आरक्षण का दांव

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हिमकर श्याम

कोयले की आग में जल रही केंद्र सरकार ने तरक्की में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण का ऐलान कर एक बड़ा दावं खेला है। सरकार मुद्दे की ज्वलनशीलता से भली-भांति परिचित है। सरकार के इस दावं से भाजपा के साथ-साथ सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी की भी बेचैनी बढ़ गयी है। सपा ने इसका खुल कर विरोध कर दिया है। कोयले पर सरकार को घेरने की कोशिश में जुटी बीजेपी इस धमाके से असमंजस में है। मुद्दे की ज्वलनशीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्यसभा के भीतर चलते सत्र के दौरान इसका विरोध कर रहे सपा एवं इसके समर्थक बसपा सदस्यों के बीच जमकर हाथापाई हुई। इस विधेयक के जरिए कांग्रेस कोयला घोटाले की आंच को कम करने के साथ-साथ खुद को दलितों और आदिवासियों की हितैषी के तौर पर भी स्थापित करना चाहती है।

देश में फिर एक बार योग्यता बनाम समानता की उग्र बहस शुरू हो गयी है। आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में लामबंदी होने लगी है। सरकारी नौकरियों में तरक्की में आरक्षण दिए जाने के प्रस्ताव को कैबिनेट ने मंजूर दे दी है और इसे राज्यसभा में पेश कर दिया गया है। मुद्दा सीधे वोट से जुड़ा है इसलिए हर राजनीतिक पार्टी सावधानी बरत रही है। इसके नफा- नुकसान के आकलन और आगे की रणनीति में सभी पार्टियां जुट गयी हैं। सभी को अपने वोटरों की चिंता है। भाजपा को वोट देने वाले ज्यादातर मतदाता अगड़ी जाति के हैं जो जातिगत आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण का विरोध करते रहे हैं। भाजपा की सहयोगी जदयू इसके समर्थन में है तो शिवसेना विरोध में। इससे सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा बहुजन समाज पार्टी को ही होना है इसलिए वह इस विधेयक का समर्थन कर रही है। वहीँ सपा विरोध के बहाने तरक्की में पिछड़ों को भी इसी तरह आरक्षण देने की मांग कर रही है। इससे नए सिरे से जातीय गोलबंदी होने और पिछड़ा-सवर्ण वोटों के ध्रुवीकरण होने की सम्भावना है।

यूपीए तरक्की में आरक्षण विधेयक को क़ानूनी जामा पहनाने की पूरी तरह तैयार है लेकिन आगे की राह आसान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल, 2012 के अपने फैसले में उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार के आदेशों को असंवैधानिक करार दिया था। प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के लिए सरकार संविधान के अनुच्छेद 16(4) ए से समुचित प्रतिनिधित्व, प्रशासन में कार्यकुशलता और पिछड़ेपन के आंकड़े जैसे शब्दों में बदलाव करने के मूड में है। इसके लिए संविधान संशोधन करना होगा और दो- तिहाई बहुमत की जरूरत पड़ेगी।

हमारे देश में आरक्षण हमेशा से एक संवेदनशील विषय रहा है। स्वतंत्रता के उपरांत सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े कुछ वर्गों के रहन-सहन के स्तर में सुधार के लिए यह व्यवस्था की गयी थी। उस समय जो सामाजिक व्यवस्था थी आरक्षण उसके हिसाब से तय किया गया। यह एक अस्थायी व्यवस्था थी लेकिन राजनीतिज्ञ अपने फायदे के लिए इसका अभी तक इस्तेमाल का रहे हैं। आरक्षण का लाभ वंचितों को मिले ना मिले लेकिन इसका मूल्य देश को चुकाना पड़ रहा है।

भारत का समाज जातिगत समाज है। भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण आजादी के पहले से लागू है। अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था 1993 में की गयी। ओबीसी को 2006 से शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण की व्यवस्था की गयी। हाशियाग्रस्त लोगों को समाज के मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू की गयी थी, लेकिन विडंबना यह है कि आरक्षण के नाम आजतक सिर्फ राजनीति ही होती रही और यह अपने मूल उद्देश्य में सफल नहीं हो पायी। आरक्षण का लाभ सही अर्थों में उन लोगों तक नहीं पहुंच पाया जिनको सही मायनों में इसकी जरूरत थी। आरक्षण में शामिल जातियां राजनीतिक दृष्टि से वोट का साधन मात्र रही हैं, उससे इतर कुछ भी नहीं। ए. परियाकरूप्पन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा था कि आरक्षण किसी के निहित स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए। न्यायालय ने यहां तक कहा था कि आरक्षण की नीति की सफलता की कसौटी यही होगी कि कितनी जल्दी आरक्षण की आवश्यकता को समाप्त किया जा सकता है।

आरक्षण नीति और उसके असर की गहन समीक्षा की जानी चाहिए। यह देखना आवश्यक है कि आरक्षण अपने मूल्य उद्देश्यों में कहां तक सफल रही है। यदि व्यवस्था सफल नहीं रही है तो इसका तात्पर्य यह है कि आरक्षण की नीति में व्यापक फेरबदल की आवश्यकता है। आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था योग्यता को दबानेवाली है। हम समाज में नयी वर्ग व्यवस्था बना रहे हैं जो खतरनाक है।

आरक्षण तत्वतः विभेदकारी है, इसने समाज में एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दिया है। आरक्षण से अभिप्रेत है कि समान योग्यता के दो प्रत्याशियों में आरक्षित कोटा वाले को अनारक्षित कोटा वाले से वरीयता मिलेगी। अतएव बहुत से योग्य प्रत्याशी कम योग्य व्यक्तियों के पक्ष में आरक्षण होने के कारण कुंठित प्रतीत होते हैं। प्रोन्नति में आरक्षण से जहां प्रशासन तंत्र में शिथिलता आएगी और काबिलियत एवं योग्यता का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। इससे सामान्य व पिछड़े वर्गों के कर्मचारियों का मनोबल गिरेगा और वे संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार से वंचित हो जाएंगे।

2 COMMENTS

  1. बीनू जी, नमस्कार! आलेख को समय देने एवं उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार।

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