बलूचिस्तान पीओके – मोदी का मारक हथियार

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बलूचिस्तान

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नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के विरुद्ध अपनें चौताफा घेराबंदी के अभियान के तरफ एक नया और मारक हथियार चला दिया है. हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने बलूचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर व गिलगित की स्वतंत्रता वहां के लोगों पर हो रहे अत्याचार , मानवाधिकार हनन व धार्मिक, नस्लीय, क्षेत्रीय भेदभाव के विरूद्ध मुखर आवाज लगा दी है. खान अब्दुल्ला गफ्फार खान अर्थात सीमान्त गांधी के साथ स्वतंत्रता के समय हुआ ब्रिटिश, पाकिस्तानी व भारतीय संवाद सभी के स्मरण में होगा. सीमान्त गांधी कभी नहीं चाहते थे कि बलूचिस्तान पाकिस्तान के कब्जे में जाए वे वहां की बलूच जनता के सच्चे हमदर्द प्रतिनिधि थे व स्पष्ट तौर पर भारत के साथ रहना चाहते थे. ब्रिटीसर्श बलूच क्षेत्र को प्रारंभ से स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में विकसित करनें की योजना बना रहे थे. 1944 में ब्रिटिश अधिकारी जनरल मनी ने इस योजना पर कार्य प्रारंभ कर दिया था. किन्तु बाद में जिन्ना माऊंटबैटन के मध्य पकी किसी खिचड़ी की अवैध संतान के रूप में पाकिस्तान कब्जे वाला बलुचिस्तान जन्मा जो आज भी विवादित है और पाकिस्तान से स्वतंत्र होना चाहता है. पाक के विरुद्ध बलूच जनता के संघर्ष का एक बड़ा इतिहास रहा है व संघर्ष व बलुचों पर अत्याचार व उनकी पीड़ा की एक लम्बी गाथा रही है जिससे पूरा विश्व परिचित रहा है किन्तु भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बलूचिस्तान के प्रश्न को मुखरता से उठाये जानें के बाद बलूच प्रश्न अब अन्तराष्ट्रीय मंचों पर अपनी जगह बनानें लगा है. 1970 के दशक में बलूचिस्तान में बलूच राष्ट्रवाद का उदय हुआ जिसके बाद व पूर्व भी कई बार बलूचिस्तान को पाकिस्तान से मुक्त करानें, स्वशासी बनाने व एक पृथक राष्ट्र का रूप देनें के कई प्रयास हुए. स्थानीय बलूच नेता समय समय पर बलूचिस्तान के साथ हो रहे सौतेले क्षेत्रवाद, बलूच संसाधनों के अंधाधुंध दोहन व बलूच जनता को मिल रहे विकास के अल्पतम अवसरों के विरुद्ध आवाज उठाती रही है. अब हाल ही में जब भारतीय प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से व अन्य अवसरों पर बलूच राष्ट्र की बात करना प्रारम्भ की है तब पाकिस्तान का चौकना व तिलमिलाना स्वाभाविक ही है.

कश्मीर मुद्दे, पाक प्रेरित आतंकवाद व घाटी में अलगाववाद की आग को भड़काने की नापाक हरकतों से किसी भी कीमत पर न चुकनें वाले पाकिस्तान के लिए ये नया किन्तु एक बड़ा व तगड़ा झटका है. प्रधानमन्त्री मोदी ने मामलें को केवल यहीं तक सीमित नहीं रखा अपितु बलूचिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में लोगों पर पाकिस्तानी अत्याचार व गिलगित का मुद्दा भी उठाया. एक विस्तृत किन्तु लगभग निर्जन क्षेत्र बलूचिस्तान में पाक का 3.6% हिस्सा यहां रहता है. यह पाकिस्तान का बहुत पिछड़ा-ग़रीब क्षेत्र है, लेकिन खनिज के क्षेत्र में समृद्ध है, जिसका लाभ यहीं की जनता को नहीं मिल पा रहा है. 1948 से ही ये लोग आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. पाकिस्तानी सेना का दमन यहां जारी है. सेना पर शांति के नाम पर हजारों लोगों की गिरफ्तारी, अपहरण और ह्त्याओं के आरोप हैं. सेना- सरकारी नौकरियों में बलूचियों पर रोक लगा रखी है. बलूचिस्तान को पाक की सोनें की खान यूं ही नहीं कहा जाता यह क्षेत्र सचमुच एक प्राकृतिक संसाधन परिपूर्ण समृद्ध क्षेत्र है. 1952 में यहां के डेरा बुगती में गैस भंडार मिला था. 1954 में गैस उत्पादन शुरू हो गया. बलूचिस्तान को छोड़ दूसरे हिस्सों में सप्लाई हुई किन्तु बलूच जनता को इसका कोई लाभ नहीं मिला. बलूच विवाद तो पाकिस्तान बनने के कुछ समय बाद ही शुरू हो गया था. 15 अगस्त 1947 को बलूचिस्तान ने आजादी का ऐलान भी कर दिया था लेकिन 1948 में उन्हें दबाव के तहत पाक के साथ मिलना पड़ा. अप्रैल 1948 में पाक सेना ने मीर अहमद यार खान को जबरन अपना राज्य कलात छोड़ने पर मजबूर कर दिया था. उनसे कलात की आजादी के खिलाफ एग्रीमेंट साइन करवा लिए गए थे. अब पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित व बलूचिस्तान की आजादी के प्रश्न को भारत के दृढ़ समर्थन मिलनें के बाद बलूचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर व गिलगित में हवा बदलनें लगी है. अब जहां रूस व संयुक्त अरब अमीरात बलूच स्वतंत्रता का समर्थन करनें लगे है वहीँ हाल ही में कनाडा व जर्मनी में बलूच स्वतंत्रता समर्थक प्रदर्शन हुए हैं. अफगानिस्तान के भूतपूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने भी नरेंद्र मोदी के बलूच पर रुख का स्वागत किया है. हाल ही में बलूचिस्तान में रह रहे व विदेशों में रह रहे कई बलूची नेताओं, संगठनों व मचों ने नरेंद्र मोदी की इस पहल का खुले मन से मुखर स्वागत किया है.

अब बलूचिस्तान के अनेकों नेता, सामाजिक कार्यकर्ता व मानवाधिकारी संगठन बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के लिए नए सिरे से आन्दोलन प्रारंभ कर रहें हैं व भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हुए उनके प्रति आभार भी प्रकट कर रहें है. बलूच नेता भारतीय राजनय पक्ष से यह स्पष्ट आशा व्यक्त कर रहें हैं संयुक्त राष्ट्र में भारत बलूचिस्तान के प्रश्न को प्रभावी ढंग से उठाएगा. इस सम्बंध में अब भारत के बांग्लादेशी स्वतंत्रता के समय अपनाई गई भूमिका की तरह ही बलूच स्वतंत्रता हेतु भी उसी प्रकार की भूमिका उठाये जानें की बात राजनयिक मंचों पर रखी जाने लगी है. पाक के विरुद्ध बलूच जनता के संघर्ष का अपना दीर्घ व सुदृढ़ इतिहास रहा है जो कि 1945, 1958, 1962, 1973-77 में होता रहा है. पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ के सत्ता संभालनें के बाद बलूच में स्वतंत्रता हेतु नए सिरे से संघर्ष प्रारंभ हुआ. बलूची संसाधनों से खनिज का अंधाधुंध दोहन, बलूच संसाधनों से पाकिस्तानी जर्जर अर्थव्यवस्था को संभालना, आम बलूचों को वहां के आतंकवादी शिविरों के माध्यम से धमकाना यहां आम बात है. महिलाओं पर पाशविक अत्याचार, उन्हें जबरन वैश्यावृत्ति में धकेला जाना, रोजगार का भयंकर अभाव होना, आम बलूच जनता को येन केन प्रकारेण मताधिकार से वंचित करना, इस क्षेत्र में अत्याचार के आम माध्यम बन गए हैं. एक ओर गरीबी , बेरोजगारी, संसाधनों व इन्फ्रास्ट्रक्चर का भयंकर अभाव बलूच क्षेत्र को नर्क की स्थिति में ला खड़ा करता है तो दूसरी ओर मानवाधिकारों के भयंकर हनन वाला प्रशासकीय रवैया बलूच जनता को न जीनें देता है न मरनें. धार्मिकता के आधार भी भयंकर शोषण यहां के लोगों का होता है. नारकीय स्थिति में रह रहे बलूच व पाक अधिकृत कश्मीर के लोग अब इस नई स्थिति में भारत की तरफ आशा की नई टकटकी लगाए हुए है. देखना है कि बांग्लादेश को जन्म देनें का अन्तराष्ट्रीय श्रेय पाने वाला भारत और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित व बलूचिस्तान के विषय में क्या कर पाते हैं?!

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