क्योंकि मैं आम आदमी हूं… हां…हां…मैं आम आदमी हूं…

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-आलोक कुमार-   Communal Politics1

मनोदशा और व्यथा एक आम आदमी की “क्योंकि मैं आम आदमी हूं…हां…हां..
मैं आम आदमी हूं …”
तुम देश और जनता का पैसा लूटो… राष्ट्र-विरोधी ताकतों से तुम्हारी
साठगांठ हो… तुम ईश्वर और संविधान की शपथ लो और ऐसे घृणित कार्य
सीना ठोक कर करो जिस की कल्पना मात्र से शायद ईश्वर भी घबराता होगा और
संविधान निर्माताओं की सोच भी वहां तक नहीं पहुंची होगी … फ़िर भी तुम
भारत-रत्न के अधिकारी हो…..तुम राष्ट्र की सुरक्षा के लिए बने उपकरणों
की खरीद-फ़रोख्त में दलाली खाओ… फ़िर भी तुम नमन के हकदार हो … तुमने
तो ताबुतों पर भी मलाई खाई….शायद तुम्हारा हक होगा ?… तुम कोयले की
कालिख के बाद भी धवल …. मैं इन कारनामों को उजागर करूं तो कारा-
गृह…..तुम अपनी काली और स्याह करतूतों को गांधी की खादी से ढंको …
तुमने जनतंत्र के मंदिर पर अपना कब्जा जो जमा रखा है इसलिए तुम्हाहांरे
हजारों-लाखों खून माफ़ हैं… मैं अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति करूं तो मैं
राष्ट्र-द्रोही… क्योंकि मैं आम आदमी हां..हां… मैं आम आदमी हूं…
अभी तुमने देश में सेंसरशिप और आपातकाल की घोषणा नहीं की है… लेकिन
यह अघोषित आपातकाल है, संक्रमणकाल है जो और भी दुखद है, और भी खतरनाक है
… अजीब विडम्बना है तुम इस देश में नफरत भड़काने वाले भाषण से तो बच
सकते हो… दंगों और धार्मिक उन्माद की पटकथा तुम लिखते हो….लेकिन
राजनीतिक व्यंग्य के बाद मैं तुरंत गिरफ्तार किया जाता हूं क्योंकि मैं
आम आदमी हूं….हां…हां.. मैं आम आदमी हूं …
मैं तुम्हारी चुनावी घोषणा-पत्र का विषय-वस्तु मात्र हूं…तुम
राष्ट्र-गौरव के प्रतीक लाल किले की प्राचीर पर राष्ट्र-ध्वज के साये में
हम से झूठे वादे करो क्योंकि यही तुम्हाहांरा राष्ट्र-प्रेम है…. मैं भूख
की जद्दो-जहद से जूझता रहूं लेकिन मौन रहूं …..तुम मेरे पैसे के उजाले
से रौशन रहो….मैं गुमनामी के साये में अपने वजूद को ढ़ूंढ़ता रहूं…मैं
तुम्हारी बख्तरबंद गाड़ियों का असली पहिया हूं…घिसता जाऊं, रगड़ाता
जाऊँ….लेकिन उफ़्फ़ तक ना करूं… मेरी आर्तनाद का स्वर शायद तुम्हाहांरे
वातानुकूलित  कक्षों की दीवारों तक पहुंचने से पहले दम तोड़ देती हैं…
मेरी चित्कार हो ना हो तुम्हारे लिए सुकुन का शगल हैं… क्योंकि मैं आम
आदमी हूं….हां…हां.. मैं आम आदमी हूं ….

मैं कुछ ना देखूं, कुछ ना सुनूं और कुछ ना बोलूं… क्योंकि मैं गांधी
जी के बन्दर का “नया संस्करण हूं “…मैं तुम्हारे ईशारे पर दुम हिलाऊँ
और भौंकूँ क्योंकि मैं तुम्हाहांरे तंत्र का कुत्ता हूं…मच्छरों की भाँति
मरना मेरी नीयति है और बुलेट-प्रूफ़ जैकेट तुम्हारा अधिकार है…..पंडित
और मुल्ला तुम्हाहांरे दरबारी और मंदिर का भगवान भी तुम्हारी रहम का
मोहताज… तो मैं कहां जाऊं….? कहां रोऊं ? कहां चिल्लाऊं ? कहां से
अपने राष्ट्र- प्रेम का सर्टिफ़िकेट (प्रमाण-पत्र ) लाऊं…? क्योंकि मैं
आम आदमी हूं….हां…हां.. मैं आम आदमी हूं …

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