श्रीमद्भगवद्गीता और छद्मधर्मनिरपेक्षवादी : चर्चा-३

विपिन किशोर सिन्हा

प्रवक्ता में इसी सप्ताह एक लंबे लेख में एक निरंकुश लेखक ने गीता के एक श्लोक को उद्धरित करते हुए टिप्पणी लिखी है — “इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद हिन्दुओं में आदरणीय मानेजाने वाले विद्वान आदि शंकर ने आठवीं शताब्दी में इस प्रकार किया है –”

लेखक के अज्ञान पर रोना आता है। क्या आदि शंकराचार्य ने हिन्दी में कोई ग्रंथ लिखा है? क्या आठवी शताब्दी में एक भाषा के रूप में हिन्दी का अस्तित्व था? निस्सन्देह, नहीं। परम आदरणीय शंकराचार्य वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वृहत्‌ महाभारत से गीता को बाहर निकालकर लिपिबद्ध किया और एक अद्वितीय विशिष्ट ग्रंथ से पूरे विश्व को नए सिरे से परिचित कराया। उन्होंने गीता पर टीका भी लिखी लेकिन संस्‌कृत में। उनका पूरा साहित्य ही संस्कृत में है। निरंकुश लेखक ने मनचाहा अर्थ हिन्दी में लिखकर उसे शंकराचार्य का अनुवाद बता छपवा दिया है। गीता की संस्कृत सरल है। अगर हाई स्कूल तक किसी ने संस्कृत मन लगा कर पढ़ी हो, तो गीता समझना उतना मुश्किल नहीं है लेकिन आदि शंकर की टीका समझने के लिए निरंकुश लेखक को कम से कम सौ जन्म लेने पड़ेंगे। इसलिए उनके लेख का कोई भी शब्द विश्वसनीय नहीं है।

हम पुनः पुरानी चर्चा पर लौट आते हैं।

चाणक्य ने कहा था कि इस समाज और राष्ट्र को दुष्टों की दुष्टता से जितनी क्षति नहीं हुई है, उससे कई गुणा अधिक क्षति सज्जनों की निष्क्रियता से हुई है। चाणक्य की यह उक्ति गीता संदेश का सार है। कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध के लिए कौरवों और पाण्डवों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। युद्ध की घोषणा हो चुकी है। ऐसे में अर्जुन के चित्त की स्थिति अचानक परिवर्तित होती है। एक क्षण पूर्व पूर्ण स्वस्थ संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, एक बीमार जैसा आचरण करता है, कहता है —

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।

न शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥

(गीता १/३०)

हाथ से गाण्डीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं हूं।

मानसिक और शारिरिक दृष्टि से अस्थिर अर्जुन विषादग्रस्त है – स्वाभिमान शून्य होकर कर्त्तव्यच्युत हो गया है। यह कोई साधारण युद्ध नहीं था। एक तरफ दुर्योधन के रूप में आसुरी शक्तियां खड़ी थीं, तो दूसरी ओर अर्जुन के नायकत्व में दैवी शक्तियां। अर्जुन के पलायन का सीधा अर्थ था — आसुरी शक्तियों की एक पक्षीय जीत। उस समय भी दो वर्ग थे – एक निपट भौतिकवादी जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था, जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी थी – भोग, लूट-खसोट। उस वर्ग के विरुद्ध कृष्ण को युद्ध इसीलिए करवाना पड़ा क्योंकि शान्ति के सभी प्रयास असफल हो गए थे, सभी मार्गों को दुर्योधन ने बंद कर दिया था। तब युद्ध इसलिए आवश्यक था कि शुभ शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है – पलायन की। वह संघर्ष टालना चाहता है, पलायन करना चाहता है। आज पुनः लगभग वैसी ही स्थिति है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता, क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न जाय, इसके लिए लड़ाई है।

