फ़तवा मानो या मत मानो, उलेमा को मत कोसो!

इक़बाल हिंदुस्तानी

तर्क और आस्था में टकराव तो सदियों से चलता आ रहा है?

दारुल उलूम देवबंद से कुछ दिन पहले एक फतवा आया था कि शराब के नशे में दी गयी तलाक भी तलाक मानी जायेगी। इस फतवे पर मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के नायब सदर और मशहूर शिया नेता मौलाना क़ल्ब ए सादिक़ ने यह कहकर सवाल खड़ा कर दिया कि सुन्नी उलेमा इस तरह के फ़तवे पर एक बार फिर से विचार करें क्योंकि शराब इस्लाम में हराम है और शराब पीकर जब नमाज़ पढ़ना तक गुनाह है तो शराबी की तलाक कैसे जायज़ हो सकती है। ऐसे ही मौलाना सादिक ने देवबंद के उस फतवे पर भी एतराज़ जताया जिसमें मुस्लिम युवक के द्वारा किसी गै़र मुस्लिम लड़की से मुहब्बत और दोस्ती की बात को गलत ठहराया गया था। इतना ही नहीं इन फतवों पर देवबंद नगरपालिका की चेयरमैन रह चुकी ज़ीनत नाज़ और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की लीडर नाइश सहित कई प्रगतिशील मुस्लिम लोगों ने भी असहमति दर्ज कर सख़्त एतराज़ जताया है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब देवबंद के फतवों पर खुद मुस्लिम समाज में ही जोरदार चर्चा शुरू हुयी हो। इससे पहले जब उलेमा ने यह कहा था कि किसी भी मुसलमान का बैंक में काम करना और किसी भी मुस्लिम महिला का मर्दों के साथ नौकरी करना नाजायज़ है, तब भी ऐसा ही शोर मचा था। इस बार सबसे अच्छी बात जो सामने आयी है वह यह है कि देवबंद के उलेमा ने फतवों पर सफाई देते हुए कहा है कि चाहे मौलाना क़ल्बे सादिक हों या कोई और जो लोग अक़्ली बात कर रहे हैं, उनकी बात का एक ही जवाब है कि इस्लाम में जो कुछ बताया गया है उसमें अपनी अक़्ल लगाने का कोई मतलब नहीं है। बात साफ हो गयी कि जिनको अपनी अक़्ल से फतवों पर फैसला लेना है वे चाहें तो फतवों को मानें या ना मानें लेकिन उलेमा उनके हिसाब से फतवा देने का मजबूर नहीं किये जा सकते। यह बात इस तरह भी समझी जा सकती है कि जैसे हम किसी जज से अपने हिसाब से फैसला चाहें तो वह हमारे नहीं बल्कि कानून और संविधान के हिसाब से निर्णय देगा। अब आप अपने खिलाफ फैसला आने से कानून या जज को ही कोसने लगें यह तो ठीक बात नहीं होगी।

0 हमारा तो यह भी कहना है कि जिस तरह से आज मुसलमान उन सर सैयद की बनाई अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा हासिल करके तरक्की कर रहा है जिन पर अंग्रेजों का पिट्ठू होने का आरोप लगाकर 18 फतवे लगाये गये थे, उसी तरह आज नहीं दस बीस या पचास साल बाद वह यह बात भी मानकर खुलेआम ज़बान से इक़रार करने की हिम्मत दिखायेगा कि अगर ज़िंदगी में आगे बढ़ना है, गरिमा और सम्मान का जीवन जीना है, दूसरी कौमों से प्रतिस्पर्धा और पिटने व हारने से बचना है तो उसको फतवों की भूलभुलैया से बाहर आना ही होगा। मिसाल के तौर पर शराब पीकर तलाक देने की बात हम बाद में करेंगे, हम पूछना चाहते हैं कि शराब पीना इस्लाम में ही नहीं सभी समाजों में आमतौर पर बुरा माना जाता है फिर भी क्या कोई कौम नशे से बची हुयी है? ब्याज मुसलमान के लिये बार बार हराम बताया जा रहा है, क्या मुसलमान व्यापारी, उद्योगपति और नौकरीपेशा ही नहीं आम आदमी कर्ज़ लेकर ब्याज से बचा है?

याद रहे इस्लाम में सूद लेना और देना दोनों हराम है। मज़ेदार बात यह है कि हमारे नगर में जो मुस्लिम फंड सूद का खुला हराम कारोबार कर रहा है, उसके सर्वेसर्वा शहर क़ाज़ी हैं जिनके पीछे सारी तहसील के मुसलमान बिना किसी हील हुज्जत के दोनों ईद की नमाज़ पढ़ते हैं। उनको इस बात के लिये कौन मजबूर करता है? वे चाहें तो उनका बायकाट करके ईद की नमाज़ जामा मस्जिद या किसी और ईदगाह में भी पढ़ सकते हैं। वे चाहें तो जानकारी होने के बावजूद अपना पैसा मुस्लिम फंड से निकालकर अपने घर में पुराने ज़माने की तरह ज़मीन खोदकर गाड़ सकते हैं या संदूक में भी डाल सकते हैं क्योंकि वे भले ही उस रक़म पर ब्याज नहीं ले रहे लेकिन वे जानते हैं कि मुस्लिम फंड के संचालक उनका पैसा ना केवल लोगों को ब्याज पर लोन की शक्ल में दे रहे हैं बल्कि उसको बाकायदा बैंक में एफडी भी करा रहे हैं।

