राष्ट्रीय पार्टी, क्षेत्रीय राह

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हिमांशु शेखर

bjpदस साल बाद केंद्र की सत्ता के ख्वाब संजोने वाली भाजपा अपने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पहली बार दलितों और मुसलमानों को क्षेत्रीय दलों की तरह लुभा रही है.

हर राजनीतिक दल की देश-समाज में एक पहचान होती है. कोई जाति विशेष की राजनीति के लिए जाना जाता है तो कोई क्षेत्र विशेष की. भारतीय जनता पार्टी की भी अपनी एक पहचान है. कुछ इसे शहरी इलाके की पार्टी मानते हैं तो कुछ हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी. कुछ इसे आपसी राजनीति में उलझी हुई पार्टी मानते हैं तो कुछ इसे मुस्लिम विरोधी दल के तौर पर भी पहचानते हैं. कुछ लोग इसे अगड़ी जाति की राजनीति करने वाली पार्टी भी कहते हैं. हालांकि, इस तरह की कोई एक पहचान किसी पार्टी का पूरा चरित्र सामने नहीं रख सकती. लेकिन आम लोगों के मन में भाजपा को लेकर जो छवि है वह इन्हीं पहचानों के इर्दगिर्द घूमती है.

भाजपा की हाल की गतिविधियों पर अगर गौर किया जाए और पार्टी के नेताओं से बातचीत की जाए तो पता चलता है कि भाजपा अब अपनी एक नई छवि गढ़ना चाहती है, ऐसी छवि जिससे दलित खुद को भाजपा के साथ जोड़कर देख सकेंगे और मुस्लिम भी. पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री के सबसे मजबूत दावेदार माने जा रहे नरेंद्र मोदी का हाल ही में यह बयान देना अहम है कि अगर भाजपा को केंद्र में सरकार बनानी है और 272 का जादुई आंकड़ा छूना है तो इसके लिए मुसलमानों और दलितों को साथ जोड़ना होगा. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी कह रहे हैं कि मुसलमान भाजपा को अपना दुश्मन मानना बंद करें. वहीं दलितों को साथ लाने के लिए भाजपा हर स्तर पर प्रयास कर रही है. उसने भीमराव आंबेडकर, जगजीवन राम, कांशीराम और केआर नारायणन जैसे उन दलित नेताओं को अपनाना शुरू किया है जो हर लिहाज से गैर-भाजपाई रहे.

सबने देखा कि 2004 में केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद एक-एक कर कई सहयोगियों ने भाजपा का साथ छोड़ दिया. आज उसके साथ सिर्फ शिव सेना और शिरोमणि अकाली दल हैं. लंबे समय तक भाजपा का साथ देने वाले जनता दल (यूनाइटेड) ने भी बीते दिनों अलग राह ले ली. दक्षिण और उत्तर-पूर्व के राज्यों में से ज्यादातर में पार्टी का कोई आधार नहीं है. तो ऐसे में राजनीति की हल्की-फुल्की समझ रखने वाले व्यक्ति को भी एहसास है कि भाजपा के लिए केंद्र में वापसी आसान नहीं है. राम मंदिर का भावनात्मक मुद्दा भी उसे अकेले 120 सीटों के पार नहीं पहुंचा पाया था.

अगर आंकड़ों में समझने की कोशिश करें तो भाजपा को अब तक सबसे अधिक 25.6 फीसदी वोट 1998 के चुनावों में मिले थे. 1998 और 1999 के चुनावों में पार्टी ने 182 सीटों पर जीत हासिल की थी. यह आंकड़ा घटते हुए 2009 में 18.86 प्रतिशत मतों के साथ 116 सीटों पर सिमट गया. उधर कांग्रेस को पिछले आम चुनाव में 29 प्रतिशत वोट मिले थे. भाजपा को केंद्र की सत्ता के करीब पहुंचना है तो उसे अपने मत प्रतिशत में दस फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी करनी होगी. उसे यह कोशिश भी करनी होगी कि कांग्रेस का मत प्रतिशत गिरे. यही वह रहस्य है जिसे भेदने के लिए पार्टी दलितों और मुस्लिमों को अपने पाले में करना चाहती है.

