बर्लिन अकादमी:*आदर्श-भाषा-स्पर्धा-(१७९४)* का इतिहास

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डॉ. मधुसूदन
(एक) *परिपूर्ण भाषा का आदर्श*
१७९४ ई. में बर्लिन अकादमी ने एक निबंध-स्पर्धा आयोजित की थी, विषय था *परिपूर्ण भाषा का आदर्श और उस आदर्श पर यूरोप की भाषाओं की परीक्षा।* स्पर्धा का विजेता येनिश (Jenisch) नामक विद्वान था। और बर्लिन अकादमी ने उसे प्रथम पुरस्कार देकर सम्मानित किया था। जैसे स्पर्धा के नाम से स्पष्ट है; स्पर्धा में केवल यूरोप की प्रमुख भाषाओं की ही परीक्षा की गयी थी।

(दो) हिन्दी और संस्कृत के लिए महत्त्व:

येनिश के निबंध के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर यह आलेख आधारित है। और, इस निबंध की कसौटियों पर, हम अपनी भाषाओं को भी परख सकते हैं। इसी हेतु, आलेख हमारे लिए औचित्य रखता है। इस कसौटी का मानक हमारा गढा हुआ नहीं है। ऐसे मानक से, हिन्दी और संस्कृत की परीक्षा तटस्थ और वस्तुनिष्ठ होगी।
(तीन)विषय का विभाजन:
इस विषय को दो आलेखों में प्रस्तुत किया जाएगा। आज का आलेख येनिश लिखित निकष पर केंद्रित है। और संस्कृत-हिन्दी के प्राथमिक गुणों पर दृष्टिपात से युक्त होगा। जिनके आधार पर हम अपनी भाषाओं को भी परख पाएंगे।
लेखक का हेतु है कि ऐसे पराए मानक पर, हम अपनी भाषाओं की तुलनात्मक महत्ता जाने। हिन्दी सहित हमारी सारी प्रादेशिक भाषाएं संस्कृत से जन्मी होने के कारण,हिन्दी की लगभग सारी विशेषताएँ प्रादेशिक भाषाओं में भी पाई जाती हैं। इस लिए जो संस्कृत आधारित गुण हिन्दी में पाए जाएंगे;वें सारे लगभग सभी प्रादेशिक भाषाओं में न्यूनाधिक मात्रा में होंगे। यह बिन्दू भी हमारी राष्ट्रीय एकता को बल देता है।

(चार) हिन्दी के विशेष गुण
सभी भाषाओं में परस्पर पूरक गुण भी है; और विशेष गुण भी हैं।
हिन्दी के विशेष गुण:
(चार-१) हिन्दी सर्वाधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा है।
(चार-२) और उसकी देवनागरी लिपि भी सर्वाधिक समझी जाती है।
पूरक का गुण:
(चार-३) संस्कृत की लिपि देवनागरी होना, हिन्दी का पूरक गुण है। लिपि का ऐसा दोहरा लाभ है।
(चार-४) हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली संस्कृतजन्य होने के कारण लगभग सभी भाषाओं में बिना अपवाद चलती है।
(चार-५) संस्कृत-शब्द रचना का सर्वोच्च गुण:
और संस्कृत का शब्द रचना का सर्वोच्च गुण सारी (वैश्विक)भाषाओं में अतुल्य और अनोखा है।
किसी भी अर्थ के शब्द की रचना लगभग अर्थपूर्ण रूप से संस्कृत कर सकती है।

(पाँच)क्या येनिश को संस्कृत का ज्ञान था?
येनिश को १७९४ में, संस्कृत का ज्ञान होने की संभावना दिखती नहीं। वैसे १७८४ में,विलियम जोन्स को संस्कृत की महत्ता का प्राथमिक परिचय हुआ था। ऐसी प्रारंभिक पहचान भारत में आए हुए विद्वानों को प्रथमतः हो रही थी। ऐसी पहचान भी, उनके कन्वर्ज़न के कुटिल उद्देश्य से प्रेरित थीं। साथ ऐसी जानकारियाँ उस समय शीघ्रता से संसार भर में फैलती नहीं थी। संस्कृत का उल्लेख भी न येनिश ने किया, न उस स्पर्धा के वृत्तान्त में कहीं मिलता है।
और इस लिए जिन गुणों को येनिश दर्शाता है; उन सारे गुणों का ही नहीं, पर उनसे भी अधिक गुणों का संस्कृत में होना हर भारतीय के लिए गर्व और गौरव का कारण है। इस विषय पर लेखक के पास विपुल सामग्री है; समय मिलते ही इस विषय पर लिखेगा।

