बेगानी शादी में भाजपाई दीवाने

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

सुब्रमण्यम स्वामी- भारतीय राजनीति का ऐसा व्यक्तित्व जिसने गांधी-नेहरु परिवार की सियासी राजनीतिक विरासत को देश निकाला का बीड़ा उठा रखा है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की दोस्ती को जहां स्वामी सरेआम स्वीकार करते हैं वहीं सोनिया और राहुल पर निशाना साधकर पूरी कांग्रेस पार्टी को हिलाकर रख देते हैं। स्वामी की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वे जो भी कहते या करते हैं, उसके पीछे ठोस तर्कों का कानूनी आधार होता है। उनके आरोपों को यूंही हलके में नहीं नकारा जा सकता। अर्थव्यवस्था से जुड़े लोग उन्हें अर्थशास्त्री कहते हैं, कानून के जानकार उन्हें चलती-फिरती कानून की किताब बताते हैं, राजनेताओं की नज़र में स्वामी राजनीति की अबूझ पहेली हैं और आम आदमी के लिए स्वामी सजह सुलभ और ईमानदार जननेता हैं जिनकी अब तक की राजनीतिक यात्रा बेदाग़ ही रही है। पर क्या स्वामी को उनकी ईमानदारी, नैतिकता, तार्किक व बौद्धिक कौशल के अनुरूप भारतीय राजनीति में गंभीर समझा गया? शायद नहीं। इसकी भी एक बड़ी वजह रही है। राजनीतिक विचारधारा की बात की जाए तो स्वामी विशुद्ध रूप से हिंदुत्व की बात करते हैं और चूंकि हिंदुत्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी का विशेषाधिकार है लिहाजा स्वामी को संघ सहित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पाता। यूं तो स्वामी की पार्टी एनडीए को समर्थन देती है और ऊपरी तौर देखने से स्वामी-भाजपा साथ नज़र आते हैं किन्तु अंदरखाने स्वामी को लेकर भाजपा; खासकर संघ के मस्तिष्क में उहापोह की स्थिति है। दोनों ही संगठनों को लगता है कि स्वामी की आक्रामकता व राजनीतिक कौशल उन पर भारी पड़ता है। फिर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी की १३ महीनों की सरकार को गिराने में भी स्वामी की भूमिका को पार्टी सहित संघ भूला नहीं है। हालांकि कई राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि स्वामी के ताजा आरोपों के पीछे संघ की सोच है ताकि गडकरी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से देश-दुनिया का ध्यान हटाया जाए किन्तु मेरा मानना है कि संघ कभी चाहेगा कि गांधी-नेहरु परिवार से जुड़े किसी भी व्यक्ति पर स्वामी के जरिए निशाना साधा जाए। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि स्वामी से जुड़ा कोई भी मुद्दा तत्काल विवादित हो उन्हें चर्चा के केंद्र में ला देता है जिससे संघ और भाजपा असहज हो जाते हैं।

 

फिर भी पूर्व के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि स्वामी द्वारा उठाए गए मुद्दों को संघ और भाजपा हथिया लेते हैं और स्वामी को नेपथ्य में जाना पड़ता है। हाल ही में स्वामी ने कांग्रेस और सोनिया-गांधी पर जो आरोप लगाए हैं और पार्टी की मान्यता रद्द करने बाबत जो हलफनामा चुनाव आयोग को दिया है उस पर भी भाजपा ने नजरें गडा दी हैं। तभी तो पार्टी के अधिकांश नेता एक स्वर में कांग्रेस से जवाब मांग रहे हैं। खैर राजनीति में तो यह चलता ही है कि किसी का मुद्दा कोई और ले उड़ता है और उससे सम्बंधित तमाम वाद-विवाद उसे चर्चित भी कर देते हैं। किन्तु तारीफ करनी होगी स्वामी की कि उन्होंने कभी भाजपा और संघ द्वारा मुद्दों को भुनाने पर आपत्ति नहीं की। मुझे याद है ५ माह पूर्व स्वामी जब एक निजी कार्यक्रम में भाग लेने भोपाल आए थे तो चुनिन्दा पत्रकारों व बुद्धिजीवियों से चर्चारत होते हुए उन्होंने अपने मन की पीड़ा को कुछ यूं बयान किया था कि वे तो आज भी खुद को स्वयं सेवक मानते हैं और उसी अनुरूप राष्ट्र-राष्ट्रीयता के सिद्धांतों पर चलने का प्रयास करते हैं, अब यह दूसरों को समझना चाहिए कि कौन आपका कितना बड़ा हितैषी है। यानी इशारों-इशारों में ही सही मगर उन्होंने खुद को संघ और भाजपा का करीबी बताने से कोई गुरेज नहीं किया पर आप किसी भी संघी या भाजपाई से स्वामी के बारे में बात करें तो अधिकतर की जुबान पर उनके लिए अशोभनीय टिप्पड़ी ही निकलेगी। अंग्रेजी में एक उक्ति है वन मैन आर्मी जिसका तात्पर्य होता है अकेला ही एक फ़ौज के बराबर। सुब्रमण्यम स्वामी भारतीय राजनीति के वन मैन आर्मी हैं, जो कहते हैं वो करते हैं और कभी अंतर्विरोधों के बीच नहीं रहते। आज राजनीति में अलग-धलग रहकर भी स्वामी ने अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखी है उसकी वजह भी उनका एकला चलो सिद्धांत ही है। हाँ, इन सबके बीच भाजपा जरूर बेगानी शादी में दीवानी हो जाती है। वैसे भी भाजपा का अब तक का सफ़र दूसरों के कंधों के सहारे ही चला है फिर चाहे वह स्वामी के मुद्दों को हड़पना हो या पीवी नरसिम्हा राव की बाबरी मस्जिद विध्वंश में कथित भूमिका को अपने पक्ष में भुनाना, भाजपा ने हमेशा स्वहित के लिए दूसरों की बलि लेने से परहेज नहीं किया। देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती।

