बिहार में स्वास्थ्य कुव्यवस्था लाइव

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-आलोक कुमार- betal in hospital

हमारे बिहार में एक कहावत बहुत ही प्रचलित है – ऊपर से फिट-फाट, नीचे से मोकामा घाट। इसका भावार्थ ये है कि बाहर से तो सब कुछ दुरुस्त ही दिखाई देता है, परन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यही हाल है बहुप्रचारित सुशासनी बिहार के ग्रामीण इलाकों में स्थित स्वास्थ्य सेवाओं व संरचनाओं का, इसी साल जनवरी के महीने ( १८-०१-२०१४ ) में मैंने राजधानी पटना से सटे ग्रामीण इलाकों में स्थित कुछ स्वास्थ्य केन्द्रों का जायजा लिया, आप सबों के समक्ष पेश है – मेरी आंखों देखी चंद तस्वीरों के साथ।

सुबह के सवा ग्यारह बजे मैं राजधानी पटना से लगभग १० किलोमीटर की दूरी पर (पटना-गया रोड पर) स्थित सम्पतचक (पटना-७) के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में था। परिसर में गहमा-गहमी थी, पंजीयन काउंटर पर पर्ची कटवाने के लिए मरीजों की लंबी कतार लगी थी, लेकिन काउंटर की खिड़की बंद थी, खिड़की खुलने का इंतजार करते खुले आसमान में कतार में खड़े लोगों ने बताया कि ये कोई नयी बात नहीं है। बारह बजे से पहले शायद ही किसी दिन खिड़की खुलती है। वहां पर मौजूद एक कर्मचारी से पूछने पर पता चला कि संबन्धित कर्मचारी आए हुए तो है, मगर चाय पीने गए हैं, उन्होंने आगे झेंपते हुए कहा – का कीजिएगा सर देखिए रहे हैं केतना ठंढा है, मैंने उनसे जब ये कहा कि कतार में खड़े लोगों को भी तो ठंड लगती होगी, तो वो महाशय वहां से खिसक लिए।

