हिंदी जगत के युग प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र

9 सितम्बर विशेष:-

मृत्युजंय दीक्षित

हिंदी साहित्य के माध्यम से नवजागरण का शंखनाद करने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म काशी मंे 9 सितम्बर 1850 को हुआ था। इनके पिताश्री गोपालचन्द्र अग्रवाल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। घर के काव्यमय वातावरण का प्रभाव भारतेंदु जी के जीवन पर पड़ा और पंाच वर्ष की अवस्था में उन्होनें अपना पहला दोहा लिखा। उनका दोहा सुनकर  पिताजी बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया कि तुम निश्चित रूप से मेरा नाम बढाओगेेे।

भारतेंदु जी के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। उन्होनें देश के विभिन्न भागों की यात्रा की और वहां समाज की स्थिति और रीति नीतियों को गहराई से देखा। इस यात्रा का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे जनता के  हृदय में उतरकर उनकी आत्मा तक पहुंचे।

भारतीय पत्रकारिता व हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदुं जी जिन्होनें अपनी लेखनी के माध्यम से अंग्रेज सरकार को तो हिला ही दिया था और भारतीय समाज को भी एक नयी दिशा देने का प्रयास किया। उनका आर्विभाव ऐसे समय में हुआ था जब भारत की धरती विदेशियों के बूटों तले रौंदी जा रही थी। भारत की जनता अंग्रेजों से भयभीत थी,  गरीब थी, असहाय थी, बेबस थी।भारत अंग्रेज शासन के भ्रष्टाचार से कराह रहा था। एक ओर जहां अंग्रेज भारतीय जनमानस पर अतयाचार कर रहे थे वहीं भारतीय समाज अंधविश्वासों और रूढिवादी परम्पराओं से जकडा हुआ था।भारतेंदु जी ने अपनी लेखनी के माध्यम से तत्कालीन राजनीतिक समझ और राजनैतिक चेतना को स्वर दिया। जातीय स्तर पर घर कर गये पराधीनता के बोझ को झकझोरा था। उन्होनें बचपन में प्रथम स्वतंत्रता स्रंगाम को देखा जिनका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

भारतेंदं जी के लिये कई परिस्थितियां बेहद विषम तथा पीड़ादायक थीं। जिसका प्रभाव उनके साहित्य और रचनाओं में भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। उनका परिवार तत्कालीन अंग्रेज शासकों का विश्वासपात्र था। उनकी नैतिकता विदेशी आक्रांताओं के समक्ष नतमस्तक थीं पर वे अंग्रेजों के विश्वासघात को भी नजदीक से देख रहे थे। अपनी साहित्यिक रचनाओं में उन्होनें देशभक्ति व राजभक्ति दोनों का ही सामंजस्य बैठाने का अदभुत प्रयास किया है। यदि उनकी रचनाओं पर विहंगम दृष्टि डाली जाये तो उससे पता चलता है कि उनके व्यक्तित्व का प्रभाव उनके गद्य साहित्य में अधिक दिखलाई पड़ता है। उनका पत्र साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। पत्र साहित्य के माध्यम से उनके सरल स्वभाव का पता चलता है। बुक रिव्यू की परम्परा भी उन्होंने ही डाली। समीक्षा के लिए पुस्तक मिलते ही वह उसकी प्राप्त स्वीकृति बड़े विस्तार के साथ छापते थे। उनकी पत्रकारिता हिंदी शब्द भंडार का विस्तार तथा हिंदी वांगमय की वृद्धि के लिये सदा प्रयत्नशील रही। उनकी पत्रकारिता कइ मोर्चो पर संघर्ष किया लेकिन फिर भी उनकी पत्रकरिता में नये भारत के निर्माण का स्वप्न था।

उन्होनें साहित्यिक लेखन और पत्रकारिता की दृष्टि से कोई भी विषय नहीं छोड़ा था। पत्रकारिता के क्षेत्र में व्यंग्य विधा का निर्माण किया। हरिश्चंद्र मैगजीन में अंग्रेजी भाषा में लिखकर वे अंग्रेजों व अंग्रेजी भाषा का मजाक उड़ाया करते थे। हास्य व्यंग्य में बनारसी स्वभाव परिलक्षित होता है। वे हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में पैरोडी के जन्मदाता भी थे। वे नाटककार भी थे, अभिनेता भी थे। उन्होनें तत्कालीन अंग्रेज सरकार के सत्ता प्रतिष्ठान का मजाक बनाने के लिये एक नाटक लिखा ”अंधेर नगरी चौपट राजा।” यह नाटक आज की परिस्थितियों में भी सटीक बैठता है।   उन्होनें   अपने भारत दुर्दशा नाटक के पं्रारम्भ में समस्त देशवासियों को सम्बोधित करके देश की गिरि हुई अवस्था पर आंसू बहान को आमंत्रित किया।    वे अपने साहित्य व लेखन में वैष्णव होते हुए भी कभी भी किसी धर्म की अच्छाइओं को नकारते नहीं थे। उन्हानें अपने साहित्य  में सदा स्त्री शिक्षा का सदा पक्ष  लिया। वे अच्छे अनुवादक थे तथा कुरान का हिंदीं भाषा में अनुवाद किया। उन्होनें धार्मिक रचनाएं भी लिखीं जिसमें कार्तिक नैमित्तिक कृत्य , कार्तिक की  विधि, मार्गशीर्ष  महिमा,माघस्नान  विधि आदि महत्वपूर्ण है। उनका एक ऐतिहासिक भाषण हरिश्चंद्र चंद्रिका में प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था ,”भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है। भारतेंदु जी की एक और बड़ी विषेशता यह थी कि वी लेखन कार्य के दौरान ग्रह नक्षत्रों के अनसुार ही कागजों का प्रयोग करते थे। वे रविवार को गुलाबी कागज ,सोमवार को सफेद कागज,मंगलवार  को लाल,बुधवार को हरे ,गुरूवार को पीले,शुक्रवार को फिर सफेद व शनिवार को नीले कागज का प्रयोग करते थे। उन कागजों पर मंत्र भी लिखे रहते थे। उनकी साहितियकि विषयों के अतिरिक्त विषयों विज्ञान,पुरातत्व,राजनीति व धर्म आदि विषयों पर भी लेखन का कार्य किया करते थे। वे समस्त राष्ट्रीय चिंतन को आधुनिक परिवेश में लाना चाहते थे। 17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक पाठशाला खेाली जो अब हरिश्चंद्र डिग्री कालेज बन गया है।

यह हमारे देश धर्म और भाषा का  दुर्भाग्य रहा कि इतना प्रभावशाली साहित्यकार मात्र 35 वर्ष की अवस्था में ही संसार को छोड़ गया। इस अल्पाअवधि में ही उन्होने  75 से अधिक ग्र्रंथों की रचना की।

 

 

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