बिहार चुनाव: लोकतंत्र में ‘बाहुबली’ बनाम भारतीय मतदाता

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-निर्मल रानी

भारतीय लोकतंत्र वैसे तो कई बार किसी न किसी घटना को लेकर शर्मसार होता ही रहा है। कभी देश की संसद अथवा कई राज्‍यों की विधानसभाओं में माननीय सदस्यों के मध्य होने वाली धक्का मुक्की, गाली गलौच,मारपीट तोड़फोड़-जैसी असंसदीय हरकतों को लेकर तो कभी इन्हीं के द्वारा की जाने वाली नोटों के बंडलों की नुमाईश को लेकर। कई बार देश के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में जूते-चप्पल चलने, कुर्सियां फेंकने व माईक आदि तोड़ने तथा विधानसभा अध्यक्ष पर हमला करने जैसी अपमानजनक घटनाएं भी घट चुकी हैं। परंतु भारत वर्ष जैसे विशाल देश की इस विशाल लोकतंत्र व्यवस्था में कभी-कभार घटने वाली ऐसी घटनाओं को हमारे देश के लोग प्राय: भूल भी जाते हैं। परंतु यदि कोई बात हमारे इसी पवित्र लोकतंत्र को स्थायी रूप से कलंकित व शर्मसार करती है तो वह है इस व्यवस्था में अपराधियों, बाहुबलियों व गैंगस्टर लोगों का भारतीय राजनीति में दंखल दिया जाना। और केवल दंखल ही नही बल्कि कभी संसद, कभी विधानसभा अथवा विधानपरिषद के सदस्यों के रूप में उनका निर्वाचित होना यहां तक कि कभी-कभी मंत्री जैसे अति जिम्‍मेदार पद पर काबिज तक हो जाना। और इससे भी अफसोसनाक व शर्मनाक बात यह है कि स्वयं को गांधीवादी, राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, समाजवादी, साम्‍यवादी आदि न जाने क्या-क्या कहने वाले राजनैतिक दलों द्वारा बड़े से बड़े अपराधियों व बाहुबलियों को अपनी-अपनी पार्टी का टिकट देकर उन्हें पार्टी प्रत्याशी बनाया जाना।

निश्चित रूप से देश के दो सबसे बड़े राज्‍य उत्तर प्रदेश तथा बिहार राजनीति के अपराधीकरण अथवा अपराधीकरण की राजनीति को लेकर कांफी बदनाम रहे हैं। उत्तर प्रदेश में हद तो यह है कि पंडित जवाहर लाल नेहरु जैसे सांफ-सुथरी छवि रखने वाले तथा उदारवादी राजनीति में पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान कायम करने वाले देश के प्रथम प्रधानमंत्री इलाहाबाद जिले की जिस फूलपुर संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व किया करते थे, उसी लोकसभा सीट पर पहले भी एक बाहुबली अपराधी निर्वाचित हुआ था और उसी सीट पर पुन:एक दूसरा बाहुबली अब एक अन्य पार्टी से निर्वाचित हुआ है। इस ‘लोकतांत्रिक दुर्घटना’ को हम राजनीति के अपराधीकरण का चरमोत्कर्ष भी कह सकते हैं।

बहरहाल देश के बुद्धिजीवियों तथा देश की खुशहाली व सुख-शांति चाहने वालों के इसी चिंतन व मनन के मध्य अपराधी बाहुबलियों के एक और सबसे बड़े राज्‍य बिहार राज्‍य में आगामी 21-25 व 28 अक्तूबर तथा 1-9 व 20 नवंबर 2010 को कुल 6 चरणों में चुनाव संपन्न हो रहे हैं। मु य चुनाव आयुक्त का पद संभालने के बाद एस वाई कुरैशी की यह पहली कड़ी परीक्षा होगी जबकि वे बिहार जैसे संवेदनशील राज्‍य में पहला चुनाव संचालित करेंगे। नक्सलवाद, माओवाद तथा अराजकता व जातिवाद के दौर से गुजर रहे इस राज्‍य में शांतिपूर्ण तरींके से चुनाव संपन्न कराना वास्तव में एक टेढी खीर है। परंतु कुरैशी ने जिस प्रकार 6 चरणों में चुनाव कराए जाने की घोषणा की है उससे यह साफ़ संकेत मिला है कि चुनाव के दौरान पूरी सख्‍ती बरती जा सकेगी। साढ़े पांच करोड़ मतदाताओं के लिए 56943 पोलिंग बूथ बनाए जा रहे हैं। 24 नवंबर तक मतगणना के परिणाम आ जाने की संभावना भी है। गौरतलब है कि वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 27 नवंबर को समाप्त हो रहा है। इन्हीं विधानसभा चुनावों के साथ-साथ बांका संसदीय सीट पर एक उपचुनाव भी होना है। यह सीट कुंवर दिग्विजय सिंह के आकस्मिक निधन के चलते खाली हुई थी।

