नरेश भारतीय
जनतंत्र के त्यौहार को अब तक उमंग और उम्मीद के साथ मनाया जाता रहा है. लेकिन इस बार जिन निहित स्वार्थों ने जनतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं को धत्ता बताते हुए जिस तरीके से चुनाव राजनीति में व्यक्तिगत कीचड़ फैंकने और फैलाने की दुर्गंधात्मक रीत कायम करने की हरकत की है वह अत्यन्त शर्मनाक है. सब जान गए हैं कि यह हरकत कर कौन रहा है. सब जान चुके हैं कि कांग्रेसी ब्रांड के कथित सेकुलरवाद के नाम पर देश के पारम्परिक सर्वधर्मपंथ सम-सम्मान की राष्ट्रीय परम्परा के प्रति भ्रम प्रसार करके सामजिक एकता को खंड खंड करने के लिए कौन ज़िम्मेदार है. कौन हैं वे लोग जिन्होंने सेकुलरवाद का मापदंड किसी के द्वारा किसी टोपी विशेष को पहनने तक सीमित कर दिया है? कौन हैं वे लोग जो यह जानते हुए भी कि मज़हब के नाम पर वोट मांगना चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है इमाम बुखारी से मुसलमानों की सामूहिक वोट उनके लिए सुरक्षित बनाने की अपील करने से झिझकते नहीं? कौन हैं जो बरसों से देश को घपले घोटालों की दलदल में धकेलते चले आए हैं और आँख मूंद कर भ्रष्टाचार को अपने पांव पसारने देते रहे हैं? कौन हैं वे जो देश के अंदर कानून और व्यवस्था को इतना मज़बूत नहीं रख पाए कि महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराधों की ठोस रोकथाम हो सके? कौन हैं जो देश की सीमाओं के अतिक्रमण को रोकने की समुचित व्यवस्था करने में नाकाम रहे हैं? कौन हैं जो पाकिस्तान की शह पर देश में बढ़ते आतंकवादी हमलों को रोकने के लिए सशक्त कदम नहीं उठा पाए?
वर्तमान चुनावी युद्ध में, जब देश के कोटि कोटि मतदाता अपने जनप्रतिनिधि चुनने के संवैधानिक अधिकार का उपयोग करने में जी जान से जुटे हैं, वंशवादी कांग्रेस के युवराज राहुल समेत अनेक नेतागण पराजय की निकटता का स्पष्ट आभास पा कर अपनी सुध बुध खो रहे हैं. प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के सर्वाधिक लोकप्रिय बने प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के द्वारा देश की महती समस्याओं के सम्बन्ध में उठाए जाने वाले प्रश्नों का कोई भी युक्तियुक्त उत्तर न तो कांग्रेस से मिला है और न ही किसी और राजनीतिक दल के नेतृत्व से. सच्चाई यह है कि श्री मोदी के प्रबल वेग से छोड़े जा रहे तर्क बाणों का सामना नहीं कर पा रहे उनके विरोधी. राहुल ने हाल के दिनों में अपने भाषणों की अदायगी में कुछ सुधार अवश्य किया है लेकिन किसी भी विषय की गहराई तक पहुंचने की उनकी असमर्थता उनके अप्रासंगिक तर्को की चेष्ठा में अभी भी स्पष्ट झलकती है. बस आँख मूंद कर एक ही राग अलापा जा रहा है ‘मोदी को रोको’. देश तबाह हो जाएगा. देश के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे. सोचता हूँ देश के टुकड़े करने का काम तो सर्वप्रथम कांग्रेस ने ही किया था. यह तो १९४७ में हुए भारत विभाजन के इतिहास से ही स्पष्ट हो जाता है. इसके लम्बे चौड़े विश्लेषण की कोई आवश्यकता ही नहीं है. हमारी आज़ादी की शर्त ही थी कि अंग्रेजों के साथ वार्ताओं में व्यस्त कांग्रेस इस विभाजन को स्वीकार करे. विस्मय होता है जब नेहरु वंशवादी कांग्रेस के नेता अभी तक देश को आज़ादी दिलाने का श्रेय लेते नहीं थकते. इन चुनावों में भी राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने मुद्दों की लड़ाई लड़ने से परहेज़ किया है.
