दूरगामी दुष्प्रभाव होंगे जाति आधारित जनगणना के

-दीनानाथ मिश्र

जाति प्रथा की जड़ें गहरी हैं, हज़ारों साल गहरी। यह नहीं कि इतिहास में इसको समाप्त करने की कोशिश नहीं हुई लेकिन इसके महाप्रयास भी जातीय निष्ठा का कुछ नहीं बिगाड़ सके। यह नहीं कि इस प्रथा का कोई लाभ नहीं हुआ। बलात् हिंसा पूर्वक धर्म परिवर्तन के खूनी अभियानों को बहुत हद तक जाति प्रथा केे जातीय गौरव ने रोका और यह योगदान मामूली नहीं है। लेकिन आज जब हम 12वीं शताब्दी के मुहाने पर खड़े हैं और जिस रूप में यह है, मुझे इसमें न कोई गुण नज़र आता है और न कोई उपयोगिता। अलबत्ता समाज का वातावरण विषाक्त करने में इसकी भूमिका ज़रूर नज़र आती है। ऊंच नीच के भाव, छुआ छूत इत्यादि के रूप में यह अनर्थकारी साबित हुआ है। इसकी जातीय जनगणना में तो मैं एक भयानक अशुभ की आशंका देख रहा हूं। यह भी देख रहा हूं कि उपनिवेशवादी काल में अंग्रेजों ने जो एक षड्यन्त्र किया था, उसके विषफल भी लगेंगे।

जातीय जनगणना की शुरुआत 1871 में हुई और अन्तिम 1931 में हुई। 1871 की जनगणना की एक पृष्ठभूमि थी। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 में हुआ था। अंग्रेज विफल नहीं हुए और भारत के लोग सफल नहीं हुए, लेकिन शासक वर्ग के होश ठिकाने आने लगे और तब से ही अंग्रेजी शासक बीसियों तरह के षड्यन्त्र करने लगे। शासकीय षड्यन्त्र बड़ा प्रभावी होता है। अंग्रेजों ने तब तक यह समझ लिया था कि भारत की जाति प्रथा एक सशक्त संस्था है। जातीय निष्ठा भी प्रभावी है। जातीय निष्ठाओं को बलवान करके भारत को जातीय युद्ध का अखाड़ा बनाया जा सकता है। इसी षड्यन्त्र की शुरुआत 1871 में हुई थी। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में हमारे नेता इस षड्यन्त्र के प्रति सजग हो गए थे और इसका प्रबल प्रतिरोध करने लगे थे। अन्त में 1931 में जातीय जनगणना को समाप्त कर देना पड़ा। स्वतन्त्रता के सभी विचारक यौद्धाओं ने अपने-अपने तरीकों से समाज की एकता कायम करने के विभिन्न अभियान चलाए। कुछ सफल भी हुए। सामाजिक एकता एक सकारात्मक चेतना है। इसके विपरीत इसी की नकारात्मक चेतना `जाति तोड़ो´आन्दोलन भी रहे।

1925 में स्थापित हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक स्वर्गीय गुरुजी तो अपने भाषण के अन्त में जातिभेद, भाषाभेद, आदि के खिलाफ प्रेरक उद्बोधन करते थे। यही कारण है कि लाखों स्वयंसेवकों में जातीय अभिमान का लेशमात्र भी दर्शन नहीं होता था। संघ की पद्धति में परिचय विस्तृत कराया जाता है लेकिन उसमें यह नहीं पूछा जाता कि उनकी जाति क्या है। महात्मा गांधी संघ के एक शिविर में आए थे और यह देखकर दंग थे कि हज़ारों स्वयंसेवकों का पंक्तिबद्ध भोजन होता था लेकिन किसी को इसकी संवेदना नहीं थी कि वह किस जाति के साथ बैठकर भोजन कर रहे हैं।

मुझे एक बार मोचियों की टोली में संघ कार्य करने को कहा गया। प्रेम जी नाम के एक सज्जन वहां स्थानीय कार्य देखते थे। वहां का चलन था कि एक थाली पर बैठ कर सब उसी से भोजन ग्रहण करते थे। उस समय भी मुझे कभी रंच मात्र भी एहसास नहीं हुआ कि मैं एक ही पात्र में साथ बैठ कर उनके साथ खाना खा रहा हूं। मेरे ब्राह्मण होने के बावजूद यह कार्यक्रम चलता रहा। शायद हमारे मोची स्वयंसेवकों को कुछ आश्चर्य हुआ हो लेकिन मुझे तो कभी नहीं हुआ। और मुझ जैसे हजारों कार्यकर्ताओं को विभिन्न स्थानों पर जातिभेद का बोध नहीं हुआ।

एक घटना और। जनसंघ के एक नेता सुन्दर सिंह भण्डारी लोकसभा के चुनाव के प्रसंग में एक बैठक में बैठे थे। उन्होंने कहा कि हमारे यहां तो अपना कोई हरिजन कार्यकर्ता है ही नहीं। चुनाव में किसे खड़ा करें। जब जाति पूछने की प्रथा नहीं थी तो जाति जानने का भी ख्याल नहीं होता था। बैठक में बड़े संकोच के साथ एक सज्जन खड़े हुए और कहा कि मैं हरिजन हूं। तब लोगों को पता चला कि वे हरिजन हैं। तब उन्हें टिकट दिया गया। वे %