(छः) येनिश की आदर्श भाषा के गुण:
अपने निबंध में येनिश जो लिखता है; उसका सार निम्न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है।
आशय को क्रमवार प्रस्तुत करता हूँ। यह अंश * भाषाविज्ञान की भूमिका: देवेन्द्रनाथ शर्मा, और दीप्ति शर्मा लिखित पुस्तक के पृष्ठ ३१२* पर आधार रखता है।
(सात) येनिश के निबंध का संक्षिप्त बिन्दुवार सार

(१) भाषा, उसके प्रयोगकर्ताओं की मानसिकता का दर्पण होता है। उस में, उस भाषा के प्रयोग-कर्ताओं का, बौद्धिक एवं नैतिक सार व्यक्त होता है। संक्षेप में, जंगली भाषाएं स्थूल और रूक्ष, होती हैं; और सभ्य भाषाएँ कोमल, और परिमार्जित होती है।
(२)आगे कहता है, *क्षण-विशेष की माँग के अनुरूप अर्थ व्यक्त करने की क्षमता भाषा में होनी चाहिए।
* उसी प्रकार *सूक्ष्म भाव एवं विचारों को भी अभिव्यक्त करे ऐसी भाषा ही आदर्श भाषा का पद प्राप्त कर सकती है।*
(३) येनिश भाषा के चार गुण गिनाता है।
(क)सम्पन्नता,
(ख) ऊर्जा,
(ग) स्पष्टता
(घ) सुश्राव्यता

(क) सम्पन्नता
सम्पन्नता को येनिश मौलिक शब्द-भण्डार से जोडता है। {पर मौलिक शब्द की व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता।
मौलिक शब्द
लेखक मौलिक का अर्थ प्रमुख, विशेष, (जड) मूल से जुडा हुआ, मूल्यवान ऐसा मानता है।
मौलिक शब्दों को अमूर्त, जिन्हें देखा न जा सके, ऐसे भाववाचक शब्द भी मानता है।
इस मौलिक शब्द-भण्डार के अंतर्गत,
(१) आध्यात्मिकता व्यक्त करने वाले शब्द,
(२)अमूर्त भावों को व्यक्त करने वाले शब्द,
(३) विविध विषयों के पारिभाषिक शब्द,
(४) मनुष्य का मानसिक आयाम विस्तरित करने की क्षमता वाले शब्द।
(५) मौलिक शब्द-भण्डार, नवीन शब्दों की निर्मिति क्षमता से भी नापा जाता है।
इन सारे गुणों में कोई भाषा संस्कृत की बराबरी कर नहीं सकती।

(ख) ऊर्जा:
ऊर्जा को येनिश कोष और व्याकरण से जोडता है। साथ में प्रारंभिक लेखकों की गुणवत्ता से भी। वस्तुतः यह ऊर्जा का प्रतिफलन है। उदाहरण के लिए संस्कृत के आदियुगीन कवियों –वाल्मीकि, व्यास आदि ले सकते हैं। आगे चलकर कालिदास, भास, भवभूति, भारवि इत्यादि अनेक लेखकों ने तो ऊर्जा का प्रतिमान खडा कर दिया। आज तक संसार की किसी और मौलिक या सामान्य भाषा ने भी नहीं कर दिखाया।
(ग) स्पष्टता:
व्याकरण की नियमितता, वाक्य विन्यास की स्वाभाविकता और कथन की स्पष्टता, भाषा की उत्तमता के अनिवार्य धर्म हैं। व्याकरण में तो पतंजलि, पाणिनि, कात्यायन इत्यादि के नाम मूर्धन्य होंगे। हमारा व्याकरण इतना परिपूर्ण; कि आज तक उस व्याकरण में कोई सुधार की आवश्यकता ही नहीं हुई।