भाजपा के द्वारा हाल ही में प्रकाशित अपने नीति घोषणापत्र में भी राष्ट्रीय महत्व के सभी मुद्दों पर पार्टी का रुख़ स्पष्ट हुआ है. भ्रष्टाचार, देश की आंतरिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, सीमा सुरक्षा, कश्मीर, समान नागरिक संहिता, राम मंदिर का संवैधानिक प्रावधानों के अनुगत निर्माण संभव करना इत्यादि. श्री मोदी ने अपने विरोधियों का मुंह बंद करते हुए देश के लोगों के समक्ष मुखरता के साथ यह स्पष्ट किया है कि वे समाज के किसी एक वर्ग के तुष्टिकरण के लिए अपने सर पर कोई विशिष्ट टोपी पहनने में विश्वास नहीं करते. उन्हीं के कथनानुसार, उनकी दृष्टि में देश का हर नागरिक समान है. इसका अर्थ स्पष्ट है कि उनकी सोच व्यावहारिक रूप से नागरिक समानता सुनिश्चित करने की है. इस पर भी वे व्यक्तिगत रूप से क्या हैं उसकी अपनी अलग पहचान है जो वे बनाए रखना चाहते हैं. मैं इसे स्वस्थ लोकतंत्रीय परम्परा के अनुरूप संविधान सम्मत एक राष्ट्रपुरुष का सही दृष्टिकोण मानता हूँ. दूसरा मुख्य मुद्दा है कि देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी पैठी हैं. यह सभी राजनीतिक बखूबी जानते हैं. उन्हें खोद कर काटने और जड़ों को जला कर सदा के लिए नष्ट कर देने के उपाय किए जाने की आवश्यकता है. मोदी में इतना दम खम है कि भ्रष्टाचार के रोग का समूल नाश करने के समुचित इलाज सोचें और सख्ती के साथ उसकी व्यवस्था लागू करवाएं. प्रकट कारणों से अभी तक कांग्रेस ने इस रोग के इलाज के लिए कोई विश्वस्त टिप्पणी नहीं की है. केजरीवाल ने भ्रष्टाचार उन्मूलन का नारा देकर नई पार्टी खड़ी कर दी. उन्हें कदम आगे बढ़ते ही इसलिए सफलता प्राप्त हुई क्योंकि देश की जनता इस विषय पर आक्रोशित है. लेकिन दिल्ली में हुए इस प्रयोग का हुआ क्या?
दिल्ली के लोगों को अपनी भूल समझ लेने में अधिक समय नहीं लगा. अपनी जिन आशाओं को पूर्ण होते देखने के लिए उन्होंने उसके पर्याय नामकृत ‘आम आदमी पार्टी’ पर भरोसा करके उसे पलक झपकते ही अपने सर आँखों पर धर लिया ४९ दिनों में ही मैदान छोड़ कर भाग खड़ी हुई. दिल्ली की सरकार चलाने का दंभ भरने और बहुत कुछ कर डालने का ढिंढोरा पीटने वाले केजरीवाल ने अंतत: अब स्वयं स्वीकार कर लिया है कि उन्होंने ऐसा करके जल्दबाजी की थी. वे दूसरों पर कीचड़ फैंकने की राजनीति पर विश्वास करने वाले ऐसे नव-राजनीतिक हैं जो समझते हैं कि राजनीति मात्र एक खेल है. कांग्रेस और भाजपा दोनों को एक साथ निशाना बनाओ और धराशाई करके स्वयं आगे बढ़ जाओ. खूब जोर शोर से उन्होंने धूल कीचड़ उड़ना शुरू कर दिया. लेकिन उनके इस खेल में हवा का वेग और दिशा विपरीत होते ही दूसरों पर फैंका जाने वाला कीचड़ पलट कर खुद पर ही आ पड़ने लगा.
दिनरात देश के करोड़ों लोगों के उनके साथ होने का भ्रामक नारा देते समय केजरीवाल यह भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में जनता किसी एक पार्टी की बपौती नहीं होती. सभी पार्टियाँ अधिक से अधिक जनता का साथ पाने के लिए स्पर्धा में उतरती हैं. लोकतंत्र में शासनतंत्र यदि एक वंश के आदेशों निर्देशों के अनुसार चले जैसा कि पिछले दस वर्षों से होता आया है तो अनर्थ अवश्यम्भावी है. बहुत अनर्थ हो चुका है. इसकी भरपूर चर्चा देश में हो रही है. देश परिवर्तन देखने के लिए उतावला है. भाजपा ने देश की नब्ज़ पहचानी. देश को कांग्रेस मुक्त सरकार देने का नारा लगाया. अब तो मतपत्र युद्ध सघन हो गया है. देश के भाग्यविधाता वे मतदाता हैं जो अब मतदान केन्द्रों पर भरपूर संख्या में पहुँच कर अपने मताधिकार का उपयोग कर रहे हैं. कुछ ही दिनों के अंदर वे अपना फैसला दे चुके होंगे कि वे भाजपा के मोदी के साथ चल कर देश के सर्वांगीण विकास की दिशा में आगे बढ़ते हैं अथवा यथास्थिति बनाए रखने की भूल करते हैं.
अनुमानों और जनमत आंकड़ों का बाज़ार गर्म है. भाजपा के जीतने की संभावनाएं बलवती हो रही हैं. प्रधानमंत्री पद के लिए उसके प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की पल पल बढ़ती लोकप्रियता से यदि सबसे अधिक पीड़ा किसी को हुई है तो वह है कांग्रेस. उसके नेता अपने व्यवहार से यह सिद्ध कर रहे हैं कि वे मन ही मन पराजय से पहले ही पराजय स्वीकार कर चुके हैं. हाथ से सत्ता खिसक रही है. वंशवादी परम्परा को लोकतंत्रीय परम्पराओं पर प्रश्रय देने वाले कांग्रेसी नेता अपने युवराज समेत ओछी हरकतों पर उतर आए हैं. अंतिम क्षण तक मोदी के खिलाफ अपने अभियान में उनके निजी जीवन पर भी ओछी टिप्पणी करने से बाज़ नहीं आए. लेकिन विस्मय इस बात पर होता है कि अब तक अपनी मोदी विरोधी हरकतों के विपरीत परिणाम देखने के बावजूद भी उन्हें अक्ल क्यों नहीं आई कि इस प्रकार वे अपने अंत का स्वयं कारण बनते जा रहे हैं. अपने बौद्धिक दिवालियेपन का सबूत दे रहे हैं.