कमजोर होती जनता की लड़ाई
रविवार को एक दिन के सांकेतिक अनशन से करीब आए अन्ना-रामदेव की सफलता-असफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि दोनों में से कौन सर्वोच्चता एवं आत्म-मुग्धता का भाव त्यागने में अपनी दूरदर्शिता का परिचय देता है? दरअसल एक दिन के इस सांकेतिक अनशन के दौरान तीन ऐसी बातें उभर कर सामने आई हैं जिनसे टीम अन्ना और रामदेव की भ्रष्टाचार एवं काले धन की लड़ाई की सफलता संदिग्ध जान पड़ती है| पहली, जंतर-मंतर के पास संसद मार्ग पर जहां बाबा और टीम अन्ना एक दिन के सांकेतिक अनशन पर बैठे थे, वहां लगे पोस्टर तथा बैनरों में बाबा रामदेव के इतर किसी का चेहरा ढूंढे नहीं मिल रहा था| बाबा ने सांकेतिक अनशन के दौरान भी स्वयं तथा अपने पतंजलि योग पीठ का प्रचार-प्रसार करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी| उपस्थित जनसमुदाय में अधिकतर लोग बाबा के अनुयायी थे या बाबा की टीम के सदस्यों द्वारा लाए गए थे| फिर अनशन स्थल पर बाबा के स्वदेशी निर्मित वस्तुओं के प्रचार हेतु पेम्पलेट भी बांटे जा रहे थे| यानी बाबा ने सरकार को चेतावनी देने के बहाने ही सही किन्तु स्वयं के प्रचार-प्रसार में कोई कसर नहीं उठा रखी थी| इस बात से इंकार नहीं है कि बाबा का स्वयं का कमाया हुआ एक बड़ा विशाल समर्थित समूह है किन्तु बाबा ने आर्थिक हितों के मद्देनज़र जिस प्रकार इस समूह का इस्तेमाल सरकार को अस्थिर करने हेतु किया है उससे उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता का पता चलता है|
दूसरे जब अरविन्द केजरीवाल ने मंच पर नेताओं के खिलाफ बोलना शुरू किया तो बाबा की अस्थिरता काफी कुछ बयाँ कर गई| दरअसल ४ जून २०११ की अर्धरात्रि को हुए पुलिसिया तांडव को बाबा भूले नहीं हैं| उस काली रात के बाद से जिस तरह बाबा के आर्थिक साम्राज्य के पीछे ईडी तथा सीबीआई की टीमें लगाई गई हैं उससे बाबा के मन में राजनीति में व्याप्त गिरगिटिया रंग की ताकत का डर समा गया है| पिछले वर्ष अपने एवं समर्थकों के साथ हुए ज़ुल्म को उन्होंने सीधे तौर पर सोनिया गाँधी की साजिश बताया था किन्तु ठीक एक वर्ष बाद सोनिया गाँधी के प्रति एक शब्द भी नहीं बोल पाए| जहां तक बात अरविन्द केजरीवाल के नेताओं के प्रति बोले गए वक्तव्यों की है तो सभी जानते हैं कि बाबा के कई मंत्रियों, नेताओं से सीधे संबंध हैं| कई मंत्रियों-नेताओं के तो आर्थिक हितों को भी ध्यान रखते हैं बाबा| लिहाजा अरविन्द केजरीवाल के वक्तव्य से बाबा का असहमति जताना चौंकाता नहीं है| मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, सुबोधकांत सहाय जैसे कई नेताओं के आर्थिक हित बाबा के अरबों के साम्राज्य में या तो जुड़े हैं या भविष्य में जुड़ने वाले हैं| बाबा ने जिस तरह अरविन्द केजरीवाल से असहमति जताई उससे रुष्ट होकर अरविन्द मंच छोड़कर चले गए| हालांकि बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण भी दिया मगर तब तक सारी स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी| कई दिनों से मीडिया में बाबा-टीम अन्ना के बीच मतभेद की ख़बरों पर मुहर लग चुकी थी|
