लोकेन्द्र सिंह
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हो गए हैं। यानी जदयू में अब घोषित तौर पर शक्ति केन्द्र एक ही हो गया है। नीतीश कुमार की मंशा तो राष्ट्रीय नेता बनने की है। वह खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी मानते हैं। लेकिन, उनका व्यवहार क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह ही दिख रहा है। क्षेत्रीय दलों के नेता अपने दोनों हाथों में लड्डू रखते हैं। पार्टी/संगठन में अपना एकछत्र राज्य चाहते हैं। नीतीश कुमार के जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने को इसी तौर पर देखा जा सकता है। एक पैर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर और दूसरा पैर पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर। यह बात सही है कि संस्थापक अध्यक्ष शरद यादव को चौथा कार्यकाल दिया जाना उचित नहीं होता। पार्टी का संविधान भी इसकी इजाजत नहीं देता है। पिछली मर्तबा जब शरद यादव की तीसरी बार जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी हुई थी, तब भी संविधान में संशोधन करना पड़ा है। यदि एक बार फिर से शरद यादव के लिए पार्टी के संविधान में संशोधन करना पड़ता, तब उसे भी व्यक्ति पूजा ही माना जाता। लेकिन, नीतीश कुमार के जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से भी कोई सकारात्मक संदेश देश में गया है, ऐसा नहीं है। नीतीश कुमार वर्तमान में बिहार के मुख्यमंत्री हैं। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद स्वीकार करके उन्होंने ‘एक व्यक्ति-एक पद’ के सिद्धांत की अवहेलना की है। हालांकि नीतीश कुमार का नाम शरद यादव ने ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित किया था। भारतीय राजनीति और खासकर क्षेत्रीय दलों की राजनीति में किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से नाम प्रस्तावित किए जाते हैं, यह दीगर सवाल है। इस बात को समझने के लिए जरा सोचिए कि शरद यादव के सामने विकल्प भी क्या था?
बहरहाल, कितना अच्छा होता कि नीतीश कुमार पार्टी के किसी और कार्यकर्ता को नेतृत्व का अवसर प्रदान करते। इससे पार्टी की नेतृत्व क्षमता का ही विकास होता। दरअसल, दूसरे नेताओं को आगे बढ़ाते समय क्षत्रपों को हमेशा यह डर सताता है कि कहीं कोई उन्हें पीछे न छोड़ दे। वह उनसे बड़ा नेता न बन जाए। स्वाभाविक तौर पर नीतीश कुमार ने पहले जॉर्ज फर्नाडीज को पीछे किया और अब शरद यादव भी कहीं न कहीं उनके प्रभाव में दब गए हैं। बिहार की राजनीति और जनता दल (यू) में पहले से ही नीतीश कुमार का दबदबा रहा है। अभी हाल में बिहार विधानसभा चुनाव में मिली शानदार जीत ने नीतीश कुमार का कद और बढ़ा दिया है। इसलिए पार्टी में उनकी स्वीकार्यता पर कोई सवाल संभवत: नहीं उठेगा। लेकिन, 23 अप्रैल को पटना में राष्ट्रीय परिषद की बैठक में जब नीतीश कुमार की जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर विधिवत ताजपोशी हो रही होगी तब कुछ सवाल जरूर उठेंगे। यथा, शरद यादव को उनका कार्यकाल पूरा क्यों नहीं करने दिया गया? नीतीश कुमार को पार्टी अध्यक्ष बनने की इतनी जल्दी क्यों थी? भारतीय जनता पार्टी के सुशील मोदी ने यह तंज कसा भी है कि शरद यादव का कार्यकाल मात्र तीन महीने बचा था फिर उनसे इस्तीफा लेने का क्या कारण हुआ? नीतीश कुमार 90 दिन भी शरद यादव को बरदाश्त करने के लिए तैयार क्यों नहीं थे? यह सवाल सिर्फ भाजपा पूछ रही है, ऐसा भी नहीं है। यह सवाल तो जदयू के कार्यकर्ताओं के भीतर भी उमड़-घुमड़ रहे हैं। लेकिन, वहाँ कोई पूछने का साहस नहीं कर सकता।
दरअसल, नीतीश कुमार निकट भविष्य में उत्तरप्रदेश में होने जा रहे चुनाव के बहाने अन्य क्षेत्रीय दलों का जदयू में विलय कराके, उनका नेतृत्व करना चाहते हैं। ऐसा करके वह 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बरक्स खुद को खड़ा करना चाहते हैं। जनता परिवार के एकीकरण और तीसरा मोर्चा का गठन के पीछे आधी हकीकत-आधा फसाना है। यहाँ सबकी अपनी महत्वकांक्षाएं अधिक हैं, ऐसे में नीतीश का नेतृत्व सब स्वीकारेंगे, यह थोड़ा मुश्किल। अब चूँकि नीतीश कुमार पार्टी के अध्यक्ष हो गए हैं इसलिए फिलहाल तो उनसे यह भी सवाल पूछा जाएगा कि बिहार के बाहर पार्टी के विस्तार के लिए उनके पास क्या योजना है?