भगतसिंह पैदा हो, मगर पड़ोसी के घर में

अरे..रे..रे, आप गलत सोच रहे है, हम उत्तेजित नहीं हो रहे है बल्कि ये तो आधुनिक परिवेश का कड़वा सच बन गया है कि ‘‘भगतसिंह पैदा तो हो, मगर पड़ोसी के घर में । जी हॉ, आज हमारी, हमारे समाज की मानसिकता यही बन गई है कि बदलाव हो, समाज में व्याप्त कुरीतियों बुराईयों का अन्त हो और एक नई क्रान्ति का प्रवाह हो लेकिन बदलाव की चिन्गारी को ज्वाला में बदल देने का साहस रखने वाला कोई दूसरा भगतसिंह उसके घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर में हो क्योंकि पड़ोसी का दुःखी और पीड़ित होना ही हमें सुख प्रदान करता है पड़ोसी दुःखी रहेगा तो आस-पड़ोसी सुखी रहेंगे और पड़ोसी सुखी रहेगा तो आस-पड़ोसी दुःखी रहेगा क्योंकि साहब जमाना बदल गया है अब स्वंय के सुख से सुख और स्वंय के दुःख से दुःख नहीं होता इसलिये समाज में परिवर्तन करने वाला कोई पैदा हो तो वो पड़ोसी के घर में, हमारी संतान तो अच्छे से पढ़ाई – लिखाई कर डॉक्टर, बने, इंजीनियर बने, आई0पी0एस0 अधिकारी बने, सरकारी नौकरी बने न कि समाजिक कार्यो में अपना समय बर्बाद करें। वाह समाज, तुमने भी क्या मानसिकता बना ली शर्म आती है तुम पर, समाज के लिये प्रत्येक नागरिक अपना योगदान दें क्या ये उसका नैतिक कर्तव्य नहीं है। सिर्फ निजी स्वार्थो के गड्डे में पढ़े रहकर समाजहित एवं जागरूकता की बड़ी- बड़ी ढ़ीगे हॉकना तो कोई तुमसे सीखे। मैं नहीं कहता कि परिवारिक जिम्मेदारियों को छोड़ खुद को पूरा समाज के लिये समर्पित कर दीजिये, अरे साहब जब खुद को सामाजिक बताते हो तो समाज के प्रति खुद की नैतिक जिम्मेदारी भी तो निभाइये। समाजसेवी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के विरूद्ध चल रहे आन्दोलन के दौरान संज्ञान में आई एक घटना का जिक्र करना उचित समझता हॅू। एक महाश्य भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी होने का चोला ओढ़कर आन्दोलन के समर्थन में होने वाली सभा, प्रदर्शन, कैंडिल मार्च आदि में नियमित रूप से सक्रिय भूमिका का निर्वाहन कर अपनी पीठ स्वंय ठपठपाने का कार्य कर रहे थे उनकी कार्यशैली से ऐसा प्रतीत होने लगा था कि वास्तव में ये महाश्य भ्रष्टाचार के खिलाफ सजग व सक्रिय है लेकिन विचारणीय हालातों ने जन्म तब लिया जब पता चला कि जो महाश्य भ्रष्टाचार के विरूद्ध शंखनाद कर खुद को ईमानदार साफ-सुथरी छवि वाले इंसान के रूप में खुद को प्रदर्शित करने का भरसक प्रयास कर रहे थे वह महाश्य अपने परिवार की एक सदस्य की नौकरी के लिये टेबिल के नीचे चाय-पानी का तगड़ा इंतजाम करके आये है। वाकई में समाज को बदलने का जिम्मा ऐसे ही लोगों ने संभाल लिया तो परिणाम क्या होंगे ये किसी से छुपा नहीं। हॉ, बस इतना जरूर है कि समाज बदलाव हो या न हो लेकिन वक्त-वक्त पर बड़ी-बड़ी बातों के साथ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में बड़ी-बड़ी फोटो जरूर छपती हुई नजर आयेगी। खैर छोड़िये, आप से क्या उम्मीद की जा सकती जब आप स्वार्थ , जातिवाद, धर्मवाद, भाई-भतीजावाद के साथ-साथ दारू, मुर्गा, साड़ी, नोट के बदले वोट नीलाम कर रहे है तो यही आपकी मानसिकता का प्रदर्शन करती है। मतदान कर अपने क्षेत्र, जिला, प्रदेश एवं देश की तस्वीर व तकदीर बदलने के लिये जनप्रतिनिधि चुनते है आपने हित/ अहित को ध्यान रखते हुये उसमें आप के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर आपका साथ ऐसे व्यक्ति को चुनने का दावा करते है लेकिन साहब इसमें भी निजी लाभ की पूर्ति। अरे हजूर जब आप निजी लाभ को देखेंगे तो आपका चुना हुआ व्यक्ति भी आपके लाभ को कैसे देखेगा क्योंकि वह चार दिन की चॉदनी आपको पहले ही दिखा चुका है जिसके सहारे वह कुर्सी तक पहुॅचा तो वह कुर्सी पर पहुॅचने के बाद आपका हित नहीं अपना हित देखेगा। भले ही नीलाम करके स्वार्थपूर्ति से जैसे भी करते हो कम से कम मतदान तो करते लेकिन एक बड़ी आबादी तो ऐसी है जो अपने मत के दान करने में ही संकोच करती है अपने कर्तव्य से विमुख होती है लेकिन कल्पना सुशासन की करती, एक अच्छी सरकार की करती। क्या बिना बीज बोये फसल उगायी जा सकती….. जबकि आप अपने अधिकार, अपने दायित्व का निर्वाहन करें इसके लिये शासन शासकीय-गैर शासकीय कर्यालयों एवं विभिन्न जगहों मतदान वाले दिन अवकाश घोषित होता है लेकिन फिर भी आप अपने कर्तव्य से विमुख होकर सिर्फ टी0 वी0 की स्क्रीन पर ही चुनावी हलचलों को देख आपके हित में कार्य करने वाले जनप्रतिनिधि को जीत का ताज पहनाने की मानसिक चाहत रखते है लेकिन यह बिल्कुल ऐसा प्रतीत हो रहा जैसे आसमान से तारे तोड़ना। पॉच साल मेंं एक दिन आप अपनी देश के प्रति जिम्मेदारी निभाने में नाकाम साबित हो जाते है तो अपना खाली वक्त सामाजिक योगदान में निर्वाहन करने की अपेक्षा करना भैंस के सामने बीन बजाने जैसा है। इसलिये साहब खुद को ईमानदार कहकर आने वाली को गुमराह न करें। यही हाल रहा तो मैं यह आशा ही नही वरन् पूरे विश्वास के साथ कह सकता हॅू कि वह दिन दूर नहीं जब समस्याओं का समाज पर वर्चस्व होगा और बुद्धजीवी एवं समाजसेवी होने का लिवास पहने लोगों को आने वाली पीढ़ी सिर्फ कोसती नजर आयेगी।

 

पारसमणि अग्रवाल

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