बिहार में विकास के नाम पर मतदान हुआ तो…?

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तनवीर जाफ़री
देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बिहार शीघ्र ही विधानसभा चुनावों से रूबरू होने जा रहा है। राज्य में मुख्य मुक़ाबला भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तथा राज्य में सत्तारुढ़ जनता दल युनाईटेड के नेतृत्व में बने नए-नवेले महागठबंधन के मध्य है। जबकि राज्य में सक्रिय कम्युनिस्ट दलों ने दोनों ही गठबंधनों से अपनी दूरी बनाई हुई है। खबर है कि इस बार के चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं में अपनी पैठ बनाने की जुगत में सांसद असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली आल इंडिया मजलिस-ए-इतेहादुल मुसलमीन भी अपना भाग्य आज़माने जा रही है। बहरहाल इन सब के बीच वास्तव में मुख्य मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा राज्य के मुख्यमंत्री नितीश कुमार के मध्य छिड़ चुकी ज़ुबानी चुनावी जंग के बीच ही देखा जा रहा है। अपने स्वभाव के अनुरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव की ही तरह बिहार विधानसभा चुनाव को भी पूरे आक्रामक अंदाज़ से युद्ध स्तर पर लडऩे की ठानी है। उनका प्रयास है कि किसी भी तरह से इस बार राज्य की सत्ता नितीश कुमार के हाथों से छीन ली जाए। इसके लिए वे राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने के लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए अपने वादे को पूरा करने के बजाए एक सौ पैंसठ लाख करोड़ के विशेष पैकेज का एलान कर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके जवाब में जहां नितीश कुमार नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित किए गए इस पैकेज को महज़ आंकड़ों की बाज़ीगरी बता रहे हैं वहीं उन्होंने भी इससे भी बड़े पैकेज का एलान कर बिहार के चहुंमुखी विकास का संकल्प दोहराया है।
राज्य में चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा इस बात को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। परंतु पटना के गांधी मैदान में महागठबंधन के नेतृत्व में हुई विशाल स्वाभिमान रैली जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी,मुख्यमंत्री नितीश कुमार,आरजेडी प्रमुख लालू यादव आदि नेताओं ने शिरकत की। और अब तक राज्य में ही प्रधानमंत्री की हो चुकी तीन रैलियों ने चुनावी दंगल को बेहद दिलचस्प बना दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी भागलपुर की ताज़ातरीन जनसभा में राज्य के गत् 25 वर्ष के शासकों से उनके शासन का हिसाब मांगा है। उनके अनुसार नीतिश कुमार सरकार भी राज्य को तरक्की की राह पर नहीं ले जा सकी। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने राज्य में जनस्वास्थय केंद्र की संख्या बढऩे के बजाए घटने का उदाहरण दिया। सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी को अपने इस आरोप से बरी कर सकते हैं? क्योंकि नीतिश कुमार के शासन काल में भारतीय जनता पार्टी अधिकांश समय तक राज्य सरकार में उनकी सहभागी रही है तथा नितीश कुमार के साथ भाजपा के सुशील मोदी ने भी उपमुख्यमंत्री के रूप में सरकार चलाने में अपनी भूमिका निभाई है। मोदी ने विकास के नाम पर राज्य की जनता से वोट करने की अपील की है। देश के जो लोग बिहार आते-जाते रहते हैं तथा किसी भी कारणवश उनका बिहार से कोई वास्ता रहता है वे भलीभांति जानते हैं कि नितीश कुमार के शासनकाल में बिहार ने निश्चित रूप से तरक्की की है। और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पटना की स्वाभिमान रैली में स्वयं यह बात कही कि यूपीए सरकार बिहार के विकास के लिए जो योजनाएं तैयार करती थी नितीश कुमार ने मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें ठीक ढंग से लागू किया है। आज बिहार के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि राज्य में बिजली,पानी व सडक़ जैसी मूलभूत सुविधाओं में काफी सुधार हुआ है। बिहार के जिन गांवों में सप्ताह भर तक बिजली की रौशनी नज़र नहीं आती थी उन्हीें गांवों में अब 16 से 20 घंटे तक बिजली रौशन होने लगी है। राज्य के हाईवे से लेकर कस्बाई व गांवों को जाने वाली सडक़ें निर्मित हो चुकी है। राज्य के शहरी व क़स्बाई बाज़ारों में भी रौनक़ देखी जा रही है। पूरे राज्य में आवासीय निर्माण कार्य अपने चरम पर हैं। आख़िर यह विकास के लक्षण नहीं तो और क्या हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ी चतुराई के साथ बिहार के पच्चीस वर्ष के राजकाज का हिसाब तो मांग ही रहे हैं साथ-साथ राज्य में हुए विकास की अनदेखी कर मतदाताओं को गुमराह करने की कोशिश भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि राज्य को पच्चीस वर्षों में बिजली नहीं मिली। पैसे होने के बावजूद राज्य में कोई काम नहीं हुआ। राज्य के युवा बिहार छोडऩे को क्यों मजबूर हैं आदि-आदि। इनके यह सभी आरोप निराधार हैं क्योंकि पिछले पच्चीस वर्षों के शासन के प्रयास के परिणामस्वरूप ही राज्य में बिजली की स्थिति में सुधार हुआ है,मनरेगा जैसी योजनाओं के परिणामस्वरूप ही राज्य के लोगों के रोज़गार हेतु बाहर जाने के अनुपात में कमी आई है। परंतु जब प्रधानमंत्री मोदी से उनके डेढ़ वर्ष के शासन का हिसाब मांगा जाता है और पिछले लोकसभा चुनाव में उनके द्वारा किए गए वादों के विषय में पूछा जाता है तो इसके जवाब में वे यह कहकर किनारा करने की कोशिश करते हैं कि जब 2019 में लोकसभा का चुनाव आएगा तो मैं अपने एक-एक मिनट के शासन का हिसाब दूंगा। न ही वे दाल और सब्ज़ी तथा खासतौर पर प्याज़ जैसी रोज़मर्रा के इस्तेमाल की बेतहाशा बढ़ी क़ीमतों पर कुछ रोशनी डालते हैं न ही सत्ता में आने के बाद सौ दिनों में काला धन वापस लाने की अपनी हेकड़ी पर कुछ प्रकाश डालते हैं। और न ही अपने उस ‘जुमले’ पर कुछ चर्चा करते हैं जिसमें उन्होंने प्रत्येक देशवासी के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपये डालने की बात कही थी। बजाए इसके वे नितीश कुमार,कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल की दोस्ती को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं। वे महागठबंधन में चुनाव पूर्व करीब आए राजनैतिक दलों को तो मौकापरस्त गठबंधन बताते हैं जबकि उनकी अपनी रैलियों में रामविलास पासवान,जीतन राम मांझी तथा पप्पू यादव जैसे नेता और दूसरे कई गैर भाजपाई नेता दिखाई देते हैं।
उधर दूसरी ओर राज्य के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने भी भाजपा से भयभीत होकर तथा धर्मनिरपेक्ष मतों के विभाजन को रोकने की गरज़ से कांग्रेस व आरजेडी से हाथ मिलाकर चुनाव लडऩे का फैसला किया है। यदि नितीश कुमार चाहते तो राज्य का सबसे बड़ा राजनैतिक दल होने के नाते विधानसभा चुनाव अकेले भी लड़ सकते थे। परंतु उन्होंने राज्य में सांप्रदायिक शक्तियों के वर्चस्व को रोकने के लिए निश्चित रूप से सीटों के बंटवारे को लेकर एक बड़ी कुर्बानी दी है। इसमें भी कोई शक नहीं कि नीतिश कुमार राज्य के एक ऐसे नेता हैं जिन्हें राज्य को विकास की पटरी पर लगाने वाले नेता के रूप में देखा जाता है। इसके साथ-साथ नितीश कुमार के ऊपर अभी तक किसी प्रकार के भ्रष्टाचार का भी कोई आरोप नहीं लगा है। मीडिया उन्हें कभी विकास बाबू तो कभी सुशासन बाबू के नाम से संबोधित करता है। पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने अपनी एक जनसभा में नीतिश कुमार के डीएनए को ही चुनौती दे डाली थी। नीतिश कुमार ने अपनी स्वाभिमान रैली में मोदी के इस बड़बोलेपन का बड़ी ही खूबसूरती से जवाब दिया। उन्होंने बिहार के डीएनए का परिचय कराते हुए राज्य से संबंध रखने वाले उन तमाम महापुरुषों के नाम गिना डाले जिन्होंने देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बिहार का नाम रौशन किया है। परंतु इन सबके बावजूद इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि लालू प्रसाद यादव की धर्मनिरपेक्ष छवि तथा मुस्लिम व यादव मतों में उनके प्रभाव का जहां नीतिश कुमार को कुछ लाभ हो सकता है वहीं उनकी विवादित छवि तथा उनके शासनकाल में राज्य में फैली अराजकता की स्थिति उन्हें कुछ नुकसान भी पहुंचा सकती है। और यदि असदुद्दीन ओवैसी ने राज्य में अपनी तीसरी राजनैतिक दुकानदारी शुरु करने की कोशिश की तो उससे भी महागठबंधन को कुछ न कुछ नुकसान ज़रूर पहुंच सकता हैं। इसके अतिरिक्त वामपंथी दलों का इस धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन से अलग रहना भी चिंता का विषय है। परंतु इन सबसे अलग यदि नरेंद्र मोदी ने विकास को ही मुद्दा बनाकर राज्य में नीतिश कुमार की सरकार को चुनौती देने की कोशिश की तो संभव है कि भारतीय जनता पार्टी को वहां मुंह की खानी पड़े। उसका कारण यही है कि बिहार में गत् दस वर्षों में हुआ विकास केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी पर आधारित नहीं है बल्कि वहां जो भी विकास हुआ है वह सडक़ों पर,रेलवे स्टेशनों पर,गांव व कस्बों में तथा बाज़ारों में दिखाई दे रहा है। राज्य के दूरदराज़ के इलाकों में बिछी सडक़ें तथा बिजली की रौशनी वहां के विकास की गाथा स्वयं लिख रही है। अराजकता में भी कमी आई है। हां विदेशी पूंजीनिवेश और राज्य का औद्योगीकरण होना अभी शेष है जो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलने पर संभव हो सकेगा।

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