पार्टी विद डिफ़रेंस में कुछ भी डिफरेंट नहीं

513297_bjp300गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी ने भाजपा के आतंरिक लोकतंत्र की जितनी छीछालेदर की है वह पार्टी के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। क्या यह संभव नहीं था कि ‘पार्टी विद डिफ़रेंस’ का नारा बुलंद करने वाले खुद का कांग्रेसीकरण मीडिया के समक्ष नहीं आने देते? अटल-आडवाणी की छत्रछाया से मुक्त होती और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुट्ठी में जाती पार्टी इस कदर बुरे दौर से गुजरेगी, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। दरअसल कांग्रेस और भाजपा का यही अंतर दोनों पार्टियों को तर्क और यथार्थ की दृष्टि से अलग करता है। कांग्रेस में कम से कम राष्ट्रीय अध्यक्ष की बात को सर्वसम्मति से माना जाता है किन्तु भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष को अपनी बात मनवाने के लिए रूठों को मनाने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। रथी आडवाणी हों या सुषमा स्वराज, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान हों या गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर, कमोवेश सभी का मोदी विरोध समय-समय पर दृष्टिगत होता रहा है। मुरली मनोहर जोशी को मोदी विरोधी परिवार का नया सदस्य मान लिया जाए तो यह फेहरिस्त अब लंबी होती जा रही है। संघ भी अब मोदी के लिए आर या पार के मूड में अपने पुराने व ख़ास सिपहसालार आडवाणी की बलि चढाने पर आमादा है। वही आडवाणी जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की प्रबल संभावनाओं के बीच अटल बिहारी वाजपेयी का नाम इस पद हेतु आगे किया और अब तक ‘पीएम इन वेटिंग’ का तमगा लगाए घूम रहे हैं। यह भी संभव है कि मोदी की संभावित ताजपोशी से उनका यह तमगा भारतीय राजनीति के इतिहास में अमर हो जाए। यानी कुल मिलाकर आडवाणी को नकारने का साहस जुटा लिया गया है और बस उसपर मुहर लगना बाकी है। फिर जहां तक मोदी को प्रदत जिम्मेदारी का सवाल है तो एक न एक दिन पार्टी इसके नफा-नुकसान को भी समझ जाएगी किन्तु मोदी को तहरीज देकर आडवाणी को नकारने की भूल पार्टी की भरोसेमंद छवि को ज़रूर सहयोगी दलों से दूर कर देगी। २००२ में गुजरात में हुए दंगों के बाद जिस तरह से मोदी की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खलनायक की बनी और मोदी ने उस छवि को तोड़ने की कोशिश के तहत राज्य भर में सद्भावना सम्मलेन किए उससे संघ को लगा कि मोदी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं जो विकास, सुशासन तथा सर्वहारा वर्ग की पसंद के रूप में पार्टी को संजीवनी दे सकते हैं| हां, मोदी की कार्यशैली ज़रूर विवादित रही है। किन्तु मीडिया द्वारा कहें या संघ द्वारा प्रचारित; मोदी को एकमत से पूरी कांग्रेस के समक्ष “वन मैन आर्मी” की भांति खड़ा कर दिया गया है और शायद यही वजह है कि अब संघ अपने नए और उत्साही सिपाही को रणभूमि से हटाना नहीं चाहता है फिर चाहे इसके लिए कितने भी आडवाणी बलि क्यों न चढ़ जाएं? मोदी अदावत का दूसरा पहलु भी कम दिलचस्प नहीं है। दरअसल मोदी की राजनीतिक शैली के बारे में प्रचलित है कि वे अपने विकल्प के रूप में किसी को खड़ा ही नहीं होने देते। गुजरात इसका उदाहरण है। वहां मोदी के बाद कौन पर एक बड़ा प्रश्नचिंह है। हालांकि राज्य के कई नेताओं को मोदी का विकल्प कहा जाता रहा है किन्तु मोदी ने कभी इस विषय पर अपना मुंह नहीं खोला है। जब अपने गृहराज्य में मोदी ने ‘वन मैन आर्मी’ की भांति अपनी सत्ता चलाई है तो निश्चित रूप से केंद्र की राजनीति में भी यह होने वाला है। आडवाणी और उनके गुट को निस्तेज कर मोदी ने इसकी शुरुआत भी कर दी है। ज़ाहिर है ऐसे में बगावती सुर तो उठेंगे ही। पर क्या इन राजनीतिक प्रपंचों से पार्टी को कुछ फायदा होगा? शायद इस सवाल का जवाब जानते हुए भी पार्टी नेताओं ने स्वहितों की राजनीति की लकीर को लंबा कर दिया है।

 

जहां तक मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में आमद की बात है तो यह तो मानना ही होगा कि मोदी की लोकप्रियता आम और ख़ास नेताओं के मुकाबले कई गुना बढ़ी है। तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी यह साबित हुआ है कि पार्टी यदि मोदी को चेहरा बनाकर आम चुनाव में उतरती है तो उसे फायदा होगा। उधर राजनाथ सिंह यूं तो सेनापति की भूमिका में हैं मगर उनके हर फैसले पर संघ की छाप स्पष्ट नज़र आती है| फिर भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं की जनता में इतनी विश्वसनीयता नहीं है कि पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद हेतु दावेदार घोषित करे| मीडिया में दिल्ली चौकड़ी के बारे में चाहे जो खबरें छपे; यह सच है कि सुषमा जहां अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में रहती हैं तो अरुण जेटली जनता के बीच ही नहीं जाते| वहीं अनंत कुमार और राजनाथ सिंह का कद अभी इतना बड़ा नहीं हुआ कि उन्हें देश के सर्वोच्च पद हेतु आगे लाया जाए| यानी आडवाणी या मोदी के नेतृत्व में ही भाजपा को आगे का सफ़र तय करना होगा| इसमें भी अब आडवाणी गांधीनगर की सीट छोड़ मध्यप्रदेश से सुरक्षित सीट की तलाश में हैं ताकि यदि भाजपा सत्ता में आती है तो प्रधानमंत्री पद पर काबिज होने हेतु उनके पास लोकसभा की सदस्यता तो हो और इसके लिए उन्होंने शिवराजसिंह को अपना सारथि चुना है। इन तमाम प्रपंचों के बीच आडवाणी को इतना ज़रूर समझना चाहिए कि स्व. वल्लभभाई पटेल भले ही प्रधानमंत्री न रहे हों पर देश के कई प्रधानमंत्रियों के अधिक मान-सम्मान है उनका। उनका मोदी विरोध मीडिया की सुर्ख़ियों में उनकी महत्वाकांक्षा से जोड़ा जा रहा है। मोदी की राह तो अब निश्चित रूप से बढ़ना ही है किन्तु मोदी विरोध का झंडा बुलंद करने वाले क्यों खुद और पार्टी को सरे आम रुसवा करने पर तुले हैं? उनका मोदी विरोध दरअसल संघ विरोध है जिसने उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की धार को कुंद किया है। संघ का भी स्पष्ट सन्देश है कि यदि मोदी विरोधियों को ससम्मान राजनीति से सेवानिवृत होना है तो उन्हें मोदी के नाम पर मुहर भी लगानी होगी और आगे भी उनकी छत्रछाया में राजनीति करना होगी। संघ परिवार तथा भाजपा का इतिहास देखते हुए अब इनका भविष्य निर्धारण तय दिख रहा है।

 

सिद्धार्थ शंकर गौतम

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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