भवन के अंदर दाखिल होने के बाद मैंने जो नजारा देखा वो मेरे लिए नया तो नहीं था, लेकिन बिहार की सुशासनी सरकार के दावों की पोल तो जरूर खोलता नजर आ रहा था। एक्स-रे कक्ष के बाहर लंबी कतार लगी थी, लेकिन अंदर कोई टेक्निशियन मौजूद नहीं था। पूछने पर पता चला कि टेक्निशियन तो आए हुए हैं पर एक्स-रे प्लेट्स स्टोर-रूम में हैं और स्टोर कीपर अभी तक आए ही नहीं हैं। स्त्री रोग कक्ष से भी महिला डॉक्टर नदारथ थीं और महिला मरीज नर्सों के हवाले थीं। पूरे परिसर में सिर्फ एक डॉक्टर की ही मौजूदगी थी और उनके पास मरीजों की भीड़ जमा थी। प्रभारी के कक्ष में ताला लगा था और एक किरानीनुमा व्यक्ति चंद फ़ाइलों व रजिस्टरों में मशगूल था। चिकित्सकों के कक्ष में भी ताला लगा था और पर्दा लटक रहा था। मैंने जब प्रभारी और अन्य चिकित्सकों की मौजूदगी के बारे में पूछा तो वहां मौजूद किसी भी कर्मचारी ने कुछ भी बताने से परहेज किया और सभी कन्नी कटाते हुए दिखे। यहां मुझे तस्वीरें लेने में भी विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन विरोध के बावजूद कुछ तस्वीरें मैंने अपने कैमरे में कैद कर ही लीं। सबसे हैरान करने वाली बात जो मैंने वहां देखी कि दवाओं के सारे पुर्जे एक आदमी मरीजों से लेकर जमा करता जा रहा था। मैंने जब एक मरीज़ के परिजन से उस व्यक्ति के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ये बाहर बाजार में स्थित एक दवा दुकान का कर्मचारी है और अधिकांश दवाएं इसकी ही दुकान में मिलेंगी और स्वास्थ्य केंद्र के दवा काउंटर से दवाओं का वितरण नहीं के बराबर ही होता है। उन्होंने ही आगे बताया कि शायद ही किसी दिन सारे चिकित्सक आते हैं। जिस दिन उच्चाधिकारियों के आने या निरीक्षण की संभावना रहती है, उसी दिन सारे लोग मौजूद रहते हैं। मैंने उनसे जब ये पूछा कि आप लोग इसकी शिकायत जन प्रतिनिधियों या उच्चाधिकारियों से क्यों नहीं करते हैं तो उन्होंने मायूसी के साथ जवाब दिया- केकरा भिजुन जअईय, सब मिल्ले हईअ, हमनी सब करके थक गेली हे, अब अपने लोग ही ईसब समस्या के उठाथिन।
(किसके पास जाएं, सब मिले हुए हैं। हम लोग सब करके थक चुके हैं और अब आप लोग ही हमारी इन समस्याओं को उठाईए, वहां मौजूद मरीजों को भगवान भरोसे छोड़ते हुए खिन्न मन से मैं वहां से अपने अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ा।
दोपहर एक बजकर दस मिनट पर मैं राजधानी पटना से २८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित धनरूआ ब्लॉक परिसर में स्थित स्वास्थ्य.केंद्र में था स यहां के स्वास्थ्य-केंद्र की इमारत हाल ही में किए गए रंग-रोगन की वजह से बाहर से एक दम चका.चक नजर आ रही थी स यहां भी मरीजों का तांता लगा हुआ था और गहमा-गहमी का माहौल था स रजिस्ट्रेशन काउंटर खुला तो था लेकिन कर्मचारी नदारथ था और ना ही इस काउंटर पर कोई मरीज ही खड़ा था स काउंटर के समीप ही कुर्सी पर विराजमान एक कर्मचारी से जब मैंने इस बारे में जानकारी ली तो उन्होंने बताया कि आज के लिए रजिस्ट्रेशन खत्म हो चुका है ए लगभग ९० नए मरीजों का रजिस्ट्रेशन आज हुआ है, मैंने जब उनसे पूछा कि ऐसा क्यूं, क्या ९० से ऊपर नए मरीजों के रजिस्ट्रेशन का प्रावधान नहीं है घ् तो उन्होंने मुझे बताया कि नहीं ऐसी कोई बात नहीं है बल्कि आज तीन ही डॉक्टर आए हैं और उनमें से दो को आज जल्दी वापस पटना लौटना है, मैंने उनसे जब ये पूछा कि यहां कितने डॉक्टरों की बहाली है तो उन्होंने कुछ सोचने के बाद कहा कि मेरी जानकारी के मुताबिक प्रभारी को मिल कर शायद मैंने उनसे तुरंत सवाल दागा कि क्या सारे डॉक्टर्स रोज आते हैं घ् तो उन्होंने स्थानीय बोल.