प्रमोद भार्गव
संप्रग सरकार की महत्वाकांक्षी योजना ‘आधार‘ यानी भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ;यूआईडीआई को राजग सरकार भी आगे बढ़ा रही है। लिहाजा आधार योजना की संवैधानिकता को चुनौति देने वाली जनहित याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में लगाई गईं थीं। इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए,न्यायमूर्ति जे चेल्मेश्वरकी अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने फैसला दिया है कि सरकारी योजनाओं में आधार कार्ड की अनिवार्यता बाध्यकारी नहीं होगी। हालांकि न्यायालय ने सरकार के अनुरोध पर राशन,रसोई गैस और केरोसिन की सुविधा को आधार कार्ड से जोड़ने की अनुमति दे दी है,लेकिन यह भी हिदायत दी है कि अन्य कल्याणकारी योजनाओं का लाभ प्राप्त करने के लिए आधार की जरूरत एैच्छिक ही रहेगी। आधार की यह स्थिति इसकी कानूनी वैधता नहीं होने के कारण निर्मित हुई है।
आधार के जरिए संप्रग सरकार ने लोक कल्याणकारी योजनाओं की नकद सब्सिडी देने की शुरूआत कुछ राज्यों के चुनिंदा जिलों से की थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर इसकी अनिवार्यता देश की पूरी आबादी पर थोप दी। ऐसा करते हुए इसके कानूनी पहलू को नजरअंदाज किया गया। आधार के साथ सबसे बड़ी समस्या इसकी कानूनी वैघता नहीं होना है। बावजूद योजना को गतिशीलता देने के लिए केंद्रीय मंत्रीमण्डल ने 1200 करोड़ रूपए की मंजूरी सितंबर 2014 में ही दे दी थी। यह राशी बिहार,झारखंड,छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश में नए आधार पहचान-पत्र बनाने के लिए दी गई थी। इसके साथ ही मोदी सरकार ने यह भी घोषणा कर दी कि आधार के जरिए ही लाभार्थियों की सब्सिडी सीधे उनके खाते में नकद राशी के रूप में जमा होगी। अब तक 50,200 करोड़ रूपए खर्च करके करीब 81 करोड़ कार्ड बन चुके हैं। कालांतर में आधार के मार्फत वृद्धावस्था पेंशन,सभी तरह की छात्रवृत्तियां,मनरेगा की मजदूरी और उवर्रक पर मिलने वाले लाभ भी आधार से जोड़े जाने थे। जन-धन योजना के तहत खोले जा रहे बैंक खातों से भी आधार जोड़ा जाना था।
इतनी उपयोगी योजना होने के बावजूद आधार के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल उठते रहे हैं और इसके क्रियान्वयन के बाबत भी कई पेचेदगियां जताई जाती रही हैं। बावजूद न तो इनके समाधान तलाशे गए और न ही इसे कानूनी रूप देने की पहल हुई। मनमोहन सिंह और उनकी संप्रग सरकार हर समय संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देते रहे,लेकिन 66000 करोड़ की लगत वाली इस आधार योजना की संसदीय वैधता को टालते रहे। योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और उनके मातहत रहे सूचना तकनीक विशेषज्ञ नंदन नीलकेणी के बरगलाने पर संसद के दोनों सदनों को दरकिनार कर ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण‘ को मंजूरी दे दी गई। बाद में जब इसे संवैधानिक दर्जा देने की पहल शुरू हुई तो संसद की स्थायी समिति ने इसे खारिज कर दिया। समिति ने अपनी दलील को पुख्ता बनाने के लिए रक्षा संबंधी सुरक्षा को आधार बनाया। सुरक्षा के लिहाज से यह योजना निरापद नहीं है। क्योंकि इसके तहत व्यक्ति मूल दस्तावेजों और उसकी स्थानीयता की जांच-पड़ताल किए बगैर कार्ड प्राप्त करने में सफल हो जाता है। आधार कार्ड देश के ज्यादातर साइबर कैफों में बनाए जा रहे हैं। इस कारण बांग्लादेशी घुसपैठियों,कश्मीरी आतंकियों और नेपालियों को भी बड़ी संख्या में बना दिए गए हैं। गोया,देश की नागरिकता के प्रमाण के रूप में आसानी से प्राप्त हो जाने वाले ऐसे पहचान-पत्र पर अंकुश जरूरी था। अलबत्ता अब न्यायालय के फैसले के बाद भी सरकार आधार कार्ड बनाने का सिलसिला जारी रखना चाहती है तो उसे कड़ी शर्तें अमल में लाने की जरूरत है। देश की नागरिकता में जो 18 तरह की व्यक्तिगत पहचानें शामिल हैं,उनमें से कोई एक नागरिक पहचान हासिल करने वाले व्यक्ति के पास हो ? साथ ही 33 प्रकार के निवास प्रमाण वाले दस्तावेजों में से भी कोई एक प्रमाण होना जरूरी हो,तभी व्यक्ति आधार का हकदार हो ?