अर्जुन भला आदमी है, शुभ शक्तियों का प्रतीक, सीधा-सादा। सीधा सादा आदमी कहता है – मत झगड़ा करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं है, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जम कर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं, न भागने देते हैं। वे अर्जुन की बीमारी को पहचान जाते हैं। उसका शरीर स्वस्थ है, लेकिन मन अस्वस्थ है, चेतना बीमार है। वह द्विधा में है, द्वन्द्व में है। लेकिन अर्जुन है बहुत ईमानदार। अपनी दुर्बलता छिपाता नहीं। सबकुछ रख देता है खोलकर, श्रीकृष्ण के सामने। उनसे ही समाधान चाहता है। श्रीकृष्ण अर्जुन का मूल स्वभाव जानते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि परिस्थितिजन्य क्षणिक वैराग के वशीभूत अर्जुन अगर युद्ध छोड़कर संन्यास भी ले ले, वन में जाकर ध्यान लगाने की चेष्टा भी करे, तो कर नहीं पाएगा। वह एक सच्चा क्षत्रिय है। वह वहां भी जब देखेगा कि आस पास वन में पशु-पक्षी भी एक दूसरे को सता रहे है, तो पेड़ों की टहनियों से धनुष बनाएगा और वही पशु-पक्षियों का शिकार करना आरंभ कर देगा। एकाएक धर्म-परिवर्तन संभव नहीं। कुरुक्षेत्र के मैदान में असली समस्या “अपनों” के कारण ही थी। अगर विरोधी पक्ष में पितामह, मामा, भाई-बंधु, मित्र, गुरु और अपनी ही सेना नहीं होती, तो अर्जुन सबको कबका गाजर-मूली की भांति काट चुका होता. ऐसा वह कई बार कर चुका था लेकिन एक बार भी मोहग्रस्त नहीं हुआ था। विश्व के आदि मनोवैज्ञानिक श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा से पूरी तरह अवगत थे, उन्होंने क्षण भर में ही बीमारी पहचान ली। यह “मैं” और “मेरा” के अहंकार से उत्पन्न मोह मात्र था। कृष्ण ने अर्जुन की सारी शंकाओं का निराकरण किया, बड़े धैर्य और विवेक से। अर्जुन की चेतना में नवजागरण का संचार किया, नव आत्म विश्वास की सृष्टि की, मन को स्वाभिमान से पूरित किया। विलक्षण परिणाम सामने आया। गीता-उपचार के बाद अर्जुन कहता है –

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादा्न्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गत संदेहः करिष्ये वचनं तव॥

(गीता १८/७३)

हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूं। अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।

मोहग्रस्त अर्जुन गीता-संवाद के बाद आग में तपे कुन्दन के समान खरा बन जाता है। निष्काम कर्म भाव से, पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ महासमर में प्रवेश करता है। परिणाम आता है – शुभ शक्तियों की अविस्मरणीय विजय।

कुछ लोग यह सोचते हैं कि युद्ध ने सदा नुकसान ही पहुंचाया है, वे गलत सोचते हैं। आज के भौतिक विकास का अधिकांश हिस्सा युद्धों के माध्यम से प्राप्त हुआ है। पहली बार रास्ते सेना भेजने के लिए बनाए गए थे – बारात भेजने के लिए नहीं। पहले बड़े मकान नहीं थे। बड़ा किला बना – वह युद्ध की आवश्यकता थी। पहली दीवाल दुश्मन से लड़ने या रक्षा के लिए बनी थी। चीन की दीवाल सबसे बड़ा प्रमाण है। पहले दीवालें बनीं, अब गगनचुंबी भवन हैं। मनुष्य के पास जितने भी साधन हैं, जितनी भी संपन्नता है और जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हैं, सब युद्ध के माध्यम से ही हुए। युद्ध के क्षण मनुष्य साधारण नहीं रह जाता है – असाधारण हो जाता है। मनुष्य का मस्तिष्क अपनी पूरी शक्ति से काम करने लगता है और युद्ध में एक छलांग लग जाती है मनुष्य की प्रतिभा की, जो शान्ति-काल में वर्षों में, सैकड़ों वर्षों में भी नहीं लग पाती।

क्रमशः

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