फतवा और मसला कहता है कि अगर कोई आदमी आप से अंगूर ख़रीद रहा है और आपको पता लग जाये िकवह उस अंगूर से शराब बनायेगा तो आप भी उसे अंगूर बेचकर गुनहगार हो जायेंगे। कितने मुसलमान हैं जो अपने बैंक खातों में आने वाला ब्याज नहीं लेते? कितने मुसलमान हैं जो रिटायरमैंट के बाद मिलने वाले प्रोविडेंट फंड में जुड़ा ब्याज छोड़ देते हैं? कितने मुसलमान हैं जो उन बैंकों या कम्पनियों से इस्तीफा देने को तैयार हुए फतवे के बाद जिनमें काम करके रोज़ी कमाना हराम करार दिया गया था? कितने मुसलमान बैंक से होमलोन, कार लोन और हायर एजुकेशन लोन हराम होने की वजह से उपलब्ध होने के बावजूद मना करने की हिम्मत दिखा पाये? कितने टीवी घर से निकाल कर सड़कों पर फोड़ सके? कितनों ने फिल्म देखनी बंद की? कितनों ने फोटों और वीडियो से इन्कार किया? कितने इस्लामी पौशाक कुर्ता पायजामा वह भी ज़मीन की सतह से आधा फुट ऊंचा पहनकर ऑफिस और फंकशन में जाने का तैयार हुए? कितने औरतों को पर्दा करने, घर से ना निकलने, ब्यूटी पार्लर ना जाने, नेल पॉलिश ना लगाने, नामहरम से बात ना करने, गैर मर्दों को उनकी आवाज़ ना सुनाने, रेडियो और टीवी व फिल्मों में काम करने से रोक पाये?

इन सबसे बढ़कर कितने मुसलमान इस्लामी तरीके से कारोबार करने को राजी हुए? क्या मुसलमान इस्लामी तालीम के मुताबिक आटे में नमक के बराबर नफा ले रहे हैं? क्या मुसलमान फ़तवा होने के बाद भी रिश्वत लेने और देने से बाज़ आ रहे हैं? कहने का मतलब यह है कि फतवे आते रहते हैं , चर्चा चलती रहती हैं लेकिन मुसलमान हालात और ज़रूरत के हिसाब से बदल रहा है। वह भी उच्चशिक्षित, प्रगतिशील और तरक्कीपंसद गैर मुस्लिमों की तरह परिवार नियोजन से लेकर ब्याज तक का सहारा लेकर लगातार आगे बढ़ रहा है और उलेमा चाहे जो कहंे वह अब फतवों पर चलने को किसी कीमत पर तैयार नहीं होगा।

हम उन लोगों से भी सहमत नहीं हैं जो उलेमा पर यह आरोप लगाकर उंगली उठाते हैं कि उन्होंने अमुक मामले में यह फ़तवा क्यों दिया? उनका काम तो इस्लाम की रोश्नी में हर मामले पर मांगा गया फ़तवा देना है। जिनको वह पसंद आये वे उसको मान कर मरने के बाद अपनी जगह जन्नत में पक्की कर सकते हैं जिनको यहीं मौज मस्ती करनी है वे गुनाहगार बनकर आखि़रत में सज़ा भुगतने के लिये तैयारी कर सकते हैं। मुफ़ती लोग कभी भी भारत में यह नहीं कहते कि जो उनके दिये फ़तवे को नहीं मानेगा उसको यहीं सज़ा दी जायेगी। वे फ़तवा जारी करते हुए यह शर्त भी नहीं लगाते कि जो फ़तवा ले रहा है वह हर कीमत पर फ़तवे को मानेगा। उनका यह काम भी नहीं है।

बहरहाल उनका काम मात्र फ़तवा देना है तो वे फ़तवा तो वही देंगे ना जो इस्लाम में बताया गया है। कुछ माडर्न मुस्लिमों का सवाल होता है कि आज के ज़माने में ब्याज, महिला पुरूष गैर बराबरी, निकाह-तलाक़, हलाला, मेहर, विज्ञान, फोटो, फिल्म, टीवी, परिवार नियोजन, गीत संगीत, हराम हलाल , जायज़ नाजायज़ के फ़तवे के हिसाब से कैसे तरक्की की जा सकती है तो जनाब इस्लाम तो वही है जिसके हिसाब से फ़तवा दिया जा रहा है अगर आपको इस पर अमल करने में दिक्कत है तो आपको अपने अंदर बदलाव से कौन रोक रहा है? फ़तवे का डर हो तो समझदार को इशारा ही काफी होता है।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,

मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिये,

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

2 COMMENTS

  1. इक्ब्क्ल भाई आपका लेख तार्किक और व्यावहारिक धरातल पर आधारित है. यदि आम मुस्लिम ऐसा सोच रखे तो दुनिया की तो मैं नहीं कहता मगर हमारा भारत एक अमन चेन वाला देश हो सकता है. हिन्दू ,कथाकार भी कभी कभी ऐसी बेसिरपैर की सलाहें देते हैं जिनके पीछे कोई तर्क नहीं.,

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