आधार पत्र बनाना कितना आसान व सतही है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि कुछ समय पहले भगवान हनुमान के नाम से ही सचित्र कार्ड बन गया था। हरेक खानापूर्ति व पंजीयन क्रंमाक के साथ यह कार्ड बैंग्लुरू से बना था। पता फर्जी था,इसलिए कार्ड राजस्थान के सींकर जिले के दाता रामगढ़ डाकघर पहंुच गया और सार्वजनिक हो गया। इससे पता चलता है कि नागरिक की पहचान और मूल-निवासी की षर्त जुड़ी न होने के कारण कार्ड बनाने में कितनी लापरावाही बरती जा रही है। इस मामले में हैरानी में डालने वाली बात यह भी थी कि कार्ड बनाने वाले कंप्युटर आॅपरेटर और कार्ड का सत्यापन करने वाले अधिकारी ने हनुमान के चित्र को व्यक्ति का फोटो कैसे मान लिया ? जाहिर है,केवल धन कमाने के लिए कार्ड बनाने की गिनती का ख्याल रखा गया था।
आधार को जब मंजूरी मिली थी,उसके पहले से ही भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत ‘राष्ट्रिय जनसंख्या रजिस्टर आॅफ इंडिया‘ के माध्यम से व्यक्ति को नागरिकता की पहचान देने वाले कार्ड बनाए जाने की कार्रवाई चल रही थी। लिहाजा देश के नागरिक को बायोमैट्रिक ब्यौरे तैयार करने की प्रक्रिया में किस विभाग की भूमिका को तार्किक व अह्म माना जाए,इस नजरिए से संसद व सरकार के स्तर पर भ्रामक स्थिति बन गई थी। यही प्रमुख कारण विधेयक के प्रारूप को खारिज करने का संसदीय समिति माना था। दरअसल एनपीआर के कर्मचारी घर-घर जाकर लोगों के आंकड़े जुटाने का काम कर रहे थे। सरकार के सीधे नियंत्रण में होने के साथ यह प्रणाली विकेंद्रीकृत थी। गोया,इसकी विष्वसनीयता आधार प्राधीकरण की तुलना में कहीं ज्यादा थी। दोनों संस्थाओं के कामों की प्रकृति और उद्देष्य एक जैसे थे,इसलिए यहां यह सवाल भी उठा था कि एक ही कार्य दो भिन्न संस्थाओं से क्यों कराया जा रहा है ? यह विरोधाभास मोदी सरकार ने भी दूर नहीं किया।
अब तीन सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट कर दिया है कि आधार पत्र पहचान का वैकल्पिक जरिया है न कि बाध्यकारी। आधार कार्ड नहीं होने की वजह से किसी व्यक्ति को सब्सिडी-लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता है। अदालत यह फैसला इसलिए दे पाई क्योंकि आधार कार्ड को संसदीय वैघानिकता प्राप्त नहीं थी। इस क्रम में मोदी सरकार के समक्ष यह चुनौती है कि वह पहले आधार कार्ड बनाने वाले ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्रधीकरण‘ को संसद से विधेयक पारित कराकर कानूनी मान्यता हासिल कराए ? अन्यथा आधार पर खर्च किया जा रहा करोड़ों रुपय व्यर्थ चले जाएंगे।