तीसरा, जब मंच पर अन्ना आए तो उन्होंने सरकार को सीधे चुनौती देने से इतर चरित्र निर्माण पर जोर दिया| हाँ, शब्दों की जादूगरी से उन्होंने मीडिया की मौजूदगी में यह कहकर सनसनी फैला दी कि अब बाबा हमारे साथ है अतः भ्रष्टाचार, काले धन एवं जनलोकपाल की लड़ाई को ताकत मिलेगी| अन्ना की इस बात से यक़ीनन बाबा को गहरी चोट लगी होगी| कहाँ तो बाबा मंच सहित उपस्थित जनसमुदाय में स्वयं का प्रचार-प्रसार तन्मयता से कर रहे थे और कहाँ अन्ना ने बाबा को खुद उनके पास आने का कहकर बाबा को निरुत्तर कर दिया| अन्ना ने अपने कहे से एक तीर से दो शिकार किए| अव्वल तो उन्होंने बाबा को यह अहसास करवा दिया कि अन्ना और उनकी टीम को बाबा की नहीं बल्कि बाबा को अन्ना और उनकी टीम की ज़रूरत है| दूसरे, कुछ माह पहले बाबा अचानक अन्ना को लेकर प्रेस कांफ्रेंस में पहुँच गए थे जिसका टीम अन्ना के सदस्यों द्वारा कड़ा विरोध किया गया था| आम जनता में यह संदेश गया था कि बाबा ही अन्ना को लेकर प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचे हैं और अब अन्ना और उनकी टीम हालिया विवादों से इतनी कमजोर हो गई है कि उन्हें बाबा की ज़रूरत पड़ गई है| अन्ना ने इस तरह बाबा को आइना भी दिखा दिया कि उनसे ज्यादा बाबा का अन्ना और उनकी टीम से जुड़ना फायदेमंद होगा|
देखा जाए तो इन तीनों घटनाओं के गहरे निहितार्थ निकलते हैं| बाबा और टीम अन्ना के बीच अभी भी कहीं न कहीं मन-भेद हैं जो उन्हें एक होने से रोक रहे हैं| दोनों ही मीडिया की सुर्खियाँ बढ़ाकर अपनी लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं; ऐसे में दूसरे से कमतर होना लोकप्रियता की दृष्टि से दोनों के लिए आत्मघाती होगा| फिर बाबा को योग से अधिक अपने अरबों के आर्थिक साम्राज्य की चिंता है और टीम अन्ना को अचानक मिली लोकप्रियता को खोने का डर| हाँ, अन्ना के पास ज़रूर खोने के लिए कुछ नहीं दिखता| लिहाजा टकराव की खबरें बाबा और टीम अन्ना के बीच ही नज़र आती हैं| इतना सब होने के बाद स्वतः अनुमान लगाया जा सकता कि बाबा और टीम अन्ना का सामाजिकता और सुशासन का दावा दरअसल वैचारिक रूप से कितना खोखला तथा ज़र्ज़र है| सभी को अपने हितों की पड़ी है तो देशहित की बात कौन करेगा? फिर एकतरफा केंद्र पर निशाना साधना भी उनकी सोच के दायरे को सीमित करता है| क्या जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं वहां राम-राज्य की अवधारणा का अवतरण हो चुका है? कदापि नहीं| तब कैसे बाबा और टीम अन्ना एक ही दल पर पिल पड़े हैं? इस तरह तो दोनों ही आम जनता को सपने दिखाकर उन्हें छल रहे हैं| भ्रष्टाचार, काले धन एवं जनलोकपाल की लड़ाई इन दोनों की नहीं अपितु भारत वर्ष के हर उस व्यक्ति की लड़ाई है जो इनसे दुखी है| अतः बाबा और टीम अन्ना का साथ आना और वो भी बिना मन-भेद ज़रूरी है वरना तो इस लड़ाई में सभी हारते नज़र आते हैं|