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. एकात्म मानव वाद के प्रकाश में, ही संघ -भा ज पा का सम्बन्ध स्पष्ट होगा.
    अन्यथा उलझन हो सकती है.
    जैसे चाणक्य –चन्द्रगुप्त,
    जैसे कृष्ण –और पांडव-कौरव –सत्ता.
    जैसे रामदास –शिवाजी.
    वैसे ही संघ–और भा ज पा –या लोकतांत्रिक राजनीति.

    संघ अंकुश है, जो स्वयं सत्तासे बाहर रहकर –आज के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र हित में चिंतन करते हुए, उचित प्रभाव डालना चाहता है.

    राजसत्ता सभी को सत्ता में आने के पश्चात भ्रष्ट करती है;यह मानकर ही भारतीय सत्ता विभाजन की प्रणाली सोची गयी थी.
    पर आज राजनीति इतनी कलुषित हुयी है, की आपको *अच्छा और बुरा* के बिच चुनाव करना नहीं है.
    कम बुरे या अधिक बुरे के बीच चुनाव करने का समय आ गया है.
    राजनीति की गटर में हाथ डालोगे तो हाथ गंदे होंगे ही.

    भाजपा फिर भी कम बुरा पक्ष ही होगा. और नरेंद्र मोदी कम से कम बुरा होगा.
    अब देर ना करें—नरेंद्र मोदी ही भारत को तार सकता है–यह मेरी मान्यता है. आप मुझसे सहमत हो या नहीं, कोई अंतर नहीं.
    जिन्हें संदेह हैं, वे अहमदाबाद जाकर आए, फिर कुछ कहें.

  2. हिन्दुत्व पर भाजपा या संघ का विशेषाधिकार है ऐसा भ्रम बहुत लोगों को है और मेरे विचार से भारतीय जनता पार्टी इस भ्रम को जानबूझ कर बढ़ावा देती रहती है क्यांकि उसे इस का दोहरा लाभ मिलता है। सत्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी को हिदुत्व से कोई लेना देना नहीं है।इस पार्टी का एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में उभर कर सामने आना है और उसे केवल इस प्रकार की राजनीति करनी है कि जब कभी जनता कांग्रेस के कुशासन से दुखी होकर किसी दूसरी पार्टी को सत्ता सोम्पने का निर्णय ले तो इसी पार्टी को कोई और विकल्प नहीं होने के कारण गद्दी पर बिठा दे .भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व का कब प्रतिनिधित्व किया या हिन्दू हितों की रक्षा के लिए कोई संघर्ष किया या कोई बलिदान दिया ऐसा कुछ दीख नहीं पड़ता हाँ यह अवश्य दिखता है की इस पार्टी ने सत्ता में आने के लिए किन किन पार्टियों का सहयोग आवश्यक होगा यह तय कर लिया है और यह पार्टियाँ जिनके सहयोग से भाजपा को सत्ता प्राप्ति की क्षीण सी झलक दिखती है उनको किसी हालत में नाराज़ नहीं किया जा सकता।यदि इसके लिए हिन्दू हितों को तिलांजलि . देनी पड़े तो वह सहर्ष स्वीकार है धरा 370 को समाप्त करना ,सभी भारतीयों पर लागु सिविल कोड ,अयोध्या में श्री राम मंदिर का पुनर्निर्माण , कश्मीर से हिन्दुओं का निष्काशन इन सब पर यह पार्टी चुप रहती है की कहीं इन्हें उठाने पर सहयोगी पार्टियाँ असहयोग का रास्ता लेकर सत्ता प्राप्ति का स्वप्न भंग न कर दें आज देश में हिन्दुओं की स्थिति द्वितीय श्रेणी के नागरिकों की हो चकी है और दिनों दिन गिरती जा रही है हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों पर सर्कार का नियंत्रण होना स्वीकार्य है और उनकी आय का मुसलमानों,ईसाईयों को धार्मिक सुविधाएँ देने के लिए खर्च करना भी स्वीकार्य है। सच्चर कमिटी के पश्चात तो देश के नागरिकों को दो श्रेणीओं विभजित कर दिया गया है।प्रथम श्रेणी में मुस्लिम,इसाई सिख,बौद्ध तथा पारसी आते हैं जिनके बच्चोँ के कल्याणार्थ हजारों करोड़ों की सुविधाएँ उपलब्ध है। दूसरी श्रेणी हिन्दुओं की है जिन्हें इन सुविधाओं से वंचित रखा गया है केवल इस आधार पर की वे हिन्दू धर्मं के अनुयायी हैं। यह नितांत असंवैधानिक है पर हिंदुत्व पर एकाधिकार बताने वालों ने चूं तक नहीं की।ऐसा लगता है इस देश का चेतनाहीन, प्राणहीन,/ नेतृत्व हीन हिन्दू समाज अपना अस्तित्व मिट जाने की बाट देख रहा हैं

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