इतिहास स्वयं को दोहराता है ! ऐसा न कहें !! अब इतिहास की कार्बन कापी होती है ऐसा कहें !!! क्योंकि मुफ़्ती मोह.सईद स्वयं की कार्बन कापी के रूप में अब पुनः प्रस्तुत हैं. कार्बन कापी उस घटना की जिसमें उन्होंने वी.पी.सिंग सरकार में गृह मंत्री रहते हुए आतंकियों से स्वयं की बेटी रुबैया की रिहाई के लिए कुछ दुर्दांत आतंकियों को जेल से रिहा कर दिया था. बाद में खुफिया सूत्रों से पता चाला था कि रुबैया के अपहरण और आतंकियों की रिहाई की मांग की यह योजना मुफ़्ती की सहमति और संलग्नता से बनी और पूर्ण हुई थी. प्रथम दृष्टया ऐसा सभी को लग सकता है कि भाजपा श्रीनगर में फंस गई है किन्तु जो दीर्घकालीन राजनीति को समझतें हैं, घटना में छुपे अवसर को पहचानतें हैं और सबसे बड़ी बात जो जोखिम लेना जानतें हैं वे समझ सकते हैं कि नरेंद्र मोदी की भाजपा नें कश्मीर में एक महत्वाकांक्षी दांव फेंका है. आप इसे घटना को अवसर में बदलनें का दुस्साहस भी मान सकतें हैं. सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और राम माधव की टोली को पीडीपी से गठबंधन के बाद अपनें समर्थकों के नाराज होनें का भान ही नहीं बल्कि उन्हें इस असंतोष की ग्यारंटी रही होगी. फिर भी यदि इस टोली नें यह शतरंज की बिसात पर यह बेहद जोखिम भरी चाल चली है तो इसे विचार आग्रह के प्रति इनकी प्रतिबद्धता के रूप में ही देखा जाना चाहिए. इस जांबाज टोली के प्रति इतना दायित्व तो हम समर्थकों का बनता ही है.
सभी जानतें हैं कि कश्मीर को लेकर सदैव से भाजपा की एक विशिष्ट सोच, 370 उन्मूलन का संकल्प, समान राज्य का आग्रह और “हर कीमत पर यह भारत का अभिन्न अंग है” जैसा स्पष्ट और मुखर दृष्टिकोण रहा है. दूसरी ओर कश्मीर की यह स्थिति रही कि वहां के जन मानस में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं संघ को लेकर कभी आदर, सम्मान तो छोड़िये सामान्य स्वीकार्यता की स्थिति भी कभी नहीं रही.
इन तथ्यों के मध्य जम्मू कश्मीर में “हिन्दू मुख्यमंत्री” जैसे लगभग असंभव और दिवा स्वप्न के साथ नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और राम माधव ने चुनाव लड़ा. चुनावी परिणाम जो आये वह लक्ष्य अनुरूप नहीं थे किन्तु एतिहासिक अवश्य थे. यद्दपि भाजपा जम्मू कश्मीर में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भी नहीं उभरी तथापि दुसरे न. पर आकर भाजपा नें रिकार्ड संख्या में अपनें विधायकों को जम्मू कश्मीर की विधानसभा में पहुंचा दिया. लगभग ढाई माह की अस्थिरता के बाद दो विपरीत वैचारिक ध्रुवों भाजपा और पीडीपी ने कश्मीर में सरकार बनाना स्वीकार किया. “हिन्दू मुख्यमंत्री” का लक्ष्य लेकर चले नेता द्वय राम माधव और अमित शाह ने तीन-तीन साल के मुख्यमंत्री का भरसक किन्तु असफल प्रयत्न किया. इसके पश्चात इस टोली के सामनें दो लक्ष्य थे तात्कालिक लक्ष्य यह कि आम कश्मीरी भाजपा कार्यकर्ता जैसा सोचता है वैसा निर्णय कर अपनी दुर्लभ रही कश्मीरी कार्यकर्ता पूंजी का सरंक्षण करें और दीर्घकालीन लक्ष्य यह कि इस अवसर का लाभ उठाकर जम्मू और घाटी में अपनी उपस्थिति सुदृढ़ कर “हिन्दू मुख्यमंत्री” का लक्ष्य साधा जाए. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस आसान सी बात को सूत्र बना चुका था कि कश्मीर सन्दर्भ में कोई भी बड़ा निर्णय लेना है तो श्रीनगर में सत्तारूढ़ होना होगा. जम्मू कश्मीर के स्थानीय कार्यकर्ताओं के आग्रह और मानसिकता के आधार पर निर्णय लेकर भाजपा जैसे ही आगे बढ़ी वैसे ही देश भर में फैले भाजपा और संघ के जमीनी समर्थक और स्वयंसेवक जैसे हड़बड़ा उठे, चहुँओर से विरोध के स्वर मुखरित हो गए. यह समय मानसिक जद्दोजहद का अवश्य था किन्तु तेजी से बदलते राजनैतिक युग में प्रयोग के तौर पर देर अबेर सभी स्तर के भाजपाइयों और संघ के स्वयंसेवकों ने इसे स्वीकार किया. किन्तु यह स्वीकार्यता और विजयी भाव एक ही दिन टिका और दुसरे ही दिन भाजपा और संघ समर्थक अपनें आपको मूंह के बल गिरा आभास करनें लगे, जब मात्र दस दिन में मुफ़्ती ने अफजल गुरु, पाक प्रसंशा और मसरत जैसे काण्ड रच डाले और आगे भी और अलगाववादियों की रिहाई की बात करनें लगी!! सत्ता के प्रयोगों में कुशल हो चला भाजपा का नेतृत्व और साधारण कार्यकर्ता दोनों ही जैसे पक्षाघात की स्थिति में आ गए. आरएसएस के मुख पत्र में मुफ़्ती से सीधा प्रश्न हुआ कि “मुफ़्ती स्वयं को भारतीय मानतें हैं या नहीं?” संघ के बहुत से संदेश इस प्रश्न से स्पष्ट हो गए!!
मसरत के नाम पर उठे ज्वार के अंतर्भाव को इस बात से समझा जा सकता है कि अलगाववादी मसरत आलम सैयद गिलानी के प्रभाव में रहा एवं 2008-10 में हुए भारत विरोधी हिंसक प्रदर्शनों का जनक रहा था जिसमें 112 लोग मृत हुए थे. दस लाख का इनामी राष्ट्रद्रोही मसरत अक्टू. 2010 में पकड़ा गया था. 1989 में अफस्पा विरोधी संघर्ष में भारत के विरुद्ध मोर्चा खोलनें वाला मसरत कश्मीर को पाक को सौंप देनें की सार्वजनिक वकालत भी करता रहा था. 27 मामलों में घोषित आरोपी मसरत अमरनाथ यात्रा का भी घोर विरोधी रहा है.
श्रीनगर में भाजपा के लिए खतरे की घंटी पुनः बजी जब मुफ़्ती “हीलिंग टच” की नीति अनुसार लगभग 300 आतंकियों को “राजनैतिक बंदी” बताकर छोड़ने की योजना बतानें लगे. कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास को लक्ष्य मानकर चल रही भाजपा श्रीनगर में अपनें उप मुख्यमंत्री के माध्यम से कुछ सकारात्मक कर पाती उसके पूर्व ही मुफ़्ती की नकारात्मकता का पाप भरा घड़ा उस पर टूट पड़ा. अलगाव वादियों की रिहाइयों से आशंकित देश को प्रम मोदी जी ने आश्वस्त किया और कहा कि सम्पूर्ण देश में कश्मीर सरकार के प्रति व्यक्त हो रहे आक्रोश में उनका आक्रोश भी सम्मिलित है.
घाटी में पीडीपी के भाजपा के साथ सरकार बनानें को लेकर पीडीपी का परम्परागत समर्थक भी नाराज है और यहाँ से ही भाजपा की कूटनीति प्रारम्भ होती है. पीडीपी समर्थकों की नाराजी के बीच चतुरता से अपनी जगह तलाशती भाजपा कुछ पानें की स्थिति में ही है खोनें की स्थिति में बिलकुल नहीं. घाटी में भाजपा अपनें सुशासन से विश्वसनीयता की ओर बढ़नें के दूरंदेशी एजेंडे पर काम कर रही है. यह बड़ी बात है कि इन सभी विरोधाभासी परिस्थितियों में भी भाजपा अपनें जोखिम भरे दांव पर कायम है. सामान्य राजनीतिज्ञ इतनें जोखिम भरे दांव खेलनें का खतरा नहीं ले पाते हैं जैसा कि भाजपा नेतृत्व ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से बंधकर खेला है. भाजपा मुफ़्ती को धमकी देकर, उसकी लगाम थाम, शासन चलानें और घाटी में स्वीकार्य होनें की ओर देख रही है. अब इसे देश में सस्ती लोकप्रियता से ऊपर उठकर प्रतिबद्ध राजनीति करनें और लक्ष्य को पानें की तरफ बढ़ने का दुस्साहस तो कहा जा सकता है किन्तु सत्ता का मोह कतई नहीं!!