णाहिर है इस चुनाव को अपने लिए एक शुभ अवसर समझते हुए बिहार के अधिकांश बाहुबली, अपराधी, गैंगस्टर आदि एक बार फिर इन्हीं चुनावों के माध्यम से अपनी छवि को सुधारने, अपने को सुरक्षित रखने तथा शासन-व्यवस्था में अपनी प्रभावी दखलांदाजी सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे। जहां तक बिहार की राजनीति में अपराधियों की दख़ल अंदाजी का प्रश्न है तो आंकड़ों के अनुसार 2005 में हुई अपराधियों की राजनैतिक सक्रियता की तुलना में 2009 आते-आते कुछ कमी जरूर आई है। माना जा रहा है कि इसके पीछे बिहार की अदालतों द्वारा तेजी के साथ मुकद्दमों का निपटाराकिया जाना भी एक सबसे बड़ी वजह रही है। एक अनुमान के अनुसार गत् लगभग 5 वर्षों के दौरान क़रीब-क़रीब 50 हजार अपराधियों को पूरे बिहार राज्‍य में अदालतों द्वारा सजाएं सुनाई गई हैं। जाहिर है इन्हीं में कई बाहुबली नेता भी शामिल हैं जो इस समय साायां ता होने का ‘तमगा’ भी पा चुके हैं। इसके बावजूद भले ही साायां ता होने के नाते ऐसे अपराधी बाहुबली कानूनी तौर पर स्वयं चुनाव न लड़ सकें परंतु वे अपनी पत्नी या अपने भाईयों अथवा सगे संबंधियों को चुनाव मैदान में उतार कर अपनी सीट पर अपना नियंत्रण बरक़रार रखना चाहेंगे।

उधर राज्‍य में सक्रिय कई राजनैतिक दल ऐसे भी हैं जो भले ही स्वयं को अपराधियों से दूर रखने का ढोंग क्यों न करते हों परंतु उन्होंने भी अभी से बाहुबलियों व अपराधियों से मिलने-जुलने यहां तक कि जेल तक जाकर उनसे मिलने का सिलसिला शुरु कर दिया है। इससे सांफ संकेत मिलने लगे हैं कि राजनीतिज्ञों व अपराधियों के मध्य बन चुका गठजोड़ अब एक बहुत माबूत शक्ल अख्तियार कर चुका है। हालांकि चुनाव आयोग के समक्ष यह प्रस्ताव भी है कि वह केवल सजायाफ्ता लोगों को ही नहीं बल्कि गंभीर आपराधिक मामलों मे आरोपित अपराधियों को भी चुनाव लड़ने की अनुमति न दे। परंतु येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर क़ बाजमाने की राजनीतिज्ञों की ललक, राजनीति पर अपराधियों की बढ़ती जा रही पकड क़ो कम नहीं करने देना चाहती। ऐसे में अंततोगत्वा एक बार फिर मतदाताओं पर ही यह जिम्‍मेदारी आ जाती है कि वे अपने शक्तिशाली गुप्त मतदान जैसे ‘लोकतांत्रिक हथियार’ के माध्यम से ही उन सभी बाहुबलियों अथवा बाहुबलियों के रिश्तेदारों व नातेदारों तथा अपराधी छवि के उम्‍मीदवारों को न केवल पराजित करें बल्कि उनकी ऐसी जमानतें जब्त कराएं ताकि वे भविष्य में कभी चुनाव मैदान में उतरने की हिम्‍मत भी न जुटा सकें।

देश के मतदाताओं को यह कहकर अपना पल्लू नहीं छुड़ाना चाहिए कि राजनैतिक दल जब अपराधियों या बाहुबलियों को अपना प्रत्याशी बना देते हैं तो मतदाताओं का क्या कुसूर। मतदाताओं को किसी भी राजनैतिक दलों के समर्थन या विरोध संबंधी अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर केवल एक ही बात पर अपना दृढ़ पूर्वाग्रह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे किसी भी दल द्वारा प्रत्याशी बनाए गए अथवा उनके द्वारा समर्थित अपराधी, बाहुबली या उसके सगे-संबंधियों को अपना कीमती मत देकर अपने क्षेत्र, अपने जिले, तथा अपने राज्‍य की बदनामी नहीं होने देंगे। यदि कोई अपराधी या बाहुबली अथवा उसका रिश्तेदार या सगा संबंधी स्वतंत्र उम्‍मीदवार के रूप में भी चुनाव लड़ता है तो उसे भी बुरी तरह से पराजित किए जाने की सख्‍त जरूरत है। हमारे सुधि मतदाताओं को न केवल स्वयं इस विषय पर गंभीर चिंतन करना चाहिए बल्कि अपने आसपास के मतदाताओं को भी इस बात के लिए प्रेरित करना चाहिए कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों मे सान,शरींफ,ईमानदार, धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी तथा विकासशील विचारों वाले प्रत्याशी का ही चयन करें तथा भ्रष्ट, बेईमान, दांगदार छवि वाले, अपराधी प्रवृति रखने वाले, सांप्रदायिकतावादी एवं जातिवादी प्रत्याशियों की जमानतें जब्त कराएं।

हमारे सुधि मतदाताओं को एक बात और ध्‍यान में रखनी चाहिए कि कोई भी अपराधी छवि रखने वाला बाहुबली प्रत्‍याशी चाहे वह किसी भी पार्टी से संबंधित क्‍यों न हों, जब वह व्‍यक्ति चुनाव जीतकर किसी सदन का सदस्‍य बन जाता है उस समय वह सबसे पहले सरकारी सुरक्षा बंदोबस्‍त करने की गुहार लगाता है। ज़ाहिर है उसे अपनी ज़ान का ख़तरा अपने साधारण व सीधे-सादे उन मतदाताओं से हरगिज़ नहीं होता जो उसे विजयी बनाते हैं। बल्कि उसे यह डर अपने उन दुश्‍मनों से होता है जिसके साथ उसने कोई अपराध किया है अथवा जिसके रास्‍ते में उसने कांटे बिछाए हैं। किसी सदन का सदस्‍य बनने के बाद वह निर्वाचित अपराधी अपने उन्‍हीं दुश्‍मनों से बचने की ख़ातिर अतिरिक्‍त सरकारी सुरक्षागार्ड अपने साथ ले लेता है। साफ़ है कि आम जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों से तनख्‍वाह पानेवाला पुलिसकर्मी राज्‍य की क़ानून व्‍यवस्‍था को संभालने में अपना समय लगाने के बजाए एक अपराधी बाहुबली की जी हुज़ूरी करने तथा उसकी सुरक्षा में अपना पूरा समय लगा देता है। आखिर आम जनता को यह किस प्रकार की सज़ा दी जाती है और क्‍यों। यहां एक बार फिर वही बात सामने आ जाती है कि अंततोगत्‍वा उसे निर्वाचित करने का जिम्‍मेदार कौन। जवाब मिलता है – यही मतदाता। अत: अब चुनाव जैसे पावन लोकतांत्रिक पर्वों के अवसर पर सिर्फ और सिर्फ मतदाताओं पर ही निर्भर करता है कि वे राजनीति को अपराधियों की राजनीति का अब तक सबसे बड़ा केंद्र रहा है। बिहार के मतदाताओं को इन चुनावों में यह प्रमाणित कर देना चाहिए कि बिहार अब अपराधियों का नहीं बल्कि शांति के संदेशवाहक गौतम बुद्ध का बिहार बन चुका है।

2 COMMENTS

  1. मैडम, आप अपनी कुंठा किसी और राज्य पर निकालें….आपको मुंबई नहीं दिखता जहाँ अरूण गवली जैसा अपराधी और गोविंदा जैसा भांड चुनाव जीत जाता है..
    दरअसल बिहार आप जैसे घटिया पत्रकारों का शिकार मात्र है …जो जानबूझ कर बिहार की इमेज ख़राब बनाता है …जिससे बिहार में कोई पूंजी निवेश न करे …और देश को सस्ते मजदूर मिलते रहे …

  2. बिहार चुनाव : लोकतंत्र में ‘बाहुबली’ बनाम भारतीय मतदाता -by- निर्मल रानी

    निर्मल जी बिहार की अपराध की राजनीति को शांति का बिहार बनाने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी केवल मतदाताओं पर डाल रहीं हैं.

    अत:, उनके अनुसार, मतदाता सुनिश्ति करें कि कोई भी बाहुबली प्रत्‍याशी चाहे वह किसी भी पार्टी से संबंधित क्‍यों न हों, चुनाव जीतकर नहीं आए.

    यह यदि हो सके तो उत्तम है.

    यह वह क्या कह रहीं है ? क्या यह व्यक्तिगत मतदाता के वश में है ?

    देश में राजनेतिक दल हैं, जो अपने दल से प्रत्याशी चुनाव में उतारते हैं.

    न तो अपराधीकरण व्यतिगत मतदाता ने करवाया है और न ही मतदाता अपने स्तर पर अपराधीकरण को हटा सकता है.

    चुनावों के अपराधीकरण की सफाई एक राष्ट्रीय मुद्दा है, जिसमें व्यतिगत मतदाता का कोई योग मायने नहीं रखता.

    क्या ही अचछा होता यदि मतदाता, बिना राजनीती दलों से, साफ़-सुथरा प्रजातांत्रिक तंत्र चला लेता. UTOPIA !

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