चाल की भाषा में बताया कि कहीनो-कहीनो ही सभे आबअ हथिन, बाकी दिन अईसेहीं चलअ हईअ। यहां पर मैं आप सबों को ये बताता चलूं कि कर्मचारी महोदय ये सारी जानकारी मुझे मेरे स्थानीय ग्रामीण होने के कारण सहजता से मुहैया करा रहे थे। आगे थोड़ा कुरेदते हुए मैंने जब उनसे ये पूछा कि जब दिन की पाली में ये हाल है तो रात्रि की पाली में क्या होता होगा। इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो मुझे बताया उसकी कल्पना मैंने भी नहीं की थी, उन्होंने बताया कि यहां के पदस्थापित चिकित्सकों में ये आपसी तालमेल है कि रोज हरेक को आने की जरूरत नहीं है बल्कि जो जिस दिन आता है वो उस दिन रुक कर रात्रि की पाली में नियुक्त सहकर्मी चिकित्सक की ड्यूटी भी कर देता है और फिर रात्रि की पाली वाला चिकित्सक दिन में अपना टर्न आने पर दूसरे के बदले रात्रि की पाली की ड्यूटी कर देता है। मैंने जब उनसे ये पूछा कि आज जब दो चिकित्सक पटना ही लौट रहे हैं तो रात्रि की पाली में कौन रहेगा घ् तो उन्होंने बताया कि इन तीन चिकित्सकों में से एक जो स्थानीय निवासी भी हैं, वही आज अकेले सबों के बदले ड्यूटी बजाएंगे, मेरे दिमाग में तुरंत एक अनुभवी परंतु घाघ नौकरशाह के द्वारा एक अनौपचारिक मुलाक़ात के दौरान कही गयी बात कौंधी व्यवस्था नियम-कानून से नहीं बल्कि आपसी मेल-जोल, जोड़-तोड़ से ही चलती है, बातचीत का सिलसिला वहीं खत्म करते हुए मैं अंदर का जायजा लेने चल पड़ा, अंदर एक कक्ष के बाहर वॉर्ड का बोर्ड तो लगा था, फर्श पर हाल ही में लगे संगमरमर भी चम-चमा रहे थे लेकिन ना तो वहां मरीजों के लिए एक भी बेड लगा था और ना ही उस कमरे में कोई मरीज ही था, इसके बारे में मैंने जब जानने की कोशिश की तो इस रिपोर्ट को कवर करने में मेरी मदद कर रहे स्थानीय युवक मयंक जी ने हंसते हुए मुझे बताया कि सब ठेकेदारीराज का जलवा है, ऊपर से फिट.फाट ए नीचे से मोकामा घाट, इस कथित वॉर्ड के बगल में ही एक कक्ष के बाहर एक्स-रे का बोर्ड तो लगा था लेकिन उस के दरवाजे पर भी ताला लगा था, वहां मौजूद एक मरीज से पूछने पर पता चला कि एक्स-रे मशीन ज्यादातर खराब ही पड़ी रहती है या टेक्निशियन की अनुपस्थिति का बहाना बना दिया जाता है, मजबूरन मरीजों को बाजार में स्थित प्राइवेट एक्स-रे क्लीनिकों का सहारा लेना पड़ता हैस मुझे समझने में देर नहीं लगी कि एक्स-रे मशीन ज़्यादातर खराब क्यूं रहती है! कमीशनखोरी की लाईलाज बीमारी तो बड़ी-बड़ी मशीनों में जंग लगा देती है, एक्स-रे मशीन की क्या बिसात है! यहां दवाओं के काउंटर पर दवाओं का वितरण तो हो रहा था लेकिन पड़ताल करने पर पता चला कि उपलब्ध दवाओं की जो लिस्ट डिसप्ले दृबोर्ड पर दर्शायी जा रही थी उनमें से अधिकतर दवाएं उपलब्ध ही नहीं थीं, मैंने अब तक काम की काफी जानकारी जुटा ली थी और वहां से निकलने की तैयारी में ही था कि वहां मौजूद एक चिकित्सक ने मुझसे थोड़ा रंज भरे अन्दाज में कहा, अब तो बख्श दीजिए, मैंने भी वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी और ये सोचते हुए वहां से निकल पड़ा कि जब राजधानी से सटे इलाकों के स्वास्थ्य-केंद्रों में ऐसी कुव्यवस्था है तो बिहार के सूदूर ग्रामीण इलाकों में कैसा मंजर होगा।

1 COMMENT

  1. वैसे यह हालत कमोबेश सभी राज्यों में है , बिहार में कुछ ज्यादा है। नीतीशजी को यह लेख पढ़ने मत भेज देना बवाल मच जायेगा। भला मॉडल स्टेट में ऐसा हो सकता है क्या?

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