(घ) सुश्राव्यता–
भाषा में केवल स्वर-व्यञ्जन का माधुर्य ही नहीं होना चाहिए बल्कि शब्दों के समरस संयोजन की योग्यता भी होनी चाहिए। सारा माधुर्य आप को हमारे संस्कृतजन्य नामावली में, कोमल व्यंजनों में, हमारे संस्कृत श्लोको में मिल जाएगा। हिन्दी कविताओ में भी संस्कृतजन्य शब्दों का लालित्य बडा मधुर होता है। वंदेमातरम के ही संस्कृत शब्द लीजिए। (स्वतंत्र विषय है; जिसपर काफी लिखा गया भी है।)

(चार) भाषा उत्कर्ष साहित्यिक उत्कर्ष से पृथक
*येनिश ने यह भी प्रतिपादित किया कि किसी भाषा में उत्कृष्ट साहित्य का होना या न होना आकस्मिक वस्तु है। वस्तुतः भाषा का अध्ययन साहित्यिक उत्कर्ष से पृथक रखकर करना चाहिए। ऐसा उसने कहा है।*(लेखक मधुसूदन येनिश इस मत से असहमत।)
इस अंतिम बिन्दुपर लेखक डॉ. मधुसूदन येनिश से मत-भिन्नता रखता है।
लेखक मानता है; कि भाषा में उत्कृष्ट साहित्य का होना भाषा को मूल्यवान बना देता है। और भाषा की उपयोगिता बढा देता है।
उदा: भगवत गीता का संस्कृत में होना गीता के आध्यात्मिक शब्दों को हिन्दी में सहज स्वीकृत करवाता है। यह हमारे उत्कर्ष से जुडी भी है। भाषा दीर्घजीवी हो कर टिकने में भाषा का आध्यात्मिक साहित्य बडा योगदान देता है।
ये है,*येनिश के निबंधके सारबिन्दू*

संदर्भ सामग्री

*आदर्श-भाषा-स्पर्धा-(१७९४)* का इतिहास*
भाषाविज्ञान की भूमिका: देवेन्द्रनाथ शर्मा, और दीप्ति शर्मा लिखित पुस्तक*

2 COMMENTS

  1. बहुत सुविचारित विवेचन का खाका तैयार किया है डॉ. झवेरी ने.योनिश भाषा के परिपूर्ण भाषा की कसौटी यद्यपि यूरोपीय भाषाओँ के लिये बनाई गई थी पर हिन्दी और संस्कृत को परखने का यह आयोजन इन भाषाओँ की सुसमृद्ध परंपरा ,सामर्थ्य और विषम स्थितियों में भी जमे रह कर चिर-जीविता पाने के कारणों को सामने ला सकता है . कथ्य कितना भी अमूर्त अथवा सूक्ष्म हो उसे यथावत् संप्रेषित कर देना किसी भाषा की सबसे बड़ी सफलता है . इसके लिये उसमें (क)सम्पन्नता,(ख) ऊर्जा, (ग) स्पष्टता (घ) सुश्राव्यता का होना बताया गया है .
    इस क्रम में हमारी भाषाओं में जो अतिरिक्त विशेषताएँ हैं वे भी सामने आकर अपनी शक्तिमत्ता और सामर्थ्य को प्रमाणित कर सकती हैं . सराहनीय प्रयास हेतु लेखक को साधुवाद ! – प्रतिभा सक्सेना.

  2. आदरणीय मधुसूदन भाई,
    सदा की भाँति आपका ये आलेख भी आपके व्यापक ज्ञान की गहराइयों को प्रमाणित करता है । आपने येनिश के सम्बन्ध में जिन प्रश्नों को उठाया है , वे तर्कसंगत हैं और उचित भी । आदर्श भाषा के रूप में हिन्दी एवं संस्कृत भाषाओं के गुणों की परख के साथ ही उनकी जिस तरह से आपने प्रतिष्ठा की है , वो सर्वजन स्वीकृत भी है । आलेख सशक्त , प्रभावी और प्रशंसनीय है ।
    क्या मेरी पिछली टिप्पणी आपके आलेख पर और प्रतिभा जी की रचना पर भी प्रवक्ता पर प्रकाशित भी हो सकी या अदृश्य हो
    गई ? पता करूँगी ।
    सादर,
    शकुन बहन

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