डॉ. मयंक चतुर्वेदी
सत्ता और संगठन में एक राजनीतिक पार्टी का अध्यक्ष क्या मायने रखता है, यह आज किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। संगठन मजबूत होगा तो स्वत: ही सत्ता नतमस्तक हो जाती है। इन दिनों यह बात भारतीय जनता पार्टी पर पूरी तरह खरी उतर रही है। राष्ट्रीयता के पूर्ण समर्पण के विचार को लेकर जब 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया और स्वयंसेवकों के माध्यम से देशसेवा के लिए कार्य करने लगा था तो उस समय अचानक से हुई महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में व्यर्थ ही संघ को घसीटने का दुस्साहसपूर्ण, राजनीतिक षड्यंत्र रचा गया था और संघ पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्ण प्रतिबंध लगाया। यह बात अलग है कि उच्चतम न्यायालय ने माना कि गांधी हत्या में संघ का कोई हाथ नहीं, उस पर लगा प्रतिबंध एक राजनीतिक षड्यंत्र का परिणाम है।
वस्तुत: उस समय में जो रा.स्व.संघ के स्वयंसेवकों के ऊपर अत्याचार हुए थे, उन्होंने आगे स्वयंसेवकों को प्रेरित एवं विवश किया कि लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के बीच देश में राजनीतिक स्तर पर अपना भी एक दल हो जो संसद एवं राज्यों की विधानसभाओं में हमारा भी पक्ष रखे। इसी के साथ समाज के बीच राष्ट्रीय जागरण का प्रण लेकर कार्य करनेवाले संगठन संघ के कुछ स्वयंसेवक राजनीतिक क्षेत्र में भी सक्रिय हो उठे। श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लेकर 21 अक्टूबर 1951 के दिन दिल्ली में दीपक चुनाव चिह्न के साथ जनसंघ की स्थापना होती है और यह दल 1952 के संसदीय चुनाव मे 2 सीटें प्राप्त करने में सफल रहता है़। जनसंघ की स्वीकार्यता अल्प समय में कैसे बढ़ती है, वह इससे समझ सकते हैं कि लोकसभा चुनावों में उत्तरोत्तर सफलता उसे मिलती है। 1952 में 3.1 प्रतिशत वोट और 3 सीट,1957 में 5.9 प्रतिशत वोट और 4 सीट,1962 में 6.4 प्रतिशत वोट और 14 सीट तथा 1967 में 9.4 प्रतिशत वोट और 35 सीट इस संगठन ने प्राप्त की। उसके बाद देश में जो परिस्थितियां निर्मित हुईं और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल तक लगाया गया, उसके परिणाम स्वरूप आगे बनी जनता पार्टी से विलग होकर स्वयंसेवकों ने 1980 में पुन: एक राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी का गठन किया जो जनसंघ का ही एक नया रूप था।
यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं कि किस तरह से रामजन्म भूमि आन्दोलन के समय 2 सीट जीतकर संसद में पहुंचनेवाला यह दल देशभर में तेजी से अपनी स्वीकार्यता प्राप्त करने में कैसे सफल रहा है । इस दल में हर राष्ट्रीय अध्यक्ष का अपना स्वर्णिम काल है, प्रत्येक ने भाजपा को गढ़ने, उसे आगे बढ़ाने, देश के क्षितिज पर छा जाने के लिए अपना पूरा श्रम और मनोरथ लगाया । किंतु इसके बाद कहना यही होगा कि इस दल ने अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते जो सफलता पाई है,वह अविस्मरणीय है। शाह के वर्तमान कार्यकाल में पार्टी न केवल लगातार घर-घर तक अपनी पहुँच बना रही है, बल्कि लोकसभा-राज्यसभा में प्रचंड बहुमत में दिखाई दे रही है, साथ में आज वह केंद्र के साथ सबसे अधिक राज्यों में अपनी सरकार सफलतापूर्वक चला रही है।
वस्तुत: वर्ष 2014 आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत ने अमित शाह को लोगों के बीच जाना पहचाना चेहरा बनाया, लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि संघ के संस्कारों से देशभक्ति का पाठ पढ़नेवाले शाह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से अपनी विद्यार्थी राजनीति के माध्यम से समाजिक जीवन में सफलता के झंडे गाढ़ चुके हैं। अमित शाह पहले योजना बनाने पर विश्वास करते हैं, फिर उस योजना को सफलता प्रदान करने के लिए अपने पूरे प्रयत्न करते रहने में ही संगठन सफलता देखते हैं। यही वजह है कि अमित शाह को आज राजनीति का चाणक्य तक कहा जाने लगा है। अब तक कई राज्यों में बीजेपी की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाने के कारण ही उनकी लोकप्रियता में लगातार इजाफा हो रहा है।