बांगड़ की मरू जानती है
गिरिकुहरों में उन गीतों की गूंज
कंपाती है आज भी,
पर देती है जोश भी !
मानगढ़ आज भी मान से
याद करता है- आहूती
काँपता है आज भी उन चीखों से
ओ महुआ में मौजूद है अब भी बलिदान की गंध !
भुलाया गया एक बार फिर किसी क्रान्तिकर्ता को…
पर माही से पूछो जिसका पानी
रक्तिम था पूर्णिमा को !
उन दरख्तों से
जो आज भी
याद कर
हिलना बंद कर देते हैं
ओ सखुआ मौन हो आँसू बहाता है !
कारण यूँ ही नहीं ।
तभी तो भूरेटिया, काँपते हैं आज भी,
नाम सुन ‘गोविन्द गुरु’…..