते बुझते इस दिए के
अनिश्चित से व्यवहार को देख
प्रकाश के अभाव में
कहाँ तक और कब तलक चलेंगी
वे उँगलियाँ जो निराकार को देती रहीं
आकार
विचार को गति
गति को दिशा
दिशा को पथ
पथ को लक्ष्य
सदा स्पष्ट रहा जो जीवन भर.
कहने भर को मैं दूर रहा
फिर भी हर क्षण माँ
तुझको ही जीआ मैंने
तेरे चरणों की ही रज
माथे पर रच कर
हर श्वास में तव नाम जपा
जग भर में चलते रह कर
अस्तांचल में पहुंचा हूँ.
घटते पग हैं
संकरे पथ हैं
कंकर पत्थर हैं
थका नहीं हूँ मैं
बस पल भर को थमा हूँ
बाट जोह रहा हूँ उसकी
जो दिल की धड़कनों को सुन ले
और जान ले बस इतना कि
कैसे पहुँचाना है
भारतीयत्व का अमर सन्देश
उन दिलों तक
जो अभी धड़के नहीं हैं.
नव दीपों की बाती को
मिले नव प्रखर रुधिर
जलते रहें वे पल पल
आलोकित करते
राष्ट्रसाधना पथ.
कैसी भारतीयता व कैसा भारतीयत्व?
आलोकित नहीं, मुखौटा पहने
कौन पहचाने राष्ट्रसाधना पथ?
सदियों से दासत्व ने
मित्र और शत्रु के बीच धुंधली रेखा ने
अनुपयुक्त नेतागिरी ने
पेट की क्रूर भूख ने
अनैतिकता और भ्रष्टाचार ने
और फिर वैश्वीकरण में मची दौड़ ने
भुला दिया है भारतीयत्व का अमर सन्देश!
भुलाने के समस्त कारणो के बावजूद भारतीयत्व को भुला सम्भव नही.
कवि की कल्पना है, मैं इसे सार्थक कैसे जानूँ? मालूम नहीं, मुझे आज बचपन में पढ़ी एक लघुकथा, “बूंदी का किला,” क्योंकर याद आ रही है और ऐसा अहसास हो रहा है कि मुंशी प्रेम चंद रचित उपन्यास “निर्मला” के तोताराम घर आ पहुंचे हैं|
और जान ले बस इतना कि,
कैसे पहुँचाना है;
भारतीयत्व का अमर सन्देश,
उन दिलों तक,
जो अभी धड़के नहीं हैं|
नरेश जी, आप इसी भाँती सन्देश पहुंचाते रहिए|
नितांत अनुभूति करवाती कविता है, आप की|
धन्यवाद