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जिस तरह का प्रदर्शन किया, उससे उनकी योजना एवं भूमिका का लोहा न केवल पार्टी के अंदर बल्कि विपक्ष ने भी माना है। कहा जा सकता है कि भाजपा को उन्होंने उत्तरप्रदेश में एक नई जिंदगी दी है, जिसमें कि सभी राजनीतिक पार्टियों की समस्त योजनाएं धराशाही हो गईं। 9 अगस्त 2014 को बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष की भाजपा में अहम जिम्मेदारी सम्हालने के बाद से वे एक सफल अध्यक्ष और एक कुशल प्रबंधक के तौर पर अजेय बने हुए हैं। वे अब संसद सदस्य भी चुने जा चुके हैं। उनकी लोकप्रियता का प्रदर्शन हाल ही में आया एक सर्वे भी कर रहा है जिसके अनुसार अप्रैल 2015 तक देशभर में जहां 27 प्रतिशत लोग शाह के प्रदर्शन को अच्छा और 7 प्रतिशत लोग बहुत अच्छा मानते थे, वहां आज इस प्रदर्शन को सही ठहराने वालों की संख्या बढ़कर 37 और बहुत अच्छा मानने वाले लोगों की संख्या में 13 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
आगे देखें तो 18 माह बाद 2019 में लोकसभा चुनाव होना है। इस चुनाव में अमित शाह ने भाजपा के सामने 350 प्लस सीट जीतने का लक्ष्य तय किया है जो पिछले चुनाव की तुलना में 78 सीटें अधिक है । शाह अपनी सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से इन दिनों अपनी पार्टी का आधार बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। उनकी नजर आगामी लोकसभा चुनाव में समुद्रीय तट के किनारे वाली तमिलनाडु-पुड्डुचेरी की 40, केरल की 20, पश्चिम बंगाल की 42 और ओडिशा की 21 सीटें सहित कुल 123 सीटों पर हैं। जिन पर कि पिछले चुनाव में बीजेपी जीत नहीं सकी थी। इसी के साथ वे इस बार उन सीटों पर भी विशेष ध्यान दे रहे हैं, जिन पर पार्टी गत चुनाव में दूसरे नंबर पर रही, देश में ऐसी सीटों की संख्या 75 है।
वस्तुत: अमित शाह ने अभी से ही अपने सभी कार्यकर्ताओं को जीत के फार्मुले पर काम करने के लिए लगा दिया है। सांसदों, मंत्रियों एवं संगठन के उन तमाम वरिष्ठों को इस समय क्षेत्र का निर्धारण कर उसके लिए जीत की रणनीति पर कार्य करने का जिम्मा सौंप दिया गया है। इन दिनों अमित शाह सभी राज्यों में कुल 110 दिनों के अपने विस्तृत प्रवास पर हैं । संगठन स्तर पर यह सुनिश्चित किया गया है कि वे बड़े राज्यों में तीन दिन, मध्यम श्रेणी के राज्यों में दो दिवस एवं मझोले राज्यों में एक दिन का प्रवास करेंगे।
भोपाल आने के बाद उन्होंने जिस तरह से एक के बाद एक बैठकें ली हैं और उन बैठकों के माध्यम से सांसद, विधायक, विभिन्न प्रदेश के राष्ट्रीय पदाधिकारी, प्रदेश पदाधिकारी, प्रवक्ता, मीडिया प्रभारी, प्रभारी, मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय पदाधिकारी, प्रकोष्ठों के प्रदेश संयोजक, विभाग एवं प्रकल्प के प्रदेश संयोजक, जिला अध्यक्ष एवं जिला प्रभारी, संगठन मंत्रियों, जिला सहकारी बैंक अध्यक्ष, निगम मंडल, बोर्ड एवं प्राधिकरण अध्यक्ष, महापौर, जिला पंचायत अध्यक्षों की बैठके ली हैं उससे साफ हो गया है कि न केवल आगामी विधानसभा चुनाव वर्ष 2018 में मध्यप्रदेश में और वर्ष 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर से अपनी सरकार बनाने में सफल हो जाएगी।
हालांकि यह भी सच है कि चुनावों की सफलता और अभी से उसके इस तरह से परिणामों की घोषणा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में करना उचित नहीं, किंतु सच यही है कि अमित शाह की जो वर्तमान रणनीति है, जिस तरह से वे अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार कर रहे हैं, उसे देखते हुए सच पूछिए तो यही कहना होगा कि भाजपा चहुंओर से सत्ता में अपनी वापिसी करने के लिए अभी से तैयार है