पहले यह जानते हैं कि भाजपा किस तरह से दलितों को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है. हालांकि, उसके नेता यह नहीं मानते. वे दावा करते हैं कि दलित तो भाजपा से पहले से भी जुड़े रहे हैं और भाजपा ने दलित नेताओं को पार्टी में प्रमुख स्थान भी दिया है. यह भी कहा जाता है कि अगर पार्टी दलित विरोधी होती तो फिर बंगारू लक्ष्मण को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनाया जाता. लेकिन भाजपा के हिस्से में आने वाला मत प्रतिशत इस बात की ओर इशारा करता है कि अब भी दलितों का भरोसा पार्टी पर जमा नहीं है.

लेकिन पिछले कुछ समय से भाजपा की ओर से कई स्तर पर दलितों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश दिख रही है. जब नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष थे तो उन्होंने इस दिशा में शुरुआत करने की मंशा सार्वजनिक तौर पर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में जगजीवन राम पर एक पुस्तक का विमोचन करते हुए जाहिर की थी. राजनाथ सिंह के दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद ये कोशिशें तेज हुई हैं. कुछ राजनीतिक जानकार इसे भाजपा में नरेंद्र मोदी के उदय से जोड़कर देखते हैं. मोदी खुद अति पिछड़े वर्ग से आते हैं. इसलिए कई लोग भाजपा के दलित प्रेम को मोदी के उभार से जोड़कर देखते हैं और मानते हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा दलित और पिछड़ा कार्ड बेहद आक्रामक ढंग से खेलेगी.

भाजपा ने अलग-अलग राज्यों में इस रणनीति को अंजाम देना शुरू भी कर दिया है. जदयू से गठबंधन टूटने के बाद बिहार में भी इस दिशा में प्रयोग किया जा रहा है. भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, ‘इसी रणनीति के तहत प्रदेश स्तर के हमारे नेता दलित बस्तियों में जा रहे हैं, उनके यहां भोजन कर रहे हैं और उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा उनकी विरोधी नहीं है बल्कि उनके कल्याण की पक्षधर है.’ बीते दिनों पटना में आयोजित पासवान महासभा में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद जैसे नेताओं का शामिल होना और अपने भाषणों में बार-बार यह दोहराना कि भाजपा ही उनकी हितों की रक्षा कर सकती है, इस बात का संकेत है कि भाजपा पिछड़ों के जरिए खुद को मजबूत बनाना चाहती है. राजनाथ सिंह ने इस मौके पर कहा कि भाजपा ने हमेशा से दलितों का भला चाहा है और वे इस वर्ग को सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. सुशील कुमार मोदी ने पासवान महासभा में घोषणा की कि अगर भाजपा की सरकार प्रदेश में बनती है तो पिछड़ों की आबादी के अनुपात में न सिर्फ बजट आवंटित किया जाएगा बल्कि कानून बनाकर यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि आवंटित रकम सिर्फ इसी मद में खर्च हो.

दलितों को अपने साथ लाने की भाजपा की कोशिशों के बारे में पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान बताते हैं, ‘भाजपा ने कभी भी जाति की राजनीति में यकीन नहीं किया है. लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को समावेशी होना चाहिए. इसलिए हम आने वाले दिनों में उन वर्गों और क्षेत्रों में अपना विस्तार करना चाहेंगे जिनमें हम अभी उतनी मजबूत स्थिति में नहीं हैं.’ यह पूछे जाने पर दलित सशक्तीकरण के लिए भाजपा क्या करेगी, संजय कहते हैं, ‘भाजपा की सरकार बनने पर हम दलितों से संबंधित विषयों के अध्ययन और शोध के लिए एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करेंगे. यहां लगातार इस बात पर शोध होगा कि दलितों को सशक्त कैसे बनाया जाए’ वे कहते हैं, ‘भाजपा दलितों के लिए सिर्फ आरक्षण की पक्षधर नहीं है बल्कि हम उत्थान चाहते हैं. दलितों का समग्र विकास तब होगा जब इस वर्ग का सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और बौद्धिक उत्थान होगा.’

 

दलितों के बीच अपनी जगह बनाने की रणनीति के तहत भाजपा न सिर्फ दलित संतों के संदेशों का प्रचार-प्रसार कर रही है बल्कि उन नेताओं की बातों को भी लोगों तक ले जा रही है जो गैर भाजपाई रहे हैं. इनमें से भीमराव आंबेडकर, जगजीवन राम, कांशीराम और केआर नारायणन प्रमुख हैं. दिल्ली में 11 अशोक रोड स्थित पार्टी मुख्यालय में अनुसूचित जाति मोर्चा का जो कार्यालय है, उसमें इन सभी नेताओं की तस्वीर लगाई गई है. शुरुआत में पार्टी के कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया. लेकिन राजनाथ सिंह ने इसका समर्थन करके संकेत दे दिया कि भाजपा इनके सहारे दलितों में अपनी पैठ बनाना चाहती है. पार्टी ने सिर्फ इन नेताओं की तस्वीर ही नहीं लगाई बल्कि वह इन पर कार्यक्रमों का आयोजन भी कर रही है. इसके अलावा वह इन नेताओं के जीवन और कार्य पर आधारित साहित्य के प्रकाशन और वितरण का काम भी कर रही है.

पार्टी की योजना देश के प्रमुख दलित व्यक्तित्वों के जन्म और कर्म स्थल से होकर यात्रा निकालने की भी है. पार्टी ने इसे दलित उत्थान यात्रा का नाम दिया है. यात्रा की शुरुआत अक्टूबर के पहले हफ्ते में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से होगी. यहां इसकी शुरुआत राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह करेंगे. बिलासपुर की पहचान सतनामी समाज के गुरु घासीराम से है. दलितों के बीच इनका खासा सम्मान है. इसके बाद यह यात्रा नागपुर होते हुए मुंबई पहुंचेगी. नागपुर और मुंबई से आंबेडकर का गहरा संबंध रहा है. फिर यात्रा उत्तर प्रदेश के झांसी पहुंचेगी. झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की कमांडर झलकारी बाई यहीं की थीं. झलकारी बाई दलित थीं. यात्रा बसपा के संस्थापक कांशी राम के जन्मस्थल पंजाब के रोपड़ भी जाएगी और शहीद ऊधम सिंह से जुड़े अमृतसर भी जाएगी. फिर यह जगजीवन राम की जन्मभूमि बिहार से होकर गुजरेगी. अंत में यह यात्रा 22 अक्टूबर, 2013 को दिल्ली पहुंचेगी और उस दिन पार्टी दलित उत्थान जुटान आयोजित करेगी. इसे लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह सरीखे पार्टी के वरिष्ठ नेता संबोधित करेंगे.

दलितों से संबंधित वोट की राजनीति और भाजपा की रणनीति के बारे में पूछने पर संजय पासवान कहते हैं, ‘देश में दलित मतदाताओं की संख्या तकरीबन 17 फीसदी है. इसमें से दो प्रतिशत यानी दलित मतदाताओं की कुल संख्या का 12 प्रतिशत भाजपा को मिलता है. गुजरात में जहां भाजपा को कुल दलित मतों का 50 फीसदी हिस्सा मिलता है तो वहीं पश्चिम बंगाल में यह महज दो प्रतिशत है. भाजपा की कोशिश यह होगी कि 17 फीसदी में से सात से आठ फीसदी वोट पार्टी को मिले. भाजपा के कुल मत प्रतिशत में दस फीसदी की बढ़ोतरी से केंद्र में सरकार बनाने का हमारा रास्ता साफ हो जाएगा. हमारी कोशिश यह है कि इसमें चार से पांच प्रतिशत का योगदान दलित समाज का हो.’

अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि भाजपा अल्पसंख्यकों को अपने साथ जोड़ने के लिए क्या कर रही है और इससे भाजपा क्या हासिल कर सकती है. लेकिन इससे पहले यह जानते हैं कि देश में मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन किसी भी दल के लिए कितना जरूरी है. देश में मुसलमानों की संख्या तकरीबन 18 करोड़ है. अगर देश की कुल आबादी के प्रतिशत के तौर पर देखें तो यह 15 फीसदी के आसपास बैठता है. लेकिन लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या 30 यानी महज 5.5 फीसदी है. करीब 35 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की आबादी 30 फीसदी से अधिक है. कुल मतदाताओं में मुस्लिमों की 21 से 30 फीसदी हिस्सेदारी वाली सीटों की संख्या 38 है. वहीं 11 से 20 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं वाली लोकसभा सीटों की संख्या देश में 145 है. देश की 183 लोकसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 5 से 10 प्रतिशत के बीच है.

इन आंकड़ों से इस बात का पता चलता है कि चुनावी नतीजे तय करने में देश के मुसलमानों की कितनी अहम भूमिका है. यही वजह है कि 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस और 2002 के गुजरात दंगों के बोझ तले दबी भारतीय जनता पार्टी भी अपने पारंपरिक वोट बैंक का विस्तार करते हुए मुसमानों को अपने पाले में लाना चाहती है. नरेंद्र मोदी को लोग मुस्लिम विरोधी मानते रहे हैं. लेकिन अब अगर उनकी तरफ से ही मुसलमानों को जोड़ने की आवाज उठ रही है तो मतलब साफ है कि भाजपा को लगता है कि उनका भरोसा जीते बगैर सरकार बनाने का सपना पूरा नहीं हो सकता.

भाजपा मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने के मकसद से एक दृष्टि पत्र तैयार कर रही है. इसकी जिम्मेदारी पार्टी के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी को दी गई है. तहलका से बातचीत में नकवी कहते हैं, ‘हम जल्द ही इस दृष्टि पत्र का काम पूरा करके इसे सार्वजनिक करने वाले हैं. पार्टी मुस्लिम तुष्टीकरण में नहीं बल्कि मुस्लिम सशक्तीकरण में यकीन करती है. इस दृष्टि पत्र के जरिए हम मुस्लिम समाज के बीच यह संदेश लेकर जाएंगे कि उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तीकरण के लिए भाजपा के पास क्या योजना है.’ यह पूछे जाने पर कि क्या मुसलमान समाज 1992 और 2002 को भूलकर भाजपा पर यकीन करने का जोखिम लेगा, नकवी कहते हैं, ‘हम मुस्लिम समाज में इस बात को पहुंचाएंगे कि सबसे अधिक दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए हैं. हम लोगों को यह बताएंगे कि अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भाजपा ने मुसलमानों के सशक्तीकरण के लिए क्या-क्या किया है. जिन-जन प्रदेशों में हमारी सरकारें हैं, वहां अल्पसंख्यकों को सशक्त बनाने के लिए जो योजनाएं चल रही हैं, उनका लेखा-जोखा हम लोगों के सामने पेश करेंगे. इसके लिए हम कार्यक्रमों और यात्राओं की श्रृंखला शुरू करने वाले हैं.’ क्या मुस्लिम समाज का विश्वास जीतने के लिए इतना पर्याप्त होगा? जवाब में नकवी कहते हैं, ‘इस समाज का सबसे अधिक राजनीतिक शोषण हुआ है. इसलिए यह जरूरी है कि मुसलमानों की स्थिति को देखते हुए उसी अनुपात में पार्टी मुस्लिम नेताओं को टिकट दे. इससे मुस्लिम समाज में पार्टी को लेकर विश्वास बहाली को मजबूती मिलेगी.’

मुस्लिम समाज को भाजपा से जोड़ने के लिए कई स्तरों पर काम चल रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मार्गदर्शन में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच इस समाज के बीच विश्वास बहाली के लिए काम कर रहा है. वहीं पिछले दिनों दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में नैशनलिस्ट फोरम ऑफ इंडिया की पहल पर भाजपा नेताओं और मुस्लिम बुद्धिजीवियों और आम लोगों के बीच संवाद की कोशिश भी हुई. इसमें भाजपा की तरफ से पार्टी के महासचिव मुरलीधर राव, अल्पसंख्यक मोर्चे के प्रभारी जेके जैन और अनुसूचित जाति मोर्चे के प्रमुख संजय पासवान को भेजा गया. इस कार्यक्रम में मुस्लिम समाज की ओर से हिस्सा लेने वालों में ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुसव्वरत के अध्यक्ष अनवरूल इस्लाम, नैशनल हेराल्ड के संपादक रहे एके किदवई, प्रमुख ऊर्दू कवि फरहत अहसास, जामिया नगर कोऑर्डिनेशन कमेटी के इरफान उल्लाह खान प्रमुख हैं. इन सभी मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने इस कार्यक्रम में भाजपा नेताओं से कहा कि उनकी पार्टी को मुसलमानों को लेकर अपने रवैये में बदलाव करना चाहिए. जब भाजपा के प्रतिनिधियों की बारी आई तो तीनों ने एक-एक कर यह दोहराया कि मुस्लिम समाज भाजपा को अपना दुश्मन मानना बंद करे और देश के विकास के लिए भाजपा और मुसलमानों का साथ आना बेहद जरूरी है.

नैशनलिस्ट फोरम ऑफ इंडिया के संयोजक दुर्गा नंद झा इसे एक शुरुआत मानते हैं. उनके मुताबिक, ‘यह एक ऐसा दौर है जिसमें सिर्फ वही राजनीतिक दल बचा रह सकता है जो विभिन्न अंतर्विरोधों वाले समूहों को सही ढंग से अपने साथ लेकर चलने में सक्षम हो.’

हालांकि, कुछ राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने की भाजपा की हालिया कोशिश का बहुत अधिक फायदा कम से कम इस चुनाव में तो पार्टी को नहीं मिलेगा लेकिन मुस्लिम समाज में विश्वास बहाली को लेकर पार्टी कुछ कदम आगे जरूर बढ़ेगी. ये लोग यह भी कहते हैं कि मोदी को यह भूल नहीं करनी चाहिए कि जो बात गुजरात पर लागू होती है वही पूरे देश पर लागू होगी. गुजरात में अगर 25 फीसदी मुसलमान भाजपा को वोट देते हैं तो यह समझना जरूरी है कि इसमें बड़ी हिस्सेदारी मुस्लिम समाज के कारोबारी वर्ग की है जिसे मोदी के राज में काफी फायदा मिला है. देश के दूसरे हिस्से में ऐसी स्थिति नहीं है.

भाजपा की राजनीति को बहुत करीब से देखने वाले मानते हैं कि आज मुसलमानों के बीच भाजपा की हालत कुछ वैसी ही है जैसी कांग्रेस की 1938 से लेकर 1948 के बीच थी. उस वक्त मुसलमान कांग्रेस को अछूत मानते थे और उस पर हिंदूवादी होने की तोहमत मढ़ते थे. कांग्रेस को इससे निकलने में वक्त लगा. भाजपा अगर मुसलमानों को अपने साथ लाने की दिशा में ईमानदारी से कोशिश करती है तो भी पार्टी को 1992 और 2002 के साये से बाहर निकलने में कम से कम एक दशक का वक्त और लग जाएगा.

इस रिपोर्ट के प्रेस में जाते समय अखबार में खबरें आईं कि गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह भरोसा दिलाया है कि 2002 के दंगों में क्षतिग्रस्त मस्जिदों और दरगाहों की मरम्मत के लिए वह एक नई योजना जल्द ही लाएगी. पहले यही सरकार इन मस्जिदों की मरम्मत के लिए चवन्नी देने को भी तैयार नहीं थी और उसके इसी रवैये की वजह से यह मामला देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचा था. नरेंद्र मोदी सरकार के इस कदम को मुस्लिमों को भाजपा के साथ जोड़ने की कोशिश के तौर पर ही देखा जा रहा है.

 

मिशन 272

भाजपा में जो भी चल रहा है उससे एक बात तो साफ जाहिर होती है–पार्टी इस चुनौती को समझ रही है कि केंद्र की सत्ता में आना उसके लिए कितना मुश्किल है. इसलिए नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह की ओर से तय किए गए ‘मिशन 272’ को पूरा करने के लिए पार्टी में गुणा-गणित शुरू हो गया है. इस गुणा-गणित के हिसाब से भाजपा ने सबसे पहले अपने लिए महत्वपूर्ण 342 सीटों की पहचान की है. इनमें से 299 ऐसी हैं जिन पर वह कभी न कभी जीती है. बाकी पर पार्टी कम से कम एक बार दूसरे स्थान पर रही है. रणनीति इन्हीं 342 सीटों पर पूरा जोर लगाने की है क्योंकि पार्टी को लगता है कि बाकी सीटों पर बहुत मेहनत करने का कोई खास फायदा नहीं होने वाला.

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