विवेक सक्सेना
बांग्लादेश में मोईतुर रहमान निजामी की फांसी की खबर पढ़कर अचानक यादों में खो गया। 45 साल कैसे बीत गए इसका पता ही नहीं चला। तब मैं किशोर था। बांग्लादेश में पाकिस्तानी सेना का दमन चक्र शुरु हो गया था। बड़ी तादाद में पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थियों का भारत आना शुरु हो गया था। तब उन्हें आज की तरह न तो कोई नफरत की नजर से देखता था और न ही उन्हें भारत पर पड़ने वाला बोझ माना जाता था। तब हम सब लोग उनकी मदद के लिए चंदा इकट्ठा करते थे। भारत सरकार ने तो बाकायदा उनके लिए पैसा इकट्ठा करने के दो-दो पैसे का डाक सरचार्ज लगाया था जिसके लाल रंग की डाक टिकट पर शरणार्थी सहायता लिखा होता था। हर टिकट के साथ इसे लगाना जरुरी था। उन्हीं दिनों रुना लैला चर्चा में आयीं। वे वहां से भाग कर भारत पहुंचीं और यह कहना मुश्किल है कि उन्हें शोहरत दिलवाने में ‘दमादम मस्त कलंदर’ गाने की ज्यादा भूमिका रही या उनकी दयनीय हालत की।
वहां जो नरसंहार हुआ उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। अविभाजित पाकिस्तान में पूर्वी व पश्चिमी हिस्सों के बीच एक हजार किलोमीटर से ज्यादा का फासला था। जहां पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाबियों का राज था वहीं पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में बांग्लाभाषी मुसलमान, हिंदू, बौद्ध व बिहार से गए लोग रहते थे। वे उतने कट्टर नहीं थे।
पूर्वी पाकिस्तान को लेकर जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी की क्या सोच थी, इसका पता तो उनके इस बयान से ही मिल जाता है कि उन्होंने कहा था कि न केवल भौगोलिक दृष्टि से यह जगह नीचे स्तर की है बल्कि यहां के लोग भी निम्न स्तर के है। मैं तो इस हरामजादी कौम की नस्ल ही बदल कर रख दूंगा।
पाकिस्तान ने बांग्लादेश में 26 मार्च 1971 से अपना आपरेशन सर्चलाइट शुरु किया। यह आतंक फैलाने का दौर था। इस दौरान मुजाहिद्दीन व जमात-ए-इस्लामी की शाखा अल बद्र व अलशम्स ने हैवानियत की सभी सीमाएं तोड़ने में पाक सेना की पूरी मदद की। उस समय मोइतुर रहमान निजामी जमात-ए-इस्लामी के छात्र संगठन के अध्यक्ष थे। उन्होंने चुन-चुन कर पाक विरोधियों की हत्याएं कीं। करीब 30 लाख लोग मारे गए। सात साल की बच्ची से लेकर 75 साल की वृद्धा तक को पाक सेना के शिविरों में ले जाकर उन्हें बंधक बनाकर उनके साथ बलात्कार किया।
उन्होंने बांग्लादेश के बुद्धिजीवियों की हत्या को अंजाम देना शुरु किया। ढाका यूनीवर्सटी के प्राध्यापक, लेखक, कवि, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पत्रकारों आदि को चुन-चुनकर निशाना बनाया गया। खासतौर से बंगाली भाषी इसका सबसे ज्यादा शिकार हुए। करीब 9 माह के पाक सेना के कब्जे के दौरान 991 शिक्षक, 91 पत्रकार, 49 डाक्टर, 42 वकील, 16 लेखक मार दिए गए। वह विभीषिका कितनी जघन्य रही होगी इसका अनुमान तो इस बात से लगाया जा सकता है कि आज बांग्लादेश में 14 दिसंबर को शहीद बुद्धिजीवी दिवस के रुप में मनाया जाता है।
मारे जाने वालों में कुछ चर्चित नाम डा. गोविंद चद्र देव, डा. मुनीर चौधरी, डा. अनवर पाशा, डा. मोहम्मद फजर रब्बी, शहीदुल्ला कैसर, सेलिंग परवीन, जहीर रहमान सरीखी हस्तियां शामिल थीं। आपरेशन सर्चलाइट के नाम से छेड़े गए इस अभियान में महिलाओं की छातियां तक काट दी गई। सड़क पर उनके साथ बलात्कार किए गए। गर्भवती हो जाने पर उन्हें गोली से उड़ा दिया गया। बांग्लादेश के आजाद होने के बाद वहां के पहले राष्ट्रपति मुजीबुर्र रहमान ने जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया मगर अगस्त 1975 में उनकी हत्या करने के बाद उनका तख्ता पलट कर दिया गया व सैनिक शासक जिया उर रहमान ने 1977 में जमात से प्रतिबंध हटा दिया।
उसके बाद यह संगठन अपनी जड़े जमाने लगा। इस कटरपंथी संगठन के आतंकवादियों के साथ गहरे संबंध रहे हैं। यह मूलतः पाक समर्थक व भारत विरोधी हैं। यह अपने इस्लामी छात्र शिविर नामक छात्र संगठन के जरिए वहां युवाओं को बरगलाता रहता आया है। आज स्थिति यह है कि जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की सबसे बड़ी कट्टरपंथी ताकत बन चुका है। इसके अध्यक्ष मोइतुर रहमान निजामी पर यह साबित हो चुका था कि अलबद्र का प्रमुख रहते हुए उसने 1971 में वहां के लोगों पर अमानवीय जुल्म किए। वह व्यक्ति चुनाव जीता और वहां की सरकार में उद्योग व कृषि मंत्री भी रहा। उस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे जब तक बांग्लादेश नेशनल पार्टी की सरकार रही उसने जमकर कमाई की और उसका बाल भी बांका नहीं हुआ।
निजामी को इंटरनेशनल वार क्राइम ट्रिब्यूनल आफ बांग्लादेश ने 14 अन्य लोगों सहित युद्ध अपराध का दोषी पाया। इनमें से 4 को मौत की सजा दे दी गई है। उसे 30 जनवरी 2014 को फांसी की सजा सुनाई गई। उसकी दया याचिकाओं को बांग्लादेश के राष्ट्रपति अब्दुल हमीद दो बार ठुकरा चुके हैं। हाल ही में बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने भी उसी याचिका को ठुकराते हुए सजा बहाल रखी है। अहम बात तो यह है कि इस साल वहां का प्रधान न्यायाधीश एक हिंदू सुरेंद्र कुमार सिन्हा है। बांग्लादेश के इतिहास में वे ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बनने वाले पहले हिंदू थे। पाकिस्तान उसे मौत की सजा दिए जाने का विरोध कर रहा है। इस बारे में बांग्लादेश के विदेशमंत्री शहरयार आलम ने कड़ी नाराजगी जताते हुए इसे अपने देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करार दिया है। उसे बांग्लादेश का मिनी बिन लादेन भी कहा जाता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि अभी तक ‘रहमानीजी’ की फांसी पर अपने दिग्